पुरूष प्रधान मानसिकता पुरूषों के साथ साथ औरतों में भी दिखाई देती है जिसके चलते वे तीन तलाक प्रथा की जटिल प्रक्रिया की रिहाई से कुछ महिलायें पूर्णतः खुश नज़र नही आ रही हैं. हालांकि सभी महिलायें इस तरह की मानसिकता का शिकार नही हैं, उनकी मानसिकता बदली भी है जिससे यह तो स्पष्ट है कि औरत अपनी जिंदगी की स्थिती जैसी है, वैसी ही रहनी है, यह मानकर नहीं चलना चाहती हैं. परेशानियों को नसीब मानकर नहीं स्वीकारना चाहती हैं, भले
ही यह समाज औरतों को सदियों से इस प्रकार ढ़ालने की कोशिश में लगा रहा है कि महिलायें दूसरों पर निर्भर रहें. मानसिक व आर्थिक तौर पर इसके लिए समाज ने औरतों को इतने भर मौके दिये हैं कि लड़की जब ससुराल में जाये तो ठीक ठाक ससुराल में काम करे, जिससे उनका नाम खराब न हो, उनके आत्मविश्वास को झंझोड़ देने वाले शब्दों को दुहराते रहना, कि तुम पराये घर की हो, ससुराल का घर ही तुम्हारा असली घर है, उनके दिमाग़ में वही सारे रीति
रिवाज़ ठूंस- ठूंस कर भरना और उनको इस कदर काम व इधर उधर की बातों में उलझाना कि वह चारदिवारी के बाहर सोच ही न पाये, देश, दुनियां, राजनीति, इन सारी चीज़ो से औरतों को अन्जान रखने की नाक़ामयाब कोशिशें भी की जाती है.
इससे उभरने के लिए महिलाएं हर दौर में जी तोड़ मेहनत करती आई हैं, फिर चाहे उनकी लड़ाईयां व्यक्तिगत रही हों या संगठित होकर औरतों की यह लड़ाई जनवाद की लड़ाई है और इससे लड़कर ही औरतें आगे बढ़ रही हैं कि कुछ हद तक वे अपने में बचपन से भरी लाज, शर्म, लिहाज़, डर, निर्भरता, पारम्पारिकता जैसी चीज़ों को छोड़ रही हैं.
हाल में हमने देखा, जिस तीन तलाक के मसले पर सुप्रीम कोर्ट औरतों को तीन तलाक से राहत दिलाने की घाषणा कर रहा है, यह लड़ाई भी इन्दौर की निडर महिला शाहबानों ने ही शुरू की थी जो शायद कुछ हद तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारत की मुस्लिम महिलाओं को तीन बार तलाक बोलकर तलाक देने से राहत देगा, औरतों की अगुवाई का ये सिलसिला अब रूकने वाला नहीं. एक बार फिर बोहरा समाज की मुस्लिम महिलाओं ने भी औरतों की खतना के
खिलाफ़ आवाज़ लगाई है. फिर चाहे शनि मंदिर में 400 महिलाओं द्वारा प्रवेश करने की कोशिश हो, जिसको लेकर उनका पुलिस हिरासत में लेना भी उन्हें हिला नहीं पाया. जो यह स्पष्ट करता है कि महिलाओं के सोचने, और चीज़ों को बेहतर समझने की चेतना उनमें पुरूष प्रधान व्यस्था की मुश्किलों के चलते बढ़ी है. जिस तरह भारत में औरतों के हालात हैं, कहीं धर्म- मज़हब, रीती- रिवाज़ों के नाम पर, तो कहीं मान मर्यादा के नाम पर, ऐसे हालातों में औरतों को अपनी अगुवाई के लिए संगठित होना और आवाज़ बुलंद करते रहना ज़रूरी है.