पत्थलगड़ी ने डरा दिया है। राजसत्ता, संघ परिवार (भाजपा-आर.एस.एस.), मीडिया, ठेकेदार और बाहरी दिकुओं को। आदिवासी कह रहे हैं कि अनुमति लेकर हमारे गांवों में घुसना है ठीक उसी तरह जिस तरह से गांवों से तब्दील किये गये शहरों में बने काॅपरेटिव काॅलोनी, अपार्टमेंट और सरकारी दफ्तरों में हमलोग पहरेदारों से अनुमति लेकर प्रवेश करते हैं। उन्होंने अपने-अपने गांवों के सामने पत्थरों से बनाये गये शिलापटों में अपना संदेश स्पष्ट लिख दिया है भारतीय संविधान का संदर्भ देकर। उनके पास संविधान की मोटी पुस्तक भी है। क्या इसे असंवैधानिक कहा जा सकता है? राजसत्ता, संघ परिवार और मीडिया तो ऐसे ही कह रहे हैं। देश के कोने-कोने से लोग यह ढ़ूढ़ने के लिए आ रहे है कि क्यों आदिवासियों ने दिकुओं के लिए गांवों में प्रवेश निषेध लगा रखा है। यह देखना दिलचस्प है कि जिन दिकुओं का आदिवासी गांवों में प्रवेश वर्जित है वे अब जंगल का अस्तित्व खत्म करने वाले कुल्हाड़ी में लगे लकड़ी के बेंत की तरह पढ़े-खिले आदिवासियों का सहारा लेकर इन गांवों में प्रवेश कर रहे हैं और आदिवासियों से सवाल पूछ रहे हैं। आदिवासियों से पूछे गये सवालों में सबसे अहम सवाल यह है कि पत्थलगड़ी की जड़ें कहां हैं?
यह निर्विवाद है कि पत्थलगड़ी आदिवासियों की एक महान परंपरा है और वे इसका इस्तेमाल एक राजनीतिक हथियार के तौर पर भी करते रहे हैं। किसी के स्मृति में पत्थलगड़ी करना परंपरा है तो वहीं गांव का सीमांकन करना इसका राजनीतिक इस्तेमाल, जो सदियों से चलते आ रहा है। लेकिन आदिवासी महासभा के द्वारा चलाये जा रहे पत्थलगड़ी आंदोलन ने राजसत्ता, संघ परिवार (भाजपा-आर.एस.एस.), मीडिया, ठेकेदार और बाहरी दिकुओं की नींद हाराम कर दी है। इसलिए लोग यह जानना चाहते हैं कि ऐसा क्या हुआ है कि पत्थलगड़ी आंदोलन की आग मुंडा दिसुम से शुरू होकर देश के अन्य आदिवासी इलाके में जंगल के आग की तरफ तेजी से फैल रहा है? इसे समझने के लिए पीछे मुड़कर देखना होगा।
झारखंड आंदोलन का गढ़ माना जाता है। यहां आदिवासी अपनी पहचान, स्वायत्ता और जमीन, इलाके एवं प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक को लेकर पिछले तीन सौ वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। 1770 में पहाड़िया आदिवासियों ने दावा किया कि जमीन उनकी है। 1855 में संतालों ने कहा कि संताल इलाका में उनका राज चलेगा। 1879 में 14,000 मुंडाओं ने ब्रिटिश हुकूमत को लिखा कि छोटानागपुर उनका है। इसी तरह झारखंड गठन की मांग और विस्थापन के खिलाफ कई आंदोलन हुए। लेकिन झारखंड राज्य के गठन के बाद राज्य सरकार ने आदिवासियों के इच्छा के विरूद्ध यहां के प्राकृतिक संसाधनों को बेचने की योजना बनायी। 2001 में औद्योगिक नीति बनाकर राज्य में ‘औद्योगिक गलियारा’ बनाने का प्रस्ताव मंजूर कर दिया गया। झारखंड सरकार और काॅरपोरेट घरानों के बीच एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर कर कहीं मिŸाल नगर, कहीं भूषण नगर तो कहीं जिन्दल नगर बसाने की कोशिश की गई। विरोध के कारण सरकार सफल नहीं हुई।
जनांदोलन की ताकत को देखते हुए भाजपा की सरकार ने जमीन हड़पने के लिए 2015 में ‘लैंड बैंक’ का निर्माण किया, जिसे दिखाकर सरकार निवेशकों को यह संदेश देना चाहती थी कि उनके लिए राज्य में पर्याप्त जमीन उपलब्ध इसलिए वे बेहिचक पूंजीनिवेश करें। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 5 जनवरी 2016 को लैंड बैंक के वेबसाईट का उदघाटन किया। राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के आँकड़ों के अनुसार सरकार के पास ‘लैंड बैंक’ में अभी 21,06,073.78 एकड़ जमीन उपलब्ध है, जिसमें गैर-मजरूआ आम व खास, जंगल-झाड़ की जमीन एवं विभिन्न विभागों के पास उपलब्ध जमीन शामिल है। लेकिन ‘लैंड बैंक’ के दस्तावेजों को गहराई से खंगालने पर चैकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। सरकार ने बड़ी चालाकी से रैयती जमीन को छोड़कर बाकी बचे सामुदायिक जमीन सहित सभी प्रकार की भूमि को ‘लैंड बैंक’ में डाल दिया है, जिसमें गांव का रास्ता, जाहेरथान, देशावली, सरना, मसना, हड़गड़ी, कब्रस्थान, खेल का मैदान, गोचर, जंगल-झाड़, टोंगरी, इत्यादि शामिल हैं। यह सामुदायिक जमीन को लूटने का शानदार तरीका है।
लैंड बैंक का गठन करने के बाद झारखंड सरकार ने आॅर्डिनेस लाकर राज्य के भूमि सुरक्षा कानूनों - छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी (अनुपूरक अनुबंध) अधिनियम 1949 में संशोधन किया, जिसका मकसद सिर्फ निजी उद्यमियों को फायदा पहुंचाा था। सरकार ने सीएनटी एक्ट की धारा-21, 49 एवं 71 तथा एसपीटी एक्ट की धारा-13 में संशोधन करते हुए खेती की जमीन को गैर-कृषि घोषित कर उसका अधिग्रहण करने, गैर-कृषि भूमि पर 1 प्रतिशत लगान वसूलने एवं आदिवासियों की जमीन पर गैर-कानूनी तरीके से बनाये गये व्यापारिक प्रतिष्ठानों को कानूनी दर्जा देकर पूंजीपतियों को खुश करना चाहती थी। लैंड बैंक का गठन एवं सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन से आदिवासी आक्रोशित हो गए। राज्य भर में अलग-अलग तरीके से आंदोलन होने लगा।
22 अक्टूबर 2016 को खूंटी के आंदोलनकारियों पर सायको में पुलिस फायरिंग हुई, जिसमें अब्राहम मुंडू की मौत हो गई। इस घटना ने आदिवासियों को अपनी जमीन बचाने के लिए और भी ज्यादा सोचने पर मजबूर कर दिया। आदिवासी महासभा ने जमीन, इलाके और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए ग्रामसभाओं को पारंपरिक तरीके से सशक्त करने का अभियान शुरू किया। उन्होंने भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची एवं मौलिक अधिकार के प्रावधानों को साईबोर्ड पर लिखना शुरू किया। लेकिन मुंडा आदिवासी बहुल इलाकों में पत्थलगड़ी से लगाव को देखकर उन्होंने पारंपरिक ग्रामसभाओं के द्वारा पत्थलगड़ी करने का निर्णय लिया। 9 फरवरी 2017 को आदिवासी महासभा ने भंडरा गांव में पहला पत्थलगड़ी किया। इस समारोह में आदिवासियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन झारखंड सरकार ने यह मान लिया था कि आदिवासियों के दिलों में लगी आग सरना-ईसाई के नाम पर बुझा दिया जायेगा। 23 नवंबर, 2016 को विधानसभा में बहस कराये बगैर ही मात्र तीन मिनटों में सीएनटी/एसपीटी संशोधन विधेयकों को सदन में पारित कर दिया, जिसे जनाक्रोश और ज्यादा बढ़ गया।
लेकिन झारखंड सरकार काॅरपोरेट घरानों के लिए रेड काॅरपेट बिछाने में व्यस्त रही। पूंजीनिवेश को सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार ने 16-17 फरवरी 2017 को झारखंड की राजधानी रांची स्थित खेलगांव में मोमेंटम झारखंड के तहत ‘ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट’ का आयोजन किया, जिसमें दुनियाभर से 11,209 छोटे-बड़े व्यापारी शामिल हुए। सरकार और पूंजीपतियांें के बीच 3.10 लाख करोड़ रूपये के पूंजीनिवेश से संबंधित 210 एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर हुआ। इस आयोजन ने राज्य के आदिवासियों के बीच स्पष्ट संदेश दे दिया कि झारखंड सरकार आदिवासियों की जमीन और खनिज को छीननकर पूंजीपतियों को देने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। इसलिए आदिवासियों ने अपनी जमीन, इलाके एवं प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए अपने तरीके से तयारी करना शुरू कर दिया।
‘ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट’ के दौरान कोरिया की कंपनी ‘स्मार्ट ग्रिड’ समूह ने झारखंड सरकार के साथ 7,000 करोड़ रूपये की पूंजीनिवेश का प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किया था। इसके तहत ‘स्मार्ट ग्रिड प्रा. लि.’ रांची के नामकुम प्रखंड के अन्तर्गत तुपुदाना स्थित सोड़हा गांव में ओटोमोबाईल पार्क बनाना चाहती थी, जिसके लिए झारखंड सरकार ने 210 एकड़ जमीन भी चिन्हित कर दिया था। जब सोड़हा गांव के आदिवासियों को इसकी भनक लगी तब उन्होंने भूमि-अधिग्रहण का विरोध करते हुए ग्रामसभा के द्वारा गांव में पत्थलगड़ी कर दिया। इस विरोध को देखते हुए कोरियाई कंपनी ने परियोजना वापस ले लिया। इस घटना ने पत्थलगड़ी को एक नया आयाम दे दिया। आदिवासी महासभा ने पत्थलगड़ी के ताकत को पहचान कर उसे आंदोलन का स्वरूप दे दिया। इसके बाद झारखंड के मुंडा बहुल इलाके में गांवों के सामने पत्थलगड़ी करते हुए बाहरी दिकुओं का प्रवेश निषेध कर दिया गया और ग्रामसभाओं के आदेशों का पालन नहीं करने पर उन्हें बंधक बनाया गया। इस मुहिम में खूंटी जिले के उपायुक्त, पुलिस अधीक्षक, पुलिस उपाधीक्षक, न्यायिक दंडाधिकारी और सीआरपीएफ के जवानों को बंधक बनाया गया। ग्रामसभाओं के संदेशों को सुनने के बजाय सरकार पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े लोगों पर कानून का डंडा चलाने लगी।
आदिवासियों के बीच यह स्पष्ट संदेश चला गया है कि सरकार और काॅरपोरेट के बीच मजबूत गांठजोड़ है इसलिए अपनी जमीन, इलाके और प्राकृतिक संसाधनों को बचाना है तो उन्हें स्वंय खड़ा होना होगा। देश एवं राज्य की सरकारें आदिवासियों के लिए किये गये सवैंधानिक प्रावधान और कानूनों को जानबूझकर लागू नहीं करते हैं क्योंकि इन्हें लागू करने से आदिवासियों की जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदाओं को छीनना बहुत मुश्किल होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(3), अनु. 19(5)(6) एवं अनु. 244(1) तथा पांचवीं अनुसूची के प्रावधान सिर्फ संविधान का शोभा बढ़ा रहे हैं। इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 46 में आदिवासियों को सभी तरह के शोषणों से सुरक्षा दिलाने का वादा बेकार है। भारतीय लोकतंत्र के पिछले सात दशकों के अनुभव से आदिवासी यह मान लिये हैं कि न संवैधानिक प्रमुख (राष्ट्रपति एवं राज्यपाल) और न ही सरकार प्रमुख (प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री) को आदिवासियों की चिंता है। आदिवासियों के साथ प्रगति, विकास, जनहित, राष्ट्रहित एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर धोखा किया गया है। इसलिए अब वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन, इलाके और प्राकृतिक संसाधनों को काॅरपोरेट को देने के लिए तैयार नहीं हैं। पत्थलगड़ी आंदोलन की जड़ें यही हैं।