राजनीति में आज नीतीश कुमार एक गन्दा आदमी कहे जायेंगे. बहुत लोग मेरी इस धरणा से आपत्ति करेंगे. संसदीय राजनीति की यह एक बेतुकी बात है कि जो सच है, वह भी विभाजित सच बन जाता है. नीतीश कुमार का सच भी विभाजित है. इस तरह उनके कुकृत्य पर पर्दा डालने वाले लोगों की वजह से नीतीश कुमार पर ऊंगलियाँ भी उठती रहेंगी और वे आराम से शासन करते रहेंगे! नौकरशाही का इन्हें स्पष्ट और निर्बाध सहयोग मिलता रहेगा, क्योंकि भ्रष्टाचार के अवसर बनाने में वो नौकर शाही के बड़े हमदम रहे हैं.

सांप भी नहीं मरे और लाठी भी नहीं टूटे!

दरअसल भ्रष्टाचार के संदर्भ में उनके ‘जीरो टालरेंस’ की यही युक्ति है. भ्रष्टाचार भी बदस्तूर चलता रहे, और साफ छवि भी बनी रहे. यानी सांप भी नहीं मरे और…भ्रष्टाचार के खिलाफ नीतीश कुमार लड़ते हुए दिखलाई देते रहें, उनकी लाठी चमकती जारी रहे.

एक समय था जब दक्षिण बिहार (अब झारखण्ड) क्षेत्र में भ्रष्टाचार की संस्कृति ज्यादा गन्दी थी. झारखण्ड बनने के बाद घोटाला-एस्टीमेट घोटाला इत्यादि कारनामों के साथ नवोदित राज्य प्रशासन दिल्ली के घोटालों से होड़ करने पर था. परंतु नीतीश शासन–झारखंड को भी भ्रष्टाचार के मानदण्डों पर नीचा दिखानेवाला शासन बन गया है. जब लल्लन सिंह नीतीश कुमार के लिए उगाहे गये पैसों के साथ भाग गए और उन पैसों की सुरक्षा के लिए कांग्रेस में चले गए,तब विधानसभा चुनाव आने ही वाले थे. तब नौकरशाह पूछते थे कि नीतीश कुमार के पास चुनाव के लायक पैसे हैं या नही? तब ‘पुल निर्माण निगम’ आगे आया. जवाहर लाल नेहरू शहरी विकास योजना का बहुत सारा पैसा केन्द्रित रूप से पार्कों पर और पटना के म्यूजियम-2 के साथ महंगे कन्वेंशन हाल पर खर्च करने की योजना बनी. कम-से-कम आठ गुणे ऐस्टीमेट बनाए गए और पेटी ठीकेदारों ने अधिकांश रकम को वारा न्यारा करने में मदद की.

भ्रष्टाचार के मामले में ‘जीरो टालरेंस’ की छवि बनाने में भ्रष्ट लोग भी आपकी मदद कर सकते हैं! नीतीश कुमार की छवि कौस्मेटिक है; और वास्तविकता भिन्न है. ‘मेदान्ता’ के मालिक नरेश त्रोहान के साथ आपराधिक् तरीके से हाथ मिलाते हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नीतीश कुमार ने साझा किया था. इस तरह ढीठ और बेशर्म की जिस जमीन का शिलान्यास 1978 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने ‘जयप्रभा कैंसर-किडनी विशेषज्ञता वाले अस्पताल’ के रूप में किया था, उसी जमीन का शिलान्यास रिमोट कंट्रोल तरीके से दुबारा ‘मेदान्ता अस्पताल’ के रूप में खुद नीतीश कुमार ने कर दिया! चुनाव बाद दुबारा जद्दोजहद, विरोध और प्रदर्शनों के बाद भी यह फैसला वापस नहीं लिया गया, बल्कि डेढ़ साल के बाद इस जमीन पर कार्य आरंभ कराने नीतीश कुमार खुद पहुंचे. विरोध कर रहे लोगों को मंच से बुरा-भला कहा -उनकी औकात बताई और विरोध कर रहे लोगों को कवर करने को इच्छुक मीडियाकर्मियों पर आक्रमण किया. जिस पर पटना के ‘द टेलीग्राफ’ ने प्रथम खबर के रूप में टिप्पणी की : ‘मिस्टर सीएम, डीसेन्ट इज द ब्यूटी ऑफ़ डेमोक्रेसी.’ (नीतीश कुमार जी, ‘विरोध का स्वर’ जनतंत्र का सौंदर्य है!) पूछा कि क्या अब नरेन्द्र मोदी को दिए गए अपने उलाहना को लेकर नीतीश कुमार ग्लानि में हैं?

लड़ दूसरे रहे हैं और मात जनता खा रही है.

बिहार में जनता के सशक्तीकरण के नाम पर लूट से जनता का शत्रु वर्ग ही शाक्तिमान हो रहा है. यह वर्ग जनता के खुद के मेहनत से अर्जित रकम की ओर बढ़ कर उसे भी लूटता है. इस गरीब प्रदेश में सरकार का निवेश भी इस प्रदेश की अत्यंत छोटी पूंजी में थोड़ी उत्प्रेरण ला देती है. इससे घरेलू उत्पाद बढ़ा हुआ हो जाता है. इससे कई गुणा बढ़ गई सड़कें,कार, रंगरोगन, चूना-गारा, ठीका-पट्टा के तिलस्म में हम हर स्तर पर भ्रष्टाचार के गुणात्मक रूप से बढ़ने के भुक्तभोगी रहे हैं. यह ‘न्याय के साथ विकास’ की बात नहीं है. नीतीश कुमार के डिजाइन में, भ्रष्टाचार प्राथमिकता में है.

भ्रष्टाचार का बढ़ना, ठीका-पट्टा का बढ़ना सन्निहित है, यह अन्यायपूर्ण विकास योजना है. यानी बिहार शासन- प्रशासन में जिस काम में दलाल वर्ग लग जाएगा वह काम बाधारहित होगा। यही वजह है कि वनाधिकार कानून के अमल न होने से एक लाख तक परिवार अपने हक से

वंचित हैं. दस-ं पंद्रह लाख परिवारों ने पिछले तीस वर्षों में (यह आंकड़ा सरकार के वेबसाइट की वजह से अनिश्चित है) आपरेशन आॅपरेशन दखल देहानी के तहत दावे किए हैं. इन मसलों में, यानी स्टेट बनाम जनता के मसलों में नीतीश की नयाय के पक्ष में कोई पहल नहीं है.

यह स्थिति तब भी थी जब लालू जी के परिवार के साथ प्रेमपूर्ण रिश्ता चल रहा था. लालू जी ने खुद मुझ से लंबी वार्ता में कहा था कि नीतीश के आगे गठबंध्न धर्म निभाते हुए वो ‘बर्फ की तरह पिघलते’ रहते हैं,और मौन रहते हैं. (यह तब कहा था जब मैं जयप्रभा अस्पताल को बचाने हेतु मदद मांगने लालू जी से मिला था. साथ में जयप्रभा अस्पमाल बचाओ समिति के सचिव श्री सुनील सिन्हा थे.) लालूजी के मौन पिघलते के साथ एक आपराधिक समीकरण निहित था कि

उन्होंने अपने दोनों बेटों के लिए कमासुत विभाग जोड़ रखा था. सुशील मोदी ने खुद अपने लोगों के द्वारा जमीन को रीयल इस्टेट देखते हुए फर्जी खरीददारियाँ कर रखी है. परंतु लालू

परिवार के खिलाफ उन्हें माॅल का मसला मिल गया है, जिसमें सरकारी खर्चे से मिट्टी भरवाई जा रही थी और जिसमें मालिक लालू जी के दोनों बेटे थे. यह पटना का सबसे बड़ा माॅल परिसर बनने वाला था. सुशील मोदी पर प्रतिआक्रमण में जुबानी जमा खर्च करती राजद ने यह ध्यान नहीं दिया कि वो यह बताना चाहते हैं कि लालू का बेटा आगे माॅल का मालिक भी बन रहा है और बिहार के मुख्यमंत्राी पद का भी दावेदार है. माॅल भी चाहिए मुख्यमंत्री पद भी चाहिए. लालूजी के परिवार ने शायद पशुपालन घोटाले से यही सबक ली, कि क्योंकि छोटी रकम में लालू जी फंस गए तब अब बड़े-ंबड़े भ्रष्टाचार करके शक्तिमान बनें ताकि लालूजी के सभी नौ बच्चों के लिए सात पुस्त का खयाल रहे.

नीतीश को ​फिर उल्टी पलटनिया खाकर सत्ता को अपने पास रखने में सफलता मिली है. इन्हें लालू परिवार से और भाजपा से दोनों ही खेमे से अलग तरीके का सहयोग मिला है, परंतु इस खेल का लाभ लेने वाले और इसके सूत्रधार सिर्फ नीतीश कुमार हैं और आज गंदी राजनीति का नया अध्याय रचने वाले निहायत गन्दे राजनेता के रूप में इनकी पहचान छुप नहीं सकती.

इसमें लड़ दूसरे लोग रहे हैं; और मात जनता खा रही है. शह और मात के ऐसे नायाब खेल में सदा से जनता (और जनतंत्र भी) मात खाती रही है. जनता को इस खेल में शामिल होने का कोई अवसर नहीं रहता है.