आदिवासी महासभा के द्वारा झारखंड के सैकड़ों गांवों में ‘पत्थलगड़ी’ किया गया है। यह आंदोलन इतना जोर पकड़ लिया कि ग्रामसभाओं ने बाहरी लोगों के गांवों में प्रवेश पर रोक लगा दिया है। फलस्वरूप, कई गांवों में प्रशासनिक अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों एवं सुरक्षा बलों के जवानों को बंधक बना दिया गया। इस खबर से न सिर्फ झारखंड बल्कि देशभर में खलबली मची। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने ‘पत्थलगड़ी’ को असंवैधानिक करार देते हुए राजधानी में बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाये और अखबारों में विज्ञापन छपवाकर इसके खिलाफ अभियान चलाया। आदिवासी महासभा के अगुओं और ग्रामप्रधानों के खिलाफ अपराधिक एवं देशद्रोही का मुकदमा दर्ज करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। ऐसा दिखाई पड़ता है कि ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन ने राजसŸाा को भयभीत कर दिया है। लेकिन मौलिक प्रश्न यह है कि आदिवासियों की परंपरा ‘पत्थलगड़ी’ से राजसत्ता क्यों भयभीत है?
‘पत्थलगड़ी’ को लेकर राजसत्ता के भयभीत होने के कई कारण हैं, जिसे समझने के लिए झारखंड के इतिहास को पलट कर देखना होगा। झारखंड का आदिवासी इलाका आंदोलन का गढ़ माना जाता है। इस इलाके में पिछले तीन सौ वर्षों में जिनते आंदोलन हुए हैं उतना आंदोलन देश के किसी और इलाके के में नहीं हुआ है। इतना लंबा आंदोलन देश में किसी और समुदाय ने नहीं की है। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए प्रतिकार करना आदिवासियांे के खून में है। आदिवासियों का आंदोलन उनकी पहचान, स्वायŸाता और जमीन, इलाका एवं प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक को लेकर अबतक चल रहा है। अब वे किसी भी कीमत पर अपनी बची-खुची जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत एवं खनिज सम्पदा को तथाकथित विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर काॅरपोरेट घरानों को देने के लिए तैयार नहीं हैं।
इतिहास बताता है कि औपनिवेशिक काल में आदिवासियों ने अपनी पहचान, राजसत्ता और जमीन, इलाका एवं प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक को लेकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष किया। ब्रिटिश हुकूमत ने जब आदिवासियों से जमीन का लगान मांगा तब बाबा तिलका मांझी ने नेतृत्व में 1770 में संघर्ष शुरू हुआ। आदिवासियों ने कहा कि जमीन हमें मरंग बुरू ने उपहार में दिया है। हम किसी सरकार को नहीं जानते हैं। इसलिए हम जमीन का लगान नहीं देंगे। इसी तरह 1855 में सिदो-कान्हू के अगुवाई में साठ हजार संतालों ने ब्रिटिश सरकार की हुकूमत को नाकार दिया और 1895 में बिरसा मंुडा के नेतृत्व में मुंडा दिसुम में उलगुलान का बिंगुल फूंका गया। ब्रिटिश हुकूमत को मजबूर होकर आदिवासियों की जमीन, संस्कृति एवं रूढ़ियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कानून बनाना पड़ा और आदिवासी इलाकों को वार्जित क्षेत्र घोषित करना पड़ा।
भारत के आजादी के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के द्वारा आदिवासी इलाकों में थोपे गये औद्योगिक विकास के खिलाफ आदिवासियों ने बिंगुल फूंका तथा झारखंड राज्य के गठन के बाद वे अपनी बची-खुची जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा को बचाने के लिए सरकार और औद्योगिक घरानों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि आदिवासियों ने जिस झारखंड राज्य के गठन के लिए सात दशकों तक संघर्ष किया उसी राज्य में अब उन्हें अपनी आजीविका के संसाधनों को सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष करना पड़ा रहा है। आदिवासियों को यह बात मालूम हैं कि उनका अस्तित्व बरकरार रखने के लिए उनके पास संघर्ष करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। यही रास्ता राजसŸाा को भयभीत करती है क्योंकि जनांदोलन तथाकथित विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के लूट पर अड़ंगा लगाता है।
झारखंड में देश का 40 प्रतिशत खनिज सम्पदा है। इसी खनिज सम्पदा का दोहन करने के लिए झारखंड राज्य के गठन साथ ही राज्य में औद्योगिक नीति 2001 बनाया गया, जिसे 2012 एवं 2016 में फिर से संशोधित किया गया। इस नीति के तहत कोडरमा से बहरागोड़ा तक सड़क के दोनों तरफ 25-25 किलोमीटर की परिधि में आद्योगिक गलियारा बनाया जायेगा। इसका अर्थ है औद्योगपतियों को बसाने के लिए झारखंड के आदिवासी और मूलवासियों को उजाड़ा जायेगा। इसी तरह झारखंड सरकार ने राज्यभर के 21 लाख एकड़ तथाकथित गैर-मजरूआ जमीन को ‘लैंड बैंक’ बनाकर उसमें डाल दिया है, जिसे औद्योगिक घरानों, निजी उद्यमियों एवं व्यापारियांे को देना है। 16 एवं 17 फरवरी 2017 को रांची में आयोजित ‘ग्लोबल इंवेस्टर्स सम्मिट’ में झारखंड सरकार ने काॅरपोरेट घरानों के साथ 210 एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर कर 3.10 लाख करोड़ रूपये में झारखंड का सौदा किया है। इसलिए झारखंड की जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा को पॅंूजीपतियों को सौपना है। लेकिन ‘पत्थलगड़ी’ कर आदिवासी लोग गांव-गांव में घोषणा कर रहे हैं कि उनके इलाकों में कोई भी बाहरी व्यक्ति नहीं घुस सकता है। इसका सीधा अर्थ है भूमि अधिग्रहण में रोड़ा पैदा करना। यदि झारखंड के अनुसूचित क्षेत्रों के सभी गांवों में ‘पत्थलगड़ी’ किया जाता है तो सरकार को कहीं भी जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज सम्पदा नहीं मिलेगा।
देश में चल रहे तथाकथित औद्योगिक विकास और आर्थिक तरक्की का भविष्य आदिवासी इलाकों में मौजूद खनिज सम्पदा पर निर्भर है। यदि इन इलाकों के सभी ग्रामसभा ‘पत्थलगड़ी’ कर एक साथ खनिज सम्पदा के दोहन के खिलाफ हो जाये तो देश में चल रहे औद्योगिक विकास का अंत हो जायेगा। इसी तरह यदि झारखंड के अनुसूचित क्षेत्र के सभी ग्रामसभा खनिज सम्पदा देना बंद कर दे तब राज्य में लोग विकास बोलना भूल जायेंगे। औद्योगिक विकास और गैर-आदिवासियों का भविष्य आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक सम्पदा पर निर्भर है। राजसŸाा के भयभीत होने का प्रमुख कारण यही है।
दूसरा कारण है कि ‘पत्थलगड़ी’ किये गये गांवों में आदिवासियों ने सरकार का पूर्णरूप से बहिष्कार कर दिया है। आदिवासियों ने सरकारी योजनाओं का लाभ लेना बंद कर दिया है, वे स्वास्थ्य केन्द्र नहीं जा रहे हैं और अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में नहीं भेज रहे है। झारखंड में सरकार का इस तरह का बहिष्कार पहली बार हो रहा है। यदि ‘पत्थलगड़ी’ आंदोल पूरे झारखंड में फैलता है तो सरकार की पूरी योजना धरी रह जायेगी। केन्द्रीय योजनाओं का सारा पैसा वापस लौटाना पड़ेगा, जिसे मुख्यमंत्री, नौकरशाह और पुलिस अधिकारियों के काबिलियत पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो जायेगा। यदि ऐसा होता है तो कई लोगों को अपना कुर्सी गवांना पड़ सकता है।
तीसरा कारण यह है कि झारखंड की भाजपा सरकार ने 2016-17 में सीएनटी/एसपीटी कानूनों का संशोधन किया, राज्य में स्थानीय नीति लागू की एवं भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन कानून 2013 को संशोधन किया, जिसे आदिवासी लोग सरकार के खिलाफ आक्रोशित हुए थे। ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन से भी कहीं न कहीं भाजपा के खिलाफ ही महौल बन रहा है। इसमें दो तरह की बातें हो रही है। एक पक्ष वोट व्यवस्था को ही पूर्णरूप से नाकारने के पक्ष में है और दूसरा पक्ष भाजपा को उखाड़ फेकने की वकालत कर रहा है। दोनो ही स्थिति में भाजपा की किरकिरी होने वाली है। यदि आदिवासी वोट देते हैं तो भाजपा को सता गवांना पड़ सकता है और यदि वे वोट नहीं देते हैं तो आजादी के सात दशक बाद दुनियां के महान लोकतंत्र पर गहरा चोट लगेगा। सवाल खड़ा हो जायेगा कि आखिर आदिवासियों ने भारतीय लोकतंत्र के सात दशक बाद ऐसा निर्णय क्यों लिया?
चौथा कारण है कि ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन के क्षेत्र में ‘ब्राहमणवाद’ के खिलाफ आक्रोश फैलता ही जा रहा है, जिससे संघपरिवार भयभीत है। आदिवासी लोग कह रहे हैं कि वे हिन्दू नहीं हैं और उन्हें वनवासी कहना बंद किया जाये। खंूटी के कांकी ग्रामसभा के ग्रामप्रधान ने पिछले वर्ष दुर्गापूजा के अवसर पर नोटिस जारी करते हुए कहा था कि ‘रावन’ एवं ‘महिषासुर’ आदिवासियों के पूर्वज हैं इसलिए उनका पुतला दहन बंद होनी चाहिए और जो पुतला दहन करेगा उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जायेगी। आदिवासी इलाकों में इस तरह का आवाज उठना संघ परिवार के लिए चिंता का विषय है। ‘पत्थलगड़ी’ के द्वारा गांव में बाहरी लोगों के प्रवेश निषेद्य से संघ परिवार का आदिवासियों के हिन्दूकरण का अभियान खतरे में पड़ जायेगा। इसलिए संघ परिवार ‘पत्थलगड़ी’ को राष्ट्रविरोधी बताकर इसे रोकने के लिए सरकार पद दबाब डाल रहा है।
पांचवा कारण यह है कि आदिवासी इलाकों में व्यवसाय करने वाले गैर-आदिवासियों का भविष्य आदिवासी गांवों पर ही टिका हुआ है। ये लोग आदिवासियों से वनोपज, अनाज और खस्सी-मुर्गी, इत्यादि कम दामों में खरीद बाजार में अधिक दामों में बेचते हैं तथा शहरों से सामान खरीदकर गांव-गांव घुमकर या गांवों के बाजार बेचते हैं। लेकिन ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन के कारण उनका व्यवसाय कम हो जायेगा, जिसे उनका अर्थव्यवस्था डंबाडोल हो सकता है। इतना ही नहीं ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन के दुरगामी प्रभाव से झारखंड में फिर से एक बार आदिवासी एवं मूलवासी बनाम प्रवासी का संघर्ष छिड़ सकता है क्योंकि झारखंड सरकार के द्वारा लागू किये गये स्थानीय नीति के खिलाफ आदिवासी और मूलवासियों के बीच अंदर ही अंदर आग सुलग रहा है जो कभी भी भयावह रूप ले सकता है।