‘पत्थरगढ़ी’ मुंडा, भूमिज सहित कुछ अन्य आदिवासी समुदायों से जुड़ी एक जीवित परंपरा और उनकी जातीय अस्मिता की पहचान है. इसके बारे में सामान्य जानकारी यह है कि इस समुदाय के आदिवासी अपने परिजनों की मृत्यु के बाद उनके अवशेषों को जमीन में दफ्न कर वहां पत्थर गाड़ने का काम करते हैं. दरअसल, आदिवासी समाज की समझ यह है कि मरने के बाद भी उनके पूर्वज अदृश्य रूप में उनके साथ रहते हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार इन पत्थरगढ़ी या सासिंदरियों से ही हमें इस बात का पता चलता है कि मुड़ा, उरांव या खड़िया आदिवासियों का प्रवेश किस दिशा से आज के झारखंड क्षेत्र के रूप चिन्हित भौगोलिक क्षेत्र में हुआ.
ल्ेकिन पिछले कुछ महीनों से यह ‘पत्थरगढ़ी’ एक नये तेवर के साथ प्रकट हुआ है. इसका इस्तेमाल शिलालेखों/पट्टों की तरह किया जा रहा है जिस पर भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त आदिवासियों को मिले अधिकारों को लिखा जा रहा है. अब इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं यदि स्वशासन की अपनी परंपरा, पांचवीं अनुसूचि और पेसा कनूनों से मिले संवैधानिक अधिकारों की जानकारी को व्यापक करने के लिए इसे लगाये, लेकिन सरकार द्वारा प्रचारित यह किया जा रहा है कि आंदोलनकारी ‘पत्थरगढ़ी’ के नाम पर अपने इलाके को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर रहे है जहां किसी गैर आदिवासी का प्रवेश नहीं हो सकता. और इसे आधार बना कर सरकार नये तेवर में उभरे ‘पत्थरगढ़ी’ आंदोलन को अलगाववादी करार देकर उसे कुचलने का मंसूबा बना रही है.
इस विषय पर आगे चर्चा करने के पहले हम यह स्पष्ट हों लें कि अनुसूचित क्षेत्रों का निर्माण या पेसा कानून भारतीय संविधान द्वारा आदिवासियों को प्रदत्त अधिकार ही हैं जिसकी मूल भावना यह है कि आप आदिवासी समाज के स्वशासन की परंपरा का सम्मान करेंगे. उनके इलाके में किसी भी तरह की विकास योजना चलाने के पहले आप ग्राम सभा की अनुमति लेंगे. संविधान में यह स्पष्ट नहीं कि ग्रामसभा यदि अनुमति न दे तो सरकार क्या करेगी? लेकिन भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना ‘जनता का शासन, जनता द्वारा जनता के लिए’ ही है. जिसका अर्थ हुआ कि सरकार जन भावना का आदर करेगी.
इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम आयें मूल मुद्दे पर. आदिवासी समाज बंद समाज नहीं. यहां किसी के आने जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं. इसका व्यक्तिगत अनुभव हम सबको है. लेकिन दिक्कत यह कि सरकारी अमले, दलाल, ठेकेदार आदि हमेशा आदिवासी जनता के साथ ठगी और प्रपंच के लिए इलाके में प्रवेश करते हैं और पुलिस और सेना उनकी ही सुरक्षा या उनके उल्टे सीधे आदेशों को लागू करने के लिए आदिवासी इलाकों में प्रवेश करती है. शहरी इलाकों में यदि सेना मार्च करे तो हंगामा हो जाता है. लेकिन आदिवासी इलाकों को वह अपने बूटों तले रौंदती रहती है.
पुलिस किस लिए है? आम जनता की सुरक्षाके लिए ही न? कि उन पर जुल्म ढाने के लिए? अब हमे आपकी सुरक्षा नहीं चाहिये, फिर जबरन आप किसी इलाके में पुलिस कैंप क्यों लगायेंगे? खंूटी के मुरहू में यही विवाद है. वहां सरकार एक पुलिस कैंप लगाने पर अमादा है. लोग विरोध कर रहे हैं. यहां इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आदिवासी समाज सदियों से बिना पुलिस और कोर्ट कचहरी के चलता आ रहा है. अंग्रेजों ने यहां आने के बाद यहां अपना रुतबा कायम करने के लिए पुलिस थानों की व्यवस्था की. ग्रामसभा भी प्रशासनिक व्यवस्था की सबसे आधारभूत इकाइ ही तो है. क्या उसे यह अधिकार नहीं कि वह आपसे कहे कि हमे अपने गांव में पुलिस कैंप नहीं चाहिये?
कहां जा रहा है कि आंदोलनकारी बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने का विरोधकर रहे हैं. लेकिन आरोप लगाने के पहले सरकार को यह बताना चाहिये कि कितने सरकारी स्कूलों के भवनों को अब तक सेना या पुलिस के कैंपों में बदल दिया गया है? और सरकारी अस्पताल? न डाक्टर, न दवायें. क्यों चले ऐसे सरकारी केंद्र. केवल बजट का पैसा हड़पने के लिए.
सरकार को यह भी बताना चाहिये कि आज तक अनुसूचित इलाकों में चलने वाली कितनी परियोजनाओं के लिए ग्रामसभा से अनुमति या परामर्श करने की जरूरत समझी? अभी के हालात यह हैं कि सरकार को खनन के लिए खूंटी के इलाके में जमीन चाहिए. पहले मित्तल वहां कारखाना लगाने वाले थे, जो जन विरोध के कारण नहीं लग सका. अब उस इलाके में सोने के खदान खुलने वाले हैं. रघुवर सरकार इसके लिए तरह-तरह के प्रपंच कर रही है. प्रशासन पुलिस को जनता के सेवक की तरह नहीं, लठैत की तरह इस्तेमाल कर रही है.
दूसरी तरफ आंदोलनकारियों को भी हमेशा इस बात के लिए सचेष्ट रहना होगा कि कुछ अराजक तत्व कही इस आंदोलन का इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थों के लिए न कर लें. ऐसा कुछ न करें कि जिससे सरकार को सेना और पुलिस के इस्तेमाल का मौका मिले. क्योंकि सरकार यही चाहती है. सरकारी विकास योजनाओं के विरोध की राजनीतिक अभिव्यक्ति भी होनी चाहिये. ऐसा क्यों होता है कि उस इलाके से सत्तारूढ़ पार्टी का प्रत्याशी ही लोकसभा का चुनाव जीतता है?