अभी बिहार की ताजा स्थिति पर वैचारिक घमासान जारी है.आरोप लगाया जा रहा है कि नीतीश कुमार ने पाला बदल लिया,सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया. इस सन्दर्भ में दो बातों पर बहुत जोर दिया जा रहा है—एक भ्रष्टाचार, दूसरा सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता. कुछ लोग नीतीश कुमार के पाला बदलने, यानी भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना लेने के बाद भाजपा नेताओं-मंत्रियों के भ्रष्टाचार के चित्र-चिट्ठे जारी कर रहे हैं. ऐसे लोग यूपी, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि भाजपा शासित राज्यों में कौन-कौन मंत्री किस-किस आरोप में फंसे हुए हैं, इसे बता कर नीतीश कुमार और भाजपा के भ्रष्टाचार विरोधी दावे को आईना दिखा रहे हैं. दूसरी तरफ कुछ लोग गंभीरता से मान रहे हैं कि नीतीश कुमार ने सांप्रदायिक ताकतों के साथ जाकर धर्मनिर्पेक्षता को कमजोर किया है.

जबकि हम जैसों को लगता है कि यह हमारी भी विफलता है कि आज देश में प्रगति विरोधी ताकतें मजबूत हो रही हैं.इस तरह के पाला बदल और अवसरवादी तरीकों से सरकारें तो हमेशा से बनती और टूटती रही हैं. हमारी चिंता यह है कि हम लोग, जो लगातार कमजोर होते जा रहे हैं, कैसे सकारात्मक बदलाव की मुहिम को आगे बढ़ाएं,धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को सही अर्थों में स्थापित कर सकें.

समाज में हमेशा से जो अधिसंख्य आबादी है, वह समाज और संस्कृति के नाम पर उंच-नीच पर आधारित जाति व्यवस्था,अब भी जारी अस्पृश्यता, स्त्री की दोयम हैसियत को सही मानती है; साथ ही धर्म के नाम पर अन्धविश्वास, अन्य धर्मों व् धर्मावलम्बियों के प्रति नफरत/हेय भाव से ग्रस्त रहती है. ऐसी ही मान्यताओं से लैस लोगों से हमारा ‘बहुमत’ बनता है. दूसरी ओर मुट्ठी भर लोग हैं, जो सकारात्मक सोच रखते हैं, समाज को सही दिशा में ले जाने की कोशिश करते हैं. इसको प्रेशर ग्रुप भी कह सकते हैं. जैसे, कई बार गांव का बहुमत डायन हत्या के पक्ष में होता है. जैसे, समाज में आम तौर पर स्त्रियों के साथ घरेलू हिंसा के प्रति विरोध भाव नहीं होता; या इसे सहज माना जाता है. मगर जो लोग इसके खिलाफ हैं,भले वे कम हों, उनको आगे होना होगा. जी हां, कई बार ‘बहुमत’ के खिलाफ भी खड़ा होना पड़ता है,यदि हम समाज को प्यार करते हैं, समाज की बेहतरी चाहते हैं.

आजादी की लड़ाई के समय जब कांग्रेस उसकी अगुवाई रही थी,तब वह साथ ही समाज की बुराइयों के खिलाफ भी काम कर रही थी. तब महात्मा गांधी संघर्ष के साथ रचनात्मक कार्य को भी सामान महत्व देते थे. इसलिए कि विदेशी गुलामी से मुक्ति के साथ ही वे समाज को बुराइयों से मुक्त करना भी जरूरी मानते थे. तब धर्म निरपेक्षता, समानता, न्याय इन सारे शब्दों के अपने मूल्य थे और आजादी की लड़ाई में ये सारे मूल्य रोपे गए थे. गांधी ने एक तरफ सर्वधर्म समभाव की बात कही, दूसरी तरफ अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई जारी रखी. स्त्रियों को सामाजिक जीवन में जोड़ने का प्रयास किया. इसका असर भी हुआ. आजादी की लड़ाई में औरतें हर जगह शामिल हुई. कांग्रेस के अलावा भी उसी समय समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी जैसी ढेरों पार्टियां इन सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए लड़ रही थीं. वे सिर्फ सत्ता की राजनीति में नहीं थी, जनता के बीच भी थीं. और जब मताधिकार की बात आई तो औरतों को, दलितों को, सभी धर्मावलम्बियों को सामान मताधिकार मिला, जबकि तब दुनिया के बहुत कम देशों में सभी नागरिकों को मताधिकार मिला हुआ था,अमेरिका इंग्लैंड जैसे देशों में भी नहीं, यह थी हमारी राजनीति, यह थे हमारे राजनैतिक मूल्य, जोकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित हुए थे. और इस तरह इन मूल्यों को जनता के बीच फैलाया जा रहा था. ठीक है कि बहुसंख्यक जनता इन मूल्यों को नहीं समझ पा रही थी. मगर राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय लोग-संगठन इस दिशा में भी काम कर रहे थे. उस समय भी ऐसी ताकतें थीं, जो इन मूल्यों के खिलाफ थीं. जो धर्म और जाति के नाम पर समाज को बांटने का काम करती थीं. कर्मकांड, अंधविश्वास आदि को बढ़ावा देती थीं. आजादी के बाद भी यह क्रम जारी रहा. लेकिन लोहिया और जयप्रकाश आदि बहुतेरे ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने सत्ता की लड़ाई लड़ते हुए जनता के बीच भी अपनी बातों को पहुंचाने का लगातार कोशिश की. सप्तक्रांति और संपूर्ण क्रांति की अवधारणा राजनैतिक संघर्ष के दौरान ही सामने आयीं.

आजादी के इतने साल बाद हम कहां पहुंच गये हैं! राजनीतिक जोड़-तोड़, दलबदल, अवसरवाद. हर सिद्धांत का अपने स्वार्थ में इस्तेमाल. लालू बनाम नीतीश, किसने किसको धोखा दिया. मूल्य की बड़ी बड़ी बातें. देश की सारी समस्याएं गौण! पूरी मीडिया में बस एक ही बहस. कौन जीता, कौन हारा. किसानों की आत्महत्या, बाढ़, कीमतों में वृद्धि, धर्म के नाम पर भीड़ की हिंसा, सब नेपथ्य में.

समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्य बस कहने को और दिखावे के लिए. बहुसंख्य आबादी अभी भी उसी दलदल में है, जहां से से निकालने के लिए लगातार कोशिश करनी है. मगर ऐसी कोशिशों में वह ताकत, धार या निरंतरता नहीं रह गयी है. आज समाज में अन्याय गैर बराबरी के खिलाफ समाज को आगे ले जाने के लिए कृतसंकल्प ताकतें कमजोर पड़ गयी हैं. राजनीतिक रुप से बात करें तो समूचा परिदृश्य बस निहित स्वार्थों के भरोसे टिका हुआ है,कोई पार्टी ऐसी नहीं है जो मूल्यों की लड़ाई लड़ रही हो. जो प्रतिगामी ताकतें आजादी के आंदोलन के समय कमजोर और दबी हुई थीं, आज सबल और आक्रामक हुई हैं, और प्रगतिशीलता कमजोर पड़ गई है. एक दौर था जब वंशवाद, निरंकुशता और भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी ने मिलकर लड़ाई की थी. आज सांप्रदायिकता मुद्दा है. और दूसरे सारे लोग उसके खिलाफ इकट्ठा होने पर विचार भर करते हैं. उनके आपसी मतभेद, व्यक्तिवाद और नेताओं के निजी अहंकार के कारण इस गंभीर मुद्दे पर भी विपक्ष पूरी तरह बिखरा हुआ है.और भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जो अपने लक्ष्य के संधान में निरंतर लगी हुई है. जिसके पास अपने विचारों को जमीन तक ले जाने वाली संस्थाएं हैं, लोग हैं. बाकी दल बस सत्ता की जोड़तोड़ में लगे हैं. चाहे वे नवीन पटनायक हों या हेमंत सोरेन, मायावती हों या दिवंगत जयललिता, सबों ने सत्ता के लोभ में भाजपा के साथ गठजोड़ किया और भाजपा को ताकतवर बनाया. नितीश जी इन सब से आगे निकले. मगर भाजपा के खिलाफ कोई भी गंठजोड़ तभी कामयाब हो सकता है, जब उसके साथ विचारधारा की भी ताकत हो. जो भाजपा की वैचारिक काट भी दे सके.

भाजपा धर्म और संस्कृति की रक्षा की बात करती है, मगर हमारे लिए धर्म वह है जो जोड़ता हो, न कि समाज को तोड़ता हो. संस्कृति वह है जो पैरों के नीचे पुख्ता जमीन की तरह होती है, ना कि वह जो स्त्रियों, दलितों और अन्य धर्मावलम्बियों के नीचे की जमीन छीन ले. यह सही है कि तमाम खामियों के बावजूद लालू प्रसाद ने अभी तक भाजपा विरोध की मशाल उठाये रखी है, पर क्या उसे सही आधार भी दे सके? सत्ता-सुख, और और पैसे की भूख; और महज परिवार की चिंता ने इस विरोध की आभा छीन ली है. प्रगतिशील राजनैतिक दिशा सिर्फ साम्प्रदायिकता के विरोध से नहीं, सभी तरह की गैरबराबरी के विरोध पर पल्लवित होगी.