रील लाइफ और रियल लाइफ में आज भी जमीन आसमान का फर्क है, जो कभी एक नहीं हो सकता, लेकिन रील पॉलिटिक्स और रियल पॉलिटिक्स में अब मामूली सा अंतर रह गया है. अंतर बस इतना है कि मूवी के अंत तक में हम नेताओं की पॉलिटिक्स समझ जाते हैं और रियल पॉलिटिक्स में तो हम ग्रास रुट पॉलिटिक्स भी नहीं समझ पाते हैं, क्योंकि यहाँ कुछ भी होने की संभावना रील पॉलिटिक्स से भी ज्यादा है.
भारतीय राजनीति में बिहार और उत्तर प्रदेश हमेशा से आम लोगों की राजनीतिक समझ के लिए पहेली बनी रही है. बिहार की राजनीति में पिछले चार-पाँच वर्षों में हुई हलचल ने अच्छे—अच्छे राजनीतिक पंडितों को भी हिला कर रख दिया है. 2005 में जंगल राज को खत्म करने के नारे के साथ नीतीश कुमार सत्ता में आये थे. फिर इस बार की विधान सभा चुनाव में उसी जंगल राज के लिए आरोपित पार्टी से गठबंधन कर बैठे और अब उनके साथ काम करने में अपने आप को असमर्थ बता कर गठबंधन तोड़ लिए. नीतीश की ये फेर बदल वाली नीति के पीछे का तर्क लोगों के समझ से हमेशा परे रहा है.
जब बीजेपी से वो लगभग दो दशक पुराना गठबंधन तोड़े तो लोग उनके फैसले से आश्चर्य में थे, जब इसबार के विधानसभा चुनाव में उन्होंने महागठबंधन बनाया, तब भी लोग सकते में थे और आज तो लोग उनके फैसले से कंफ्यूज हो गए हैं कि इनका सिद्धान्त आखिर है क्या??
क्योंकि हर बार इस तरह की घटना के बाद मीडिया के सामने वो यही कहते नजर आते हैं कि मैं अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं कर सकता, मैं लोकतंत्र के मूल्यों का सौदा नहीं कर सकता.
खैर, इससे पहले जब बीजेपी से गठबंधन टूटा था तो लोगों को कारण समझ में आया कि ऐसा नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा के कारण हुआ और फिर इस बार के विधानसभा चुनाव में उनका महागठबंधन बनाना उसी का प्रतिफल समझा गया और लोगों को कहीं ना कहीं लगने लगा कि अब जदयू बीजेपी फिर कभी साथ नहीं आएँगे.
नीतीश कुमार भी इस सवाल पर अक्सर यही कहते नजर आए कि मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे, लेकिन देखिये दोनों के अलग हुए अभी 4 वर्ष भी नहीं बीते कि दोनों फिर साथ हो गए. इतना तो सबों को नजर आ रहा है और समझ में भी आ रहा है. लेकिन इस बार लोगों को जो समझ में नहीं आ रहा वो है नीतीश की मजबूरी.
ऐसी मजबूरी जो उनके सामने ऐसे संकट बन कर आया जिसका एक मात्र हल यही था और अगर इस संकट को टाला नहीं जाता तो महागठबंधन की सरकार तो चलती रहती लेकिन जदयू आधे रास्ते में दम तोड़ देती और अब तक के 20 महीने की गठबंधन सरकार में भी जदयू किस्तों में ही सांस ले रही थी भले ही बाहर से सबकुछ नॉर्मल नजर आ रहा था.
इस परिस्थिति के लिए ना तो लालू दोषी थे और ना ही महागठबंधन का कोई घटक दल. ऐसी परिस्थिति महागठबंधन से बाहर एक ऐसे खास वर्ग द्वारा बनाया जा रहा था जो बिहार की राजनीति में सबसे मजबूत पकड़ रखते हैं और साथ ही वो जदयू के सबसे बड़े फाइनेन्सर भी है क्योंकि वो कॉरपोरेट के क्षेत्र में भी बिहार के सबसे मजबूत वर्ग हैं. सुशील मोदी का तो सिर्फ कंधा था, बंदूक तो कोई और चला रहा था जिसमें उस वर्ग से आने वाले जदयू के ही सबसे कद्दावर नेता भी थे. इस खास वर्ग को बीजेपी से जदयू के अलग होने पे कोई एतराज नहीं था, जदयू के काँग्रेस के साथ जाने पर भी कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन राजद के साथ
जदयू का जाना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था. प्रारंभ से ही वे इसके विरोध में थे, लेकिन उस वक्त नीतीश कुमार को लगा कि वे आगे सिचुएशन कंट्रोल कर लेंगे. लेकिन नीतीश कुमार ऐसा कर ना सके और इनके आन की ज्वाला को शांत करने में अपने आप को असमर्थ देख कर पार्टी बचाने के लिए उन्हें ऐसा फैसला करने पर मजबूर होना पड़ा.
परिस्थिति इतनी विपरीत हो जाएगी ऐसा अनुमान नीतीश को भी नहीं था, अगर इसका अनुमान उन्हें होता तो शायद उसी वक्त नीतीश महागठबंधन नहीं बनाते. फिर भी नीतीश कुमार ने बहुत हिम्मत दिखाए और सफलता पूर्वक 20 महीने तक महागठबंधन की सरकार चलाए. हालाँकि अंतिम क्षणों में भी नीतीश कुमार ने कोशिश की और कॉग्रेस से मदद की गुहार लगाई, लेकिन काँग्रेस उन्हे आश्वस्त नहीं कर पायी, दूसरी ओर लालू की हठ ने नीतीश कुमार को वापस होने का एक अच्छा मौका दे दिया और उन्होंने अपने आपको एवं अपने पार्टी को बचा लिया.
इस प्रकार उस खास वर्ग के आन की जीत हुई और इन सबका फायदा सिर्फ और सिर्फ बीजेपी को मिला. अभी भी बहुत कुछ होना बाँकी है. अब आप कुछ ही दिनों में काँग्रेस को टूटता देखेंगे. जो लोग जदयू के टूटने की बात सोच रहे हैं, वो शायद भ्रम में हैं, हालाँकि अली अनवर के नेतृत्व में मुस्लिम विधायक बगावत कर सकते हैं. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन वर्षो नीतीश के साथ राजनीति करने वाले अनवर का यह गुस्सा सैद्धांतिक लड़ाई है या केंद्र में मंत्रिपद पाने का रास्ता, वो तो वक्त ही बताएगा. इसी तरह शरद यादव की नाराजगी कैसे दूर होगी, इसका भी खुलासा दो चार दिनों में हो जायेगा.