उत्तर प्रदेश में हाल के दिनों में लगातार बलात्कार की घटनाएं जिस तरह से हो रही हैं, उससे पूरा देश दहल गया है. बलात्कार की शिकार सामान्यतः दलित और कमजोर तबके की औरतें हो रही हैं. प्रशासन की लापरवाही और संवेदनहीनता, बलात्कारियों के पक्ष में अगड़ी जातियों की गोलबंदी आदि से बलात्कार की ये घटनाएं औरत उत्पीड़न की सामान्य घटनाएं न रह कर दलित जातियों के उपर अगड़ी जातियों के सुनियोजित प्रहार का रूप ग्रहण करने लगी हैं.
उत्तर प्रदेश को बलात्कार प्रदेश के रूप में भी चिन्हित किया जाने लगा है. लेकिन गौर से देखें तो सिर्फ उत्तर प्रदेश नहीं, वे तमाम राज्य जो मनुवाद के गढ़ रहे हैं और जहां वर्णवादी व्यवस्था अब भी मजबूती से कायम है, उन तमाम राज्यों में महिला उत्पीड़न की घटनाएं सामान्य से अधिक हो रही हैं. नैशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो ने हाल में वर्ष 1919 के जो आकड़े जारी किये हैं, उनके अनुसार महिला उत्पीड़न के सर्वाधिक केस - 59853- उत्तर प्रदेश में, 41550 केस राजस्थान में, 37144 केस महाराष्ट्र में और 12902 केस दिल्ली दर्ज हुए. वैसे मध्यप्रदेश भी महिला उत्पीड़न की दृष्टि से पीछे नहीं. गत वर्ष देश में बलात्कार व हत्या के कुल 87 मामले हुए जिसमें सर्वाधिक महाराष्ट्र में 47, मध्यप्रदेश में 37 और उत्तर प्रदेश में 34 मामले हुए.
ये वे राज्य हैं जिन्हें पौराणिक काल में आर्यावर्त या आर्य प्रदेश कहा जाता था और जहां आंग्ल भारतीय भाषा परिवार की भाषायें बोली जाती हैं. इस पूरे इलाकों को आप मनु प्रदेश के रूप में भी चिन्हित कर सकते हैं. यानि, विध्याचल के उपर, हिमालय के नीचे, पश्चिम में पंजाब और पूर्व में बनारस के बीच का भौगोलिक क्षेत्र जो मनुवादी वर्ण व्यवस्था का गढ़ माना जाता था और जिसके बाहर तो अनार्य जातियां निवास करती थीं. मनु की वर्णवादी वर्ण व्यवस्था का गढ़ यही क्षेत्र है और हिंदू धर्म का विस्तार देश के अन्य हिस्सों में यही से हुआ.
इत्तफाक से आज की तारीख में यह वह इलाका है जहां दशकों से भगवा ध्वज फहरा रहा है. राजनीतिक रूप से भाजपा का गढ़ भी यही रहा है और यही वह इलाका है जहां महिला उत्पीड़न व दलित उत्पीड़न की घटनाएं सर्वाधिक हो रही हैं. इसलिए बलात्कार की इन घटनाओं का एक पुख्ता समाजशास्त्र है. मनुवादी वर्ण व्यवस्था में दलित सबसे निचले पायदान पर रखे गये हैं जिनका काम अन्य वर्गों की सेवा करना माना जाता है. मोदीजी ने एक बार फरमाया था कि सफाई काम करके दलितों को आध्यात्मिक सुख भी मिलता है. बड़ा सत्य यह है कि दलितों में से अधिकतर के पास अपना एक घर बनाने के लिए जमीन तक नहीं. भूमिहीन किसानों, उजरती मजदूरों में सबसे बड़ी संख्या दलितों की ही है. परिणाम यह कि ग्रामीण इलाकों में वे सवर्णों के रहमोकरम पर ही गुजरबसर करते हैं.
और उनके रहमोकरम पर जीवन बसर करने वाला यह तबका आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो सामंती दिमाग बौखला जाता है. उसका अहंकार फुककारने लगता है. वे उनका मनोबल तोड़ने की हर कोशिश करते हैं और उस समाज की बेटियों के साथ बलात्कार उनके अहंकार को सबसे अधिक संतुष्टि देता है. उत्तर प्रदेश में बीच-बीच में पिछड़ों दलितों का भी शासन रहा है. उस दौर में भी दलितों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही, क्योंकि जातियों में बंटे समाज की पिछड़ी जातियां भी सत्ता के मद में जब मदांध होती हैं तो उनका शिकार उनसे उपर की जातियां नहीं होती, उनके नीचे की जातियां ही होती हैं. फिर भी मुलायम या मायावती के जमाने में अगड़ी जातियों को थोड़ा संयम तो बरतना ही पड़ा जो भाजपा का शासन आने के बाद बेलगाम हो गया है.
त्रासदी यह कि दलित राजनीति अब भी सवर्ण राजनीति की पिछलग्गू बनी हुई है. मायावती सत्ता के लिए मनुवादी ताकतों से हाथ मिला चुकी हैं. बिहार में रामविलास पासवान एनडीए के साथ वर्षो से हैं. इसलिए इस भयानक दौर से निकलना बहुत कठिन दिख रहा है.