हम भ्रष्टाचार की बात नहीं करेंगे, क्योंकि भ्रष्टाचार की हमारी परिभाषा बेहद संकुचित और संकीर्ण है. इसकी पहली धारणा तो यह है कि जो पकड़ा गया वह चोर और जो बच गया वह साधु.

हम तो यहां सामाजिक न्याय की बात करेंगे. मंडलवादी राजनीति की बात करेंगे. और समझने की कोशिश करेंगे कि नीतीश कुमार ने आखिरकार इतनी बेशर्मी क्यों दिखाई? सामाजिक न्याय का जो सपना उन्होंने लालू, रामविलास के साथ मिल कर देखा था, उसका अब क्या होगा? उनकी मजबूरी क्या थी? क्या वास्तव में मोदी उन्हें धीरे-धीरे खलनायक से ज्यादा नायक दिखने लगे हंै? या फिर खुद उनका हृदय परिवर्तन हो गया? या यह महज अवसरवादिता है? माजरा क्या है?

दरअसल, इसकी तह में जाइये तो यह मंडलवादी राजनीति से उभरा पिछड़ी जातियों के बीच का सत्ता पर कब्जे के लिए होने वाला टकराव दिखाई देगा. वर्णवादी व्यवस्था का प्रभाव समाज की निचली सतह तक पहुंचा है. आपसी सत्ता संघर्ष, कमजोर का शोषण-उत्पीड़न, धन से उत्पन्न अहंकार, महिलाओं को धर की चाहरदिवारी में कैद रखना, पूजा के नाम पर अकर्मण्यता को बढावा देना, आदि, आदि से आज दलित-पिछड़ा तबका भी आक्रांत है. अगड़ी जातियों ने इस फूट का खूब फायदा उठाया. आबादी का महज दस -पंद्रह फीसदी होने के बावजूद, अतीत की बात जाने भी दें, तो आजादी के बाद भी उन्होंने लगातार राज किया. लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी उनकी ही चलती रही, लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होते ही एक भूचाल आ गया भारतीय राजनीति में. ‘सौ में नब्बे हम, राज तुम्हारा नहीं चलेगा’ का नारा एकबारगी विकराल हो उठा. और सत्ता पर अगड़ों का वर्चस्व टूट गया. दक्षिण में तो सामाजिक आंदोलनों की वजह से उत्पन्न राजनीतिक चेतना ने यह काम पहले भी कर दिया था. मंडल आयोग के बाद बची खुची कसर भी पूरी हो गई.

लेकिन साथ ही शुरु हो गया पिछड़ी जातियों के बीच का सत्ता संघर्ष. और इसका फायदा एक बार फिर अगड़ों ने उठाया. वे सत्ता पर पूरी तरह काबिज तो नहीं हो सके, लेकिन सत्ता की नकेल उनके हाथ में चली गई. उन्हें इस बात से सबसे अधिक मदद मिली कि पिछड़ा हो या दलित, समृद्धि प्राप्त करते ही ब्राहमणवादी व्यवस्था में शामिल होने के लिए छटपटाने लगता है. उसकी सबसे बड़ी चिंता अपने ही अतीत से छुटकारा पाना बन जाता है, क्योंकि सामाजिक प्रतिष्ठा धन-संपत्ति से नहीं, ब्राह्मण बनने में है.

तो, बिहार में भी सत्ता पर काबिज होते ही दलितों और पिछड़ों में यह प्रवृत्ति बलबती हो उठी. रामविलास पहले अर्जक संघ की बैठकों में जाया करते थे. मूर्ति पूजा और देवी देवता का विरोध करते थे. अपने समुदाय के लोगों के बीच उठना-बैठना, उनके साथ पंक्ति में बैठ कर खाना खाया करते थे. बोकारो में 80 के दशक में मैं इसका खुद गवाह बना. अब वह आंदोलन नहीं रहा और न वैसे रहे रामविलास. अब तो वैसे वातावरण में शायद उनका दम घुट जाये. अब वे उच्च जाति और वर्ग के लोगों के साथ बैठ कर ही सहजता का अनुभव करते हैं.

बिहार में नितीश को चाणक्य और लालू को चंद्रगुप्त माना जाता था. लालू को पहली बार मुख्यमंत्री बनवाने में नीतीश ने ही भूमिका निभाई थी, वरना सभी जानते हैं कि वीवी सिंह की पसंद लालू नहीं थे. लेकिन बहुत जल्द लालू और नीतीश के बीच झगड़ा शुरू हो गया. लालू प्रसाद यादव समुदाय से आते हैं और नीतीश कुर्मी हैं, वह भी अवधिया. यादवों की आबादी ज्यादा है, कुर्मी आबादी बहुत कम. लेकिन कुर्मी समुदाय ज्यादा पढा लिखा. आरक्षण का फायदा उसने ज्यादा उठाया, क्योंकि उसमें शैक्षणिक योग्यता थी. कहते हैं, मुख्यमंत्री के रूप में लालू ने बहालियों में इस पर थोड़ा संतुलन बनाने की कोशिश की. जाहिर है, अतिरिक्त हस्तक्षेप करके. और नीतीश की बिरादरी के कान खड़े हो गये. उन्होंने सतत दबाव बनाया और नीतीश ने आखिरकार कुछ मुद्दो को बहाना बना कर लालू से किनारा कर लिया. जनता दल युनाईटेड और राष्ट्रीय जनता दल अस्तित्व में आया. नीतीश ने समता पार्टी बनाई. चुनाव भी लड़े, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली. वाजपेयी के जमाने में एनडीए में शामिल हो गये. केंद्र में रेल मंत्री बने. लेकिन नजर बिहार पर गड़ी रही

लालू अपने दम पर कुछ दिन तो राज करते रहे, लेकिन चारा घोटाले में फंसते चले गये. मौका देख नीतीश बिहार की सत्ता पर काबिज हो गये, लेकिन भाजपा के सहयोग से. उस भाजपा के सहयोग से जिसने मंडल कमीशन का विरोध किया था और जिसके विरोध में ही आडवाणी रामरथ यात्रा पर निकले थे.

तो, सवाल है कि नीतीश को यदि एनडीए में वापस आना था तो वे उससे निकले क्यों ? दरअसल, आडवाणी को अपदस्थ कर जब मोदी भारतीय राजनीति में आये तो नीतीश को वे अपना प्रतिद्वंद्वी लगे. इसके अलावा मोदी की छवि और विपक्ष की भूमिका को लेकर नीतीश थोड़ा भ्रम में पड़ गये. उन्हें लगा कि मोदी उत्तर प्रदेश को फतह नहीं कर सकेंगे. दूसरी तरफ बिहार में लालू और नीतीश ने मिल कर मोदी के रथ को जिस तरह रोक दिया, उससे मोदी भी समझ गये कि नीतीश को फोड़े बगैर बिहार को जीतना मुश्किल है. उधर भाजपा ने यूपी जीती, समझदार नीतीश ने मन बना लिया कि अब एनडीए खेमें में वापसी का वक्त आ गया. दोनों तरफ से सिंगनल दिये जाने लगे. मोदी ने शराबबंदी और सुशासन की तारीफ की, नीतीश ने नोटबंदी की. राष्ट्रपति चुनाव आते आते नीतीश ने पत्ता साफ कर दिया - विपक्षी गठजोड़ से उनका कुछ लेना देना नहीं. एनडीए में अपना भाव बढाने के लिए वे कभी कभार विपक्षी दलों की बैठकों में शामिल भर होते रहे.

दरअसल, नीतीश नहीं, बिहार की कुर्मी-कोयरी बिरादरी और संपन्नता प्राप्त अन्य पिछड़ी दलित जातियां ब्राह्मणवादी व्यवस्था की तरफ आकर्षित रही हैं. हिंदुत्व का परचम तो भाजपा के हाथ में है, इसलिए वे भाजपामुखी हैं. नीतीश भी रामविलास की तरह ‘ब्राह्मणों’ के बीच ही सहजता का अनुभव करते हैं. इसलिए दुर्घटनावश महागठबंधन में आये थे, मौका देख वापस चले गये.

अब आप इसमें लालू के भ्रष्टाचार, कुनबापरस्ती, राजनीति में नैतिकता का अभाव, सुशासन आदि बातों की छौंक लगा लीजिये और मनमाफिक रपट बना लीजिये.