आदिवासी महासभा के द्वारा झारखंड के आदिवासी बहुल गांवों में किया गया पत्थलगड़ी राज्य सरकार के लिए सिर दर्द बन चुका है। इन गांवों के लोग सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रहे हैं। वे अपने को सरकारी व्यवस्था से अलग-थलग रखना चाहते हैं। बच्चों को सरकारी विद्यालयांे में भेजने पर मनाही है। कई गांवों के आदिवासी बच्चों ने सरकारी विद्यालय जाना बंद कर दिया है। आदिवासी महासभा इन बच्चों के लिए अलग से विद्यालय चला रहा है। इन विद्यालयों में गांव के ही युवा बच्चों को पढ़ाते हैं। यहां का पाठ्यक्रम भी बिल्कुल अलग है, जहां बच्चे आदिवासी पहचान, परंपरा, ग्रामसभा, जमीन, खनिज इत्यादि के बारे में सीखते हैं।

लेकिन सरकार और मुख्यधारा की मीडिया ने आदिवासी महासभा पर इन बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने, बच्चों को गुमराह करने और भारतीय संविधान के विरूद्ध काम करने का आरोप लगाया है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सचमुच आदिवासी महासभा इन बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है? क्या इन विद्यालयों में बच्चों को भारतीय संविधान के विरूद्ध पढ़ाया जा रहा है? क्या आदिवासी महासभा बच्चों को सरकार के खिलाफ भड़का रहा है? हमें इन प्रश्नों का जवाब तर्कसंगत तरीके से ढूढ़ना चाहिए।

सरकार और मीडिया ने आदिवासी महासभा पर यह आरोप लगाया हैं कि महासभा पत्थलगड़ी के आड़ में बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है इसलिए क्या इसका अर्थ यह समझा जाये कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था में इन बच्चों का भविष्य उज्जवल है? यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या सचमुच सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों का भविष्य उज्जवल है या आरोप तर्क संगत नहीं है? विगत कई दशकों से शिक्षा पर काम करने वाले कई गैर-सरकारी संगठनों की रिपोर्ट का अध्ययन करने और सरकारी विद्यालयों का भ्रमण करने से स्पष्ट दिखाई देता हैं कि सरकारी विद्यालयों में बच्चों का भविष्य कितना सुरक्षित है। ये रिपोर्ट इस बात का खुलासा करते हैं कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था सिर्फ खिचड़ी स्कूल बनकर रह गया है। उदाहरण के लिए सातवां क्लास के अधिकांश बच्चे पांचवां क्लास का हिन्दी ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं और पांचवाँ क्लास के अधिकांश बच्चे तीसरा क्लास का गणित नहीं बना पाते है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों का भविष्य कितना उज्जवल है?

आज सरकारी शिक्षा व्यवस्था की हकीकत यह है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे मैट्रिक और इंटर पहुंचते-पहंुचते पढ़ाई छोड़ देते हैं। सरकारी विद्यालय के शिक्षक-शिक्षिकाएं अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेजते हैं। सरकारी विद्यालयों में गुणवतापूर्ण शिक्षा का घोर अभाव है क्योंकि सरकार इस व्यवस्था को नहीं सुधरना चाहती है। सरकारी विद्यालयों में शिक्षक-शिक्षिकाओं की भारी कमी है। ऐसी स्थिति में इन बच्चों का भविष्य कैसे सुरक्षित है? सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे क्या सीख रहे हैं? क्या सरकार और मुख्यधारा की मीडिया आदिवासी महासभा पर तर्कहीन आरोप नहीं लगा रहे हैं?

पत्थलगड़ी का समर्थन करने वाले गांवों के आदिवासी कहते हैं कि सरकारी विद्यालय में पढ़कर उन्हें नौकरी नहीं मिलती है इसलिए वे अपने बच्चों को सरकारी विद्यालय नहीं भेजते हैं। वे कहते हैं कि आदिवासी महासभा के विद्यालयों में बच्चे कम से कम अपने समाज के बारे में तो सीख रहे हैं जो उन्हें भविष्य में काम आयेगा। क्या आदिवासी बच्चों को उनकी पहचान, जमीन, खनिज सम्पदा, इत्यादि के बारे में बताना गलत है? क्या इस तर्क का कोई जवाब सरकार और मीडिया के पास है?

सरकार और मीडिया का एक बड़ा सवाल आदिवासी महासभा द्वारा संचलित विद्यालयों के पाठ्यक्रमों को लेकर है। आदिवासी महासभा ने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पाठ्यक्रम जारी किया है। इन पाठ्यक्रमों के तहत बच्चों को हिन्दी में ‘क’ से कानून, ‘ख’ से खनिज, ‘ग’ से ग्रामसभा, ‘घ’ से घंटी, ‘च’ से चोर, इत्यादि सिखाया जाता है। इसी तरह अंग्रेजी पाठ्क्रम के तहत बच्चों को ‘ए’ फाॅर आदिवासी, ‘बी’ फाॅर विदेशी, ‘सी’ फाॅर छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, ‘डी’ फाॅर धरती, ‘ई’ फाॅर इमाईग्रेंट, इत्यादि पढ़ाया जाता है।

यहां सवाल यह है कि जब सुदूर जंगलों के बीच गांवों में रहने वाले आदिवासी बच्चों को सेव खाने का नसीब तक नहीं होता है तो उन्हें ‘ए’ फोर एप्पल पढ़ाने का क्या अर्थ है? यद्यपि आदिवासी महासभा के द्वारा बच्चों के लिए तैयार किया गया पाठ्यक्रम को पूर्णरूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसमें कई त्रुटियां भी है। इसके बावजूद आदिवासी महासभा ने तथाकथित मुख्यधारा के द्वारा संचालित शिक्षा व्यवस्था और पाठयक्रम पर गंभीर प्रश्नचिन्ह तो लगा ही दिया है। जब सरकारी विद्यालयों से पढ़कर निकलने वाले लोगों को रोजगार नहीं मिल सकता है तो ऐसी पढ़ाई का क्या अर्थ है? क्या सिर्फ सरकार का आँकड़ा दुरूस्त करने के लिए बच्चों को सरकारी स्कूल भेजना चाहिए?

आदिवासी महासभा के नेताओं का कहना है कि सरकारी विद्यालयों में आदिवासी बच्चों को बाबा तिलका मांझी, सिदो-कान्हू, बिरसा मुंडा जैसे वीर शहीदों तथा संताल हुल, बिरसा उलगुलान इत्यादि के बारे में नहीं पढ़ाया जाता है। यहां सवाल यह उठता है कि आदिवासी बच्चों को सिर्फ महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस और डा. भीमराव अम्बेदकर के बारे में ही क्यों पढ़ाया जाना चाहिए? क्या स्कूलों का पाठ्यक्रम ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे बच्चे जुड़ सके और विद्यालयों में जो उन्हें पढ़ाया जाता है वह भविष्य में उनके जीवन में काम आ सके?

सरकार और मीडिया आदिवासी महासभा के द्वारा संचालित विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने के तरीके को लेकर सबसे ज्यादा परेशान हैं। आदिवासी महासभा पर पाठ्यक्रम के द्वारा बच्चों को गुमराह करने, उनके मन में गलत बातें डालने एवं भड़काने का आरोप लगाया गया है। इसका मूल कारण है इन विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाया जाता है कि ‘क’ से कानून - कानून आदिवासियों का है, ‘ख’ से खनिज - खनिज आदिवासियों का है, ‘घ’ से घंटी - घंटी बजाने वाला ब्राह्मण बुड़बक है, ‘च’ से चोर - पंडित जवाहरलाल नेहरू चोरों का प्रधानमंत्री था, ‘छ’ से छलकपट - गैर-रूढ़िप्रथा वाले लोग छलकपट होते हैं।

आदिवासी महासभा के द्वारा संचालित विद्यालयों में पढ़ने वाले आदिवासी बच्चों को यह एक नया तरह का विद्यालय लग रहा है इसलिए वे सरकारी स्कूल छोड़कर इसमें जा रहे हैं और रूचि लेकर सीख भी रहे हैं। वे अपने सह-पाठियों को भी मुस्तैदी के साथ सीखा रहे हैं। इसलिए परेशान होने के बजाये सरकार और मीडिया को यह सोचना चाहिए कि आखिर आदिवासी लोग अपने बच्चों को ऐसा पाठ क्यों पढ़ा रहे हैं? क्या वे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर सजग नहीं है? क्या सचमुच में उन्हें गुमराह किया जा रहा है? क्या आदिवासी लोगों को अपने भविष्य की चिंता नहीं है? क्या आदिवासी लोग अपने बच्चों के भलाई के बारे में नहीं सोच सकते हैं?

आदिवासियों के साथ कहीं तो जरूर कुछ हुआ होगा वरना वे सरकारी व्यवस्था के साथ इस तरह का खपा नहीं होते। अब आदिवासी महासभा के द्वारा तैयार किये गये पाठ्यक्रम में कुछ चीजों को समझने की कोशिश की जाये। आदिवासी लोग क्यों चाहते हैं कि उनके बच्चे यह पढ़े कि कानून उनका है, खनिज उनका है और ग्रामसभा उनका है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अबतक आदिवासियों के हितों में कानून होने के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों को सरकार की सम्पति बताकर विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर लूट लिया जाता है। इसलिए अब वे चाहते हैं कि उनके बच्चे आदिवासी इलाकों में बचा-खुचा प्राकृतिक संसाधनों को कानून और ग्रामसभा की शक्तियों का उपयोग करते हुए दावा करें।

हमें यह भी सोचना चाहिए कि आदिवासी बच्चों को क्यों पढ़ाया जा रहा है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू चोरों के प्रधानमंत्री थे, गैर-आदिवासी छलकपट होते हैं एवं ब्राहमण बुड़बक हैं? हमें इतिहास देखना होगा। नेहरू ने ही आधुनिक विकास के नाम पर आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर औद्योगिकरण किया, जिसमें आदिवासियों ने अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, जमीन, जंगल और घर-बारी सब खो दिया। आदिवासी इलाकों में मौजूद खनिज सम्पदाओं को विकास के नाम पर लूट लिया गया। इस प्रक्रिया में पूंजीपति, साफेदपोश, नौकरशाह, इंजीनियर और ठेकेदार मौज किये लेकिन आदिवासी लोग बर्बाद हो गये। इसी तरह तथाकथित उच्च जातियों ने आदिवासियों को असभ्य, जंगली, पिछड़ा, असूर, शैतान, और न जाने क्या-क्या नाम उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया। भारत के आजादी की लड़ाई सबसे पहले आदिवासियों ने लड़ा लेकिन इतिहास के पुस्तक में 1957 को आजादी की पहली लड़ाई बताया गया। क्या यह आदिवासियों के साथ अन्याय नहीं है? आदिवासियों के इलाकों को असंवैधानिक एवं गैर-कानूनी तरीके से कब्जा कर लिया गया है। आदिवासियों का दर्द यही है।

यहां सवाल यह भी है कि आखिर सरकार और मुख्यधारा की मीडिया को दर्द क्यों हो रहा है? इसका मूल कारण यह है कि अदिवासी महासभा के द्वारा संचालित शिक्षा व्यवस्था से आदिवासी लोग अपनी पहचान, स्वायŸाता और जमीन, इलाका एवं प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी दावेदारी को मजबूत बनायेंगे। वे अपने मूल दुश्मन ब्राहमणवाद और पूंजीवाद को समझ पायेंगे। यदि ऐसा शिक्षा पांचवीं अनुसूची इलाके मैं फैल जाता है तो आदिवासियों से प्राकृतिक संसाधन हड़पना मुश्किल हो जायेगा। इस तरह से सारा खेल खत्म हो जायेगा। सरकार और मीडिया को आदिवासियों की चिंता नहीं है बल्कि आदिवासियों के इलाकों में घुसपैठी कर प्राकृतिक संसाधन छीनने का रास्ता बंद होने की चिंता है।