आज कल हर बात पर ‘इतिहास’ बनने लगता है और हर आंदोलन ‘हूल’ और ‘उलगुलान’. हालांकि, ऐसा कह कर हम हम ‘हूल’ और ‘उलगुलान’ की महत्ता को कम कर रहे होते हैं. इनका समान अर्थी शब्द हिंदी में ‘क्रांति’ है और क्रांति इतिहास में सच्चे अर्थों में, जिससे समाज के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो, कम ही होता है. और भरसक भारी कुर्बानियों के बाद होता है. फ्रांस की राजक्रांति को ‘क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है जिसमें मानवाधिकारों का पहली बार उद्घोष हुआ था. रूस में जारशाही के अंत और सर्वाहारा का सत्ता पर कब्जा भी क्रांति के रूप में माना जाता है. ‘हूल’ और ‘उलगुलान’ के बाद दुनियां की सबसे बड़ी साम्राज्वादी ताकत आदिवासियों के लिए विशेष भूमि कानून बनाने के लिए मजबूर हुई, इस लिहाज से इसे भी हम क्रांति की संज्ञा दे सकते हैं. उतने ही गरिमामय रूप में याद करते हैं. और याद करते हैं उन हजारों हजार लोगों की कुर्बानी को जिन्होंने जल, जंगल, जमीन पर अपने अधिकार को बरकरार रखने के लिए शहादत दी.
लेकिन ‘पेसा’ कानून को लागू कराने की कवायद को क्या ‘उलगुलान’ की संज्ञा हम दे सकते हैं? हमे याद रखना चाहिए कि अपने अस्तित्व, पहचान और और जल, जगल, जमीन पर अपने नैसर्गिक अधिकार के लिए कानून का कभी मोहताज नहीं रहा अदिवासी समाज. वह अपने सामूहिक विवेक से काम लेता है, बहुत दूर तक सहन करता है और फिर संघर्ष करते रहने का आदि रहा है. आदिवासियों की अस्तित्व व अस्मिता की सुरक्षा के अंग्रेजों के जमाने से जो भी कानून बनाये गये, उन कानूनों के लिए आदिवासियों ने कभी संघर्ष नहीं किया, बल्कि सत्ता वे कानून बनाने के लिए मजबूर हुई.
हमे यह भी समझना चाहिए कि कानून और संविधान किसी ‘सिस्टम’ का ही हिस्सा होता है और जब आप किसी ‘सिस्टम’ से लड़ रहे होते हैं तो उसी ‘सिस्टम’ के बनाये किसी कानून की धारा-उपधारा के मोहताज हो जाये, तो यह ‘उलगुलान’ नहीं, इस सिस्टम के सामने आत्मसमर्पण है. प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के अधिकार के लिए सतत संघर्ष की जरूरत है और इस संघर्ष को मजबूत करना आज के समय का तकाजा. यदि हम ऐसा कर पाये तो पेसा खुद ब खुद जमीन पर उतर जायेगा.