30 साल पहले राजीव गांधी मुस्लिम मतों के लालच में स्त्री विरोधी कठमुल्लों के आगे झुक गये थे. गलती की थी. इससे दोनों तरफ के संकीर्ण तत्वों को बढ़ावा मिला. पता नहीं लाभ कितना मिला. नरेंद्र मोदी को न मुसलिम वोट मिलने की उम्मीद रही है, न इन्होंने कभी उसकी परवाह की. उल्टे थोड़ा बहुत लाभ की उम्मीद है. साथ में इस फैसले का क्रेडिट भी झूठ मूठ में मिल गया. यह फैसला ‘तीन तलाक’ पीड़ित चंद मुसलिम महिलाओं की याचिका पर दिया गया है. पर यह संदेश तो स्पष्ट है कि यह सरकार इसे निष्प्रभावी करने का प्रयास नहीं करेगी. एक माहौल तो बना ही कि पीड़ित मुसलिम महिलाएं खुल कर बोलने लगीं.
एकबारगी (इंस्टैंट) ‘तीन तलाक’ पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मूलत: बराबरी और सम्मान की लड़ाई लड़ रही मुसलिम महिलाओं की जीत, और धर्म को अपनी जागीर समझते रहे कट्टरपंथियों की हार है. इसका राजनीतिक फलाफल जो भी हो, यह स्वागतयोग्य है. इससे समता और सम्मान के लिए जारी लड़ाई को बल मिलेगा. इसका असली श्रेय तो उन महिलाओं को जाता है जिन्होंने इस लड़ाई को इस अंजाम तक पहुंचाया. इस तरह उनकी निजी त्रासदी पूरे समुदाय की ऐसी स्त्रियों का मुद्दा बन गयी. फिर भी वर्तमान सत्ताधारियों को क्रेडिट लेने से हम रोक कैसे सकते हैं? और उन्हें यह मौका तो उन कथित सेकुलर और मुस्लिम हितों के चैम्पियनों ने भी दिया है, जो अब भी इस विषय पर खुल कर बोलने, इस फैसले का स्वागत करने में हिचक रहे हैं. बेशक भाजपा इसका लाभ लेना चाहेगी, शायद थोडा-बहुत लाभ मिल भी जाये. यह तो सर्वविदित ही है कि जो लोग अभी अचानक मुसलिम महिलाओं के दर्द से व्यथित हो गये हैं, उनको हिंदू महिलाओं की व्यथा से भी कुछ लेना-देना नहीं है. वे तो ‘परंपरा’ के नाम पर जारी उन सभी बंधनों को जारी रखने के पक्षधर हैं, जिनसे हिंदू स्त्रियाँ बंधी हैं, जिस कारण समाज में उनकी स्थिति दोयम बनी हुई है. फिर भी हमें अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने में संकोच क्यों होना चाहिए? इस फैसले के बाद काफी प्रतिक्रियाएं आ चुकी है. अब इस मुद्दे पर बिस्तृत परिप्रेक्ष्य में चर्चा की जरुरत है.
बहरहाल इस एक फैसले से शायद मुसलिम समेत महिलाओं की सारी समस्याओं का अंत नहीं हो जानेवाला है. पर इससे एक नयी बहस का, नयी पहल का मौका जरूर मिला है. विवाह हर समुदाय-हर धर्म की महिलाओं के जीवन का हिस्सा है. अलग अलग परम्पराएं हैं. मान्यताएं हैं. कानून से इतर परंपरा ज्यादा अहम् हो जाती है. और विवाह के साथ विवाह-विच्छेद भी जुड़ा है, न चाहते हुए भी जिसकी नौबत आ सकती है, आती ही है.
फिलहाल पहले तलाक पर ही विचार करें, जो विवाह व्यवस्था का अनिवार्य अंग है. स्त्री के लिए शायद ज्यादा ही जरूरी है. तलाक की कष्टपूर्ण चर्चा का निष्कर्ष यह नहीं निकले कि तलाक ही गलत है, यह सावधानी रखनी होगी. यदि अपरिहार्य हो जाये, तो तलाक स्त्री-पुरुष दोनों के जीवन की बेहतरी के लिए है. जब साथ रहना एकदम कठिन हो जाये तो अलग रहना मौत से बचाता है. पर आज की हालत यह बन गयी है कि तलाक स्त्रियों की प्रताड़ना का एक बड़ा हथियार बन गया है. यह जो ‘तीन तलाक’ को इतना बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है, वह इसीलिए कि इससे स्त्रियों का जीवन नरक बनता जा रहा है और पुरुषों के लिए धमकी भरा खिलवाड़ बना हुआ है. इस फैसले से यही होगा कि एक बार में तीन बार तलाक बोलने से तलाक लागू नहीं होगा. पर पति तलाक के लिए इच्छुक ही है तो उसे बस तीन महीने की प्रक्रिया से गुजरना होगा. अतः इस फैसले से समस्त तलाकशुदा औरतों के दुखों का अंत नहीं होने वाला, और ना ही स्त्रियां तलाक के भय से पूरी तरह मुक्त हो गयीं. हां, दोनों को यह मौका मिला कि थोडा विचार कर लें. इससे हलाला जैसी चीजें भी कम होंगी.
तीन तलाक पर रोक के फैसले को इस नजरिये से भी देखना होगा. अचानक तलाक के बजाये सोच-विचार कर तलाक. पर यह सोच विचार का मौका पुरुषों के लिए ही है. यहाँ पर याचिकाकर्ता सायरा बानो की याचिका की एक पंक्ति गौरतलब है : ‘जब निकाह के समय दोनों की सहमति जरुरी है, तो तलाक के समय क्यों नहीं?’. मेरा तो मानना है जब विवाह या निकाह सब के सामने हो तो तलाक भी समुदाय या रिश्तेदारों की उपस्थिति में ही हो. या फिर कोर्ट में हो, ताकि स्त्री के अधिकार सुनिश्चित किये जा सकें.
कोई संदेह नहीं कि यह फैसला बहुत ही महत्वपूर्ण है और मुसलिम औरतों के लिए बड़ा बदलाव लेकर आया है. बदलाव इस अर्थ में भी की धर्म के नाम पर अब स्त्रियों के अन्याय को देश का कानून बर्दाश्त नहीं करेगा. और मुस्लिम औरतों पर विचार मुस्लिम करें, हिंदू औरतों को हिंदुओं के भरोसे रहना होगा, के बजाये सभी औरतों के हकों पर हम सभी और हमारा कानून विचार करेगा यह भी तो स्थापित हुआ है. समाज भले धीरे धीरे बदलेगा मगर कानून और न्याय व्यवस्था औरतों को क्यों और कैसे दोयम मानेगी. पाकिस्तान, बांग्लादेश, समेत 32 अन्य इस्लामिक देश इस बात को पहले ही स्वीकार कर चुके हैं और एक साथ तीन तलाक को ख़ारिज कर चुके है. पर यह भी सच है की तलाक के कष्टों से हर समुदाय की स्त्री को बचाने पर हमें और विचार करना होगा. इस फैसले के बाद तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं की दुर्दशा का जो जिक्र हो रहा है, वह भी सभी धार्मिक समुदाय की महिलाओं की दुर्दशा है. बल्कि तलाकशुदा हिंदू स्त्री इसे ज्यादा झेल रही है. मथुरा, वृंदावन और बनारस की आँसू भरी कहानियां आज भी सच हैं. कानूनन वैध होने के बावजूद पुनर्विवाह हिंदू समाज में आज भी हृदय से स्वीकार नहीं है.
किसी भी स्त्री के लिए, किसी भी धर्म की स्त्री के लिए अगर जरुरी ही हो, तो तलाक स्वीकार करना इतना मर्मान्तक क्यों हो. तलाक पुरूषों के साथ स्त्रियों के लिए भी अन्याय का प्रावधान नहीं बने, यह सुनिश्चित करना हम सबकी जिम्मेदारी होनी चाहिए. इसके लिए मेरी विन्दुवार धारणा निम्न है :
-स्त्री को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिले. यह कानून तो बन चुका है, मगर इसके अमल में कठोरता बरतने की जरूरत है, बल्कि मुसलिम औरतों में यह ज्यादा सहज है. आज जो मुस्लिम औरतों के दुःख में आँसू बहा रहे है वे हिंदू भाई ही कभी अपनी बहन को हिस्सा नहीं देते. विचार यह करना है कि इसे कैसे व्यवहारिक बनाया जाये
विवाह के बाद अर्जित संपत्ति पर दोनों का बराबर हक़ हो. चाहे स्त्री उपार्जन न करे या कम करे, क्योंकि उसका पूरा समय और शक्ति उसी घर में खर्च होती रही है. अतः तलाक की स्थिति में बराबर का बंटवारा हो. इन दोनों उपायों से स्त्री की बेचारगी कुछ तो कम होगी. पर क्या यह आसान है? सरकार अगर तलाक के मामले में कुछ करना चाहती है, तो यहाँ हस्तक्षेप करे. हर धार्मिक समुदाय के साथ करे.
-संपत्ति पर हक़ के अलावा आगे के जीवन के लिए स्त्री को आर्थिक- सामाजिक क्षतिपूर्ति भी पुरुष को देनी होगी. आखिर जिसे उसने अपना मान, अपनी सेवाएं दी, उन सेवाओं के एवज में अब ‘पेंशन’ क्यों नहीं चाहिए? अब तो वह व्यक्ति पति नहीं रहा, मात्र नियोक्ता बन गया.
और अंत में, समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि तलाकशुदा औरत के लिए योजना बनाये. उन्हें आर्थिक सामाजिक दोनों स्तर पर सहयोग की जरूरत है. समाज को भी आगे आना होगा. इसलिए भी जरूरी है कि तलाक समाज के सामने हो. कोर्ट के सामने, उसकी जानकारी और अनुमति/सहमति से हो, ताकि स्त्रियों को उसके वाजिब अधिकार से वंचित न किया जा सके. सबसे बड़ी बात कि कानून का क्रियान्वयन हो. कोई प्रावधान पहले औरतों के हक़ में लागू हो, फिर मजबूत पक्ष, यानी पति/पुरुष उसके खिलाफ कोर्ट में जाये. यहां होता यह है कि पुरुष के खिलाफ औरत सालों कोर्ट में लड़ रही है और मामला लटका हुआ है. तलाक के बाद पहले औरतों को सारे हक़ तुरंत मिलें. फिर पुरुष चाहे तो कोर्ट जाये. इस प्रावधान का मकसद यह कि जब तक मुक़दमा चले, कमजोर पक्ष यानी स्त्री दर दर भटकने को मजबूर न हो. अपवाद हर जगह होंगे, हो सकता है किसी स्त्री की आय अधिक हो, उसके नाम काफी संपत्ति हो. पर अपवाद से नियम नहीं बनते. माली हालत ठीक होने के बावजूद गलत इलजाम लगा कर, या यूं ही सनक में तलाक दे दिये जाने से उसका सामाजिक जीवन क्षिन्न भिन्न होता ही है. इस पहलू को ध्यान में रखना जरूरी है, जो बहुतेरे अन्यथा उदार और स्त्री के हिमायती लोग भी नहीं रख पाते. तलाकशुदा के साथ बेचारी, अनाश्रित और असहाय के विशेषण को हटा देना है