समाज

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तीन तलाक़ की दुश्वारियां

अभी तक तीन तलाक़ मामले में अलग अलग जगहों पर तरह तरह के सवाल खड़े हुए हैं. तमाम समूह, राजनेतिक अराजनैतिक संगठनों ने अलग अलग बयान दिए, लेकिन ख़ास स्वयं उन महिलाओं को क्या लगता है जिन महिलाओं के लिए ये बिल पारित किया, हम यह जानने की कोशिश करेंगे. भोपाल में 11 सितम्बर की सुबह 10 बजे से इकबाल मैदान में चार घंटे के लिए जैसे महिलाओ का जन सैलाब उमड़ आया घरो से. महिलाएं बाहार आयी तीन तलाक़ मसले पर अपनी बात रखने के लिए. इसमें लगभग 5000 महिलाये शामिल हुई. महिलाओं ने इसका पुरजोर विरोध किया, इसलिए नहीं की वे तीन तलाक़ से मुक्ति नहीं चाहती, बल्कि इसलिए की उनको लगता है कि यह बिल सिर्फ राजनीति के खेल का हिस्सा है, जिसमे तीन तलाक़ मामले को इसका मोहरा बनाया. इससे महिलाओ की ज़िन्दगी में कोई फर्क नहीं आने वाला है,बल्कि उनके अपने निजी जीवन की मुश्किलें आगे और बढ़ने ही वाली हैं.

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नेताओं के स्त्री-विरोधी बयान

लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों को सरकार से ढेरों उम्मीदें होती हैं. आम नागरिक की अपेक्षा होती है कि सरकार अपने विजन के तहत आगे बढ़ेगी और देश में खुशहाली और तरक्की के नए आयाम स्थापित होंगे. यह सब तभी संभव होगा, जब राजनीति साफ-सुथरी होगी, क्योंकि देश की कमान राजनीतिज्ञों के हाथों में ही होती है. देश को किस दिशा में कैसे ले जाना है, इसका पूरा खाका सियासी दलों के पास होना चाहिए. लेकिन अपने देश में जिस तरह की राजनीति का चेहरा सामने आ रहा है, वह जनमानस के उम्मीदों पर पानी फेरता नजर आ रहा है. क्योंकि, जब भी कोई चुनाव होता है तो अधिकांश तो यही देखने और सुनने को मिलता है कि किसी दल के पास कोई अपना विजन नहीं है. सब के सब अंधेरे में तीर चला रहे हैं. उन्हें केवल और केवल वोट चाहिए, ताकि उनकी अपनी सरकार बने और वह सत्ता सुख भोग सके.

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हास्यास्पद है कंडोम के विज्ञापनों पर रोक

सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने टीवी चैनलों के मुख्य समय में कंडोम के प्रचार पर रोक लगा दी है. राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा इन प्रचारों पर पूछे गये स्पष्टीकरण के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. हालांकि उच्च न्यायालय ने उन सारे प्रचारों पर प्रश्नचिन्ह लगाया था, जिसमें ऐसी अश्लीलता दिखने की बात कही जाती है. कहा जाता है कि ऐसे विज्ञापनों के कारण परिचार के सभी सदस्य टीवी कार्यक्रमों को एक साथ देख नहीं पाते हैं. टीवी चैनलों का सारा व्यापार-व्यवहार ही प्रचार तंत्र पर निर्भर है. प्रचार भी अपने आप में लोगों के मनोरंजन के साधन बन जाते हैं. वैसे, सन्नी लियोन का जल का विज्ञापन हो या फिर बाथरूम में लगने वाले साजो सामान के प्रचार में अर्द्धनग्न महिला शरीर का प्रदर्शन भी कम अश्लील नहीं है. फिर भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने केवल कंडोम के प्रचार पर, वह भी मुख्य समय में रोक लगा दी है.

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जब महारों ने पेशवाओं को शिकस्त दी थी

इस साल जब लोग नये साल का जश्न आदतन मना रहे होंगे तो समाज का एक हिस्सा 1 जनवरी को एक ऐसी घटना की 200वीं बरसी मना रहा होगा जिसने दलितों के आत्मसम्मान की लड़ाई को एक नयी दिशा दी। 1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नजदीक ‘भीमा कोरेगांव’ में अंग्रेजों की फौज के साथ मिलकर लड़ते हुए महारों की 500 की सेना ने मराठा पेशवाओं की 20000 से भी ज्यादा की फौज को शिकस्त देते हुए उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया था। बाद में 1851 में इस युद्ध में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने यहां एक ‘स्तम्भ’ का निर्माण करवाया जिसके ऊपर ज्यादातर महार सैनिकों के ही नाम खुदे हैं। ‘मुख्यधारा’ का इतिहास आज भी इस महत्वपूर्ण घटना की ओर आंखे मूंदे हुए है।

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अब्बु कुछ तो बोलो..

दोस्तों आज बहुत ही हताश हूँ बहुत ही बेचैनी और व्यस्तता की हालत में हूँ ना चाहते हुए भी आज का लेख लिखने का फैसला लिया है. पिछले दिनो राजस्थान उदयपुर के राजसमंद में जो कुछ घटना हुई आप और हम बहुत ही अच्छी तरह जानते हैं. एक मजदूर को सिर्फ इस लिये मौत के मुह में धकेल दिया गया कि वो मुसलमान था. उसका नाम मुहम्मद अफराजुल था. उस पर ‘लव ज़िहाद’ का आरोप लगा कर मार दिया गया. उस अधेड़ व्यक्ति का व्यक्तित्व ना सिर्फ तार-तार हुआ बल्कि उसको अपने प्राणो की आहुति भी देनी पड़ी. हम सब बहुत ही सादगी से इस घटना का एक नाटकीय रुप में आनन्द ले रहें हैं, कभी समाचार पत्र के माध्यम से तो कभी टी वी चेनल के माध्यम से इस घटना की जानकारी से सहमत होकर अपने ह्रदय, मन-मस्तिष्क को शांत करके बैठ जाते हैं.

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स्मृति शेष: पंचदेव

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए सम्पूर्ण क्रान्ति काल मे भारत मे जबर्दस्त राजनीतिक चेतना की जागृति का काल था. इस समय में अनेक युवा सार्वजनिक जीवन मे उभरे और अहर्निश अपने संकल्प के लिए संघर्षरत रहे. ऐसे ही योद्धाओं की पंक्ति मे थे, पंचदेव. पञ्चदेव जी का स्मरण आते ही मेरी आंखों के सामने हिमालय जैसा उंचा, विशाल और उदात्त तथा चट्टान जैसा कोई ठोस व्यक्तित्व उभर कर आता है. उनके व्यक्तित्व और चिन्तन के निर्माण में बिहार की सामाजिक–आर्थिक परिस्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान था. इसलिए उन्हे बिहार के “धरतीपुत्र” कहना मुझे सबसे अधिक उपयुक्त लगता है.

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गांधी का धर्म और आर.एस.एस

1अप्रैल, 1947 की घटना है। नयी दिल्ली की भंगी बस्ती – वाल्मीकि मंदिर परिसर – में जारी 1 से 5 अप्रैल तक की प्रार्थना-सभा में - ‘अडंगा’ डालने और गांधी के ‘धर्म’ को ठप करने का एक ‘नाटकीय’ दृश्य पूरे 5 दिन चला। आजादी के चार महीने पूर्व के उस पांच दिन लंबे दृश्य का ‘पटकथा-लेखक’ कौन था? – यह आज भी देश के लिए ‘खुला रहस्य’ बना हुआ है। प्रार्थना-सभा के तीसरे दिन उस नाटकीय दृश्य में एक झन्नाटेदार मोड़ तब आया, जब गांधीजी ने कहा – “जो बात मैंने सुनी वह मुझे खटक रही है - मैं चाहता हूं वह बात सही न हो - वह यह कि ये जो अड़चन डालने वाले लोग हैं, वे एक बड़े संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के हैं। और, पांचवें दिन बिना किसी अड़चन के प्रार्थना-सभा संपन्न हुई! चार दिन के शोर के बाद पांचवें दिन अवतरित उस शांति को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा : “मुझे एक पत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से मिला है। जो मैं समाचारपत्रों के लिए जारी करूंगा। पत्र में कहा गया है कि पिछले दिनों में प्रार्थना का जो विरोध किया गया था, उससे उसका कोई संबंध नहीं है।” गांधीजी ने इस जवाब पर खुशी और विश्वास व्यक्त करते हुए यह अंतिम ‘टिप्पणी’ की – “अगर कोई संस्था खुले आम काम नहीं कर सकती, तो वह किसी की जान या धर्म की रक्षा नहीं कर सकती।”

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एक शिक्षक की पीड़ा

ये जो 5 सितंबर को हम सभी ने शिक्षक दिवस मनाया, उसको मनाने का अब कुछ उद्देश्य बचा है या नहीं? हमारे छात्र इस दिन का क्या मतलब निकालते हैं, ये तो वही जाने. ये दिन या तो उनके लिए एक छुट्टी का दिन है या सिर्फ इस दिन टीचर्स को विश करके अपना काम पूरा कर लेने का. इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है, इससे उनको कोई मतलब नहीं रह गया है. टीचर्स डे पर लोग जो लंबे चौड़े पोस्ट डालते हैं और अच्छे टीचर्स की विशेषताएं बताते हैं, उनके लिए इस दिन का मतलब है? क्या शिक्षकों को लेक्चर देना कि शिक्षक कैसा होना चाहिए, वो क्या करे, क्या नहीं? इसीलिए मनाते है शिक्षक दिवस, जिसमे शिक्षक को अन्य लोग ज्ञान दे!

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जरूरत नहीं शौक

‘नेचुरल सेल्फी’ एक बहुत ही अच्छा प्रयास है लड़कियों को मेकअप और बाहरी सुंदरता के दबाव से बाहर निकालने का, और साथ ही यह बताने का कि हर कोई पूरी तरह से आज़ाद है कैसा भी दिखे. किसी के लिए बाहरी सुंदरता कुछ मैटर नही करती. क्योंकि, आजकल सबके लिए आंतरिक सुंदरता से ज्यादा बाहरी सुंदरता ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है. लेकिन जिस चीज की शुरुआत इन सारे दबाव से निकलने के लिए की गई थी कि हम क्यों किसी दूसरे के हिसाब से रहे या इस बात की चिंता करे कि कैसे दिख रहे हैं, वही बात सिम्पलीसिटी के नाम पर उन लोगों के विरोध में हो गया जो मेकअप में रहती हैं, किसी के दबाव में या किसी दूसरे को दिखाने के लिए नही,सिर्फ खुद के लिए.

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जेएनयू मर रहा है

यह महसूस बहुत समय से हो रहा था, इसकी योजना भी बहुत समय से बनायी जा रही है. आज जब छात्रसंघ अध्यक्ष और दमित वर्गों की लड़ाई लड़ने वालों को रजिस्ट्रेशन नहीं दिया जा रहा है, हत्यारे कल्लूरी को स्वतन्त्रता दिवस पर बुलाकर छात्रों को उकसाया जा रहा है, ताकि पहचान करके सोचने- समझने, बोलने, लड़ने वाले छात्रों को निकला जा सके. छात्रसंघ और शिक्षक संघ को पंगु कर दिया गया है.(लिंगदोह के समय से इसकी तैयारी चल रही थी). हर जगह वीसी और उसके चमचों की घुसपैठ है, तानाशाही है. तो मैं सोच रहा हूँ,कि कोई भूचाल क्यों नहीं आ रहा? क्यों सब सामान्य सा दिख रहा है? क्यों कक्षाएं चल रही हैं और साथ ही क्यों देश या दिल्ली या मुनिरका भी उठ खडा नहीं होता? कि हमारे इस जीवंत,विचारवान,बौद्धिक कैम्पस को मत मारो. बहसों को चलने दो, विचारधाराओं को उबलने दो.

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धर्म के नाम पर लड़े नहीं

हमारा देश विविधताओं का देश है, जिसमे विभिन्न धर्म,सम्प्रदाय,भाषा और जाति के लोग रहते है जिन्हें संविधान में अपने अनुसार धार्मिक, व्यावसायिक और सामाजिक दायित्व और अधिकार प्राप्त हैं. अगर सारे धर्मों को हम जाने तो सबमे एक बात समान है कि सभी धर्म सिर्फ एक ही कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं. वह है, मानवोचित कर्म. यानि, कि ऐसे काम जो मानव जाति के लिए उचित हैं. धर्म वह मार्ग है जिस पर चल कर हम एक अच्छा मानव बनते हैं. धर्म हमे बताता है कि कैसे हम एक अच्छा इंसान बने, कैसे हम वे सारे काम करें जो नैतिक रूप से सही हैं, जिसका बाकी लोग भी अनुकरण कर के लाभान्वित हो सके. इसका मतलब यह है कि जब तक हम वो काम करते हैं जो बाकी के लिए भी अच्छा है, तो हम अपने धर्म को बहुत अच्छे से समझ भी रहे हैं और मान भी रहे हैं. लेकिन जब भी हम कोई भी ऐसा काम करते हैं, जिससे दूसरों को कष्ट पहुंचे तो हम उस समय अपने धर्म के रास्ते से हटकर अधर्म के रास्ते पर होते हैं. चाहे फिर वह काम आप अपने धर्म की रक्षा के नाम पर ही क्यों न कर रहे हो. क्योंकि, कोई भी धर्म हमें यह कभी नहीं सिखाता कि हम किसी दूसरे को मार डाले या उसका घर जलाएं. और अगर हम ऐसा काम करते हैं तो इसका मतलब है कि हम धर्म को न मानकर उन व्यक्ति विशेष के प्रभाव में हैं, जो हमे धर्म के नाम पर उकसाते हैं. हम उनके बहकावे में आकर और धर्म का सही मतलब भूल कर,अमानवीय कृत्य करने लग जाते है जो हमे सिर्फ अधर्मी बनाते हैं.

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विविधताओं से भरा आदिवासी खान-पान

झारखण्ड की आदिवासी संस्कृति मुख्य धारा की संस्कृति से भिन्न है। आदिवासियों के खान-पान में मुख्य रुप से जंगल,जमीन से मिलने वाले खाद्य पदार्थ हैं। ये सब्जी में ज्यादतर सागों का प्रयोग करते हैं। ये साग बजारों में मिलने वाले गिने-चुने हाईब्रिड साग नहीं हैं। आदिवासी जंगलों, खेतों, नदियों से साग तोड़कर लाते हैं. इनमें से कुछ साग दवा का भी काम करती हैं। आदिवासी प्रकृति के ज्यादा करीब है, इसी कारण अन्य लोगों की अपेक्षा प्रकृति से मिलने वाले खाद्य पदार्थों के अधिक जानकार हैं। उरांव आदिवासियों में बड़े-बूढ़े बच्चा पैदा होने पर यह नहीं पूछते— लड़का हुआ या लड़की। आदिवासी जंगल जमीन से जुड़े हैं इसी कारण बच्चा पैदा होने पर पूछते हैं- ‘हल जोतवा हुआ या साग तोड़वा?’

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स्त्री-पुरुष समता का अर्थ

स्त्री-पुरुष समता का अर्थ है, एक दूसरे की क्षमताओं और सीमाओं को समझते हुए बराबरी का व्यवहार. यह जरूरी नहीं कि स्त्रियां पुरुषों के सारे काम बराबरी से करने लगें. मातृत्व के दायित्वों के कारण स्त्री पुरुष से भिन्न जरूर है, मगर कमतर नहीं. दोनों के बीच मूल अंतर तो दोनों के प्रजनन अंगों की भिन्नता मात्र है. हर जीव जगत अपनी प्रजाति की निरंतरता बनाता है यही विकास है. प्रारंभ में अमीबा है जो अपने शरीर को विखंडित कर नया जीवन पाता है. विकास के क्रम में पहले एक ही शरीर में नर मादा अंगों की उपस्थिति रहती थी. विकासक्रम में अधिक विकसित प्रजाति में नर मादा अलग अलग बने. अभी तक के विकास की उच्चतम संरचना मानव है. यहां नर मादा अलग हैं. मगर दोनों मनष्य हैं. बाद में दोनों की जिम्मेदारियां भिन्न हो गयीं, जो बहुत अस्वाभाविक नहीं है. दोनों साथ साथ विकास क्रम में यहां तक पहुंचे हैं. बराबरी की हैसियत से. न कोई पहले बना, न ऊंचा बना. मानव वेश जगत से बुद्धि और विवेक के कारण विशिष्ट है. न कि प्रजनन अंगों के कारण. प्रकृति की निरंतरता के लिए अलग अलग नर मादा बने जिनमे बाकी सारी विशिष्टताएं साथ साथ विकसित हुईं. और निरंतर वर्तमान से भविष्य की ओर दोनो साथ साथ आगे बढ़ रहें हैं. मगर जीवन के संघर्ष के साथ सत्ता की पिपासा और सत्ता का मद भी पैदा हुआ जिसमे अपने गर्भधारण की जिममेदारियों के कारण औरत पीठे ढकेल दी गई. तब से आज तक सदियों से औरत हर क्षेत्र में गैरबराबरी और अन्याय झेलती रही है. धीरे धीरे समाज में यह धारणा बनती और स्थापित होती गयी कि वह हर स्तर पर पुरुष से निम्न है, कमतर है. और आज स्थिति यह है कि उसकी कोई जाति नहीं, उसका कोई धर्म नहीं, पहचान नहीं, यहां तक कि कोई नाम तक नहीं. वह फलाने की बेटी है, फलाने कि बहू है. उसकी कोई संपत्ति नहीं. और यह भेदभाव पूरी दुनिया में व्याप्त है. मगर समता का सपना तो अपनी जगह बना हुआ है. हर इंसान सपने देखता है. खुद को आगे बढ़ाने का, छा जाने का, ज्ञान और सम्मान पाने का. अपनी इच्छाओं को पूरा करने की क्षमता अर्जित करने का. स्त्री भी सपने देखती है. क्योंकि वह भी इंसान है. मगर पुरुष ने स्त्री को कमतर मान लिया है. स्त्री को भी बाध्य किया है कि वह इसे ही सच माने. और आज की दुनिया सामने है. जहां स्त्री एक अलग जाति बन गई जो न विचार करती है, न फैसले लेती है, और न ही सपने देखती है. वह बस पुरुषों के सुख के लिए पैदा की गई है. वह गरीबों से गरीब है, सवर्ण परिवार में भी शूद्र है, शिक्षित परिवार में भी और शिक्षित होकर भी मूर्ख है, असहाय है. पुरुषों की इच्छा से रानी या दासी है. मगर औरतों को अपनी स्थिति बदलनी ही है. उसे हर हालत में समझना है कि वह भी इंसान है. उसे भी हक है नाम का ,पहचान का, संपत्ति रखने का, सपने देखने का और उसे पूरा करने का. दहेज और बलात्कार के खिलाफ उसे आगे आना होगा. विवाह की अनिवार्यता को नकारना होगा. खुद को मिट्टी की हांडी या अपवित्र होने की धारणा को नकारना होगा. बराबरी के लिए स्त्री को पहले खुद को सम्मान देना होगा. वह अपनी कद्र करेगी. अपने जीवन, अपनी इच्छाओं को महत्व देगी. फैसले लेगी और अपने फैसलों को इज्जत देगी. सक्षम बनेगी. समता आधारित समाज की ओर बढ़ने के लिए स्त्रियों को गुलामी का आसान रास्ता छोड़ना होगा. और जीवन संघर्ष में उतरना होगा. श्रम, योग्यता और शिक्षा के साथ समाज मे अपनी उपादेयता साबित करनी होगी. बेटियां असहाय और पराश्रित होने के बोझ से मुक्त होकर दोस्ती, खुलेपन और प्रतियोगिता से विकास पायेंगी, बेटे उच्चता ग्रंथी से मुक्त होंगे. सभी एक दूसरे के सहयोगी होंगे, मगर स्त्रियों को अपनी जिम्मेदारी खुद उठाने योग्य बनना होगा. अपना, अपने माता पिता का और बच्चों का भी. तभी तो इन सब पर उनका हक भी होगा. परिवार का आधार प्रेम और सहयोग होना चाहिए. निष्ठा और त्याग के नाम पर औरतों के इंसानी वजूद का विसर्जन स्थल नहीं. जीवन अनमोल और सुंदर है. उसे उजाड़ नहीं बनाना है. परिवार , बच्चे और स्त्री पुरुष के बीच का प्रेम, इन से दुनिया वंचित न हो मगर इनकी कीमत औरतों की गरिमा और मानवीयता की हत्या भी न हो. स्त्री पुरुष समता के लक्ष्य के लिए सबों को कुछ खोना होगा. मगर जो प्राप्त होगा वह असाधारण होगा, अनुपम होगा.

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सबसे जरूरी है आर्थिक आजादी

हमारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति— पुरुष अथवा महिला को बिना किसी भेदभाव के सम्मानित जीवन जीने की स्वतंत्रता देता है. व्यवहारिक रूप से व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ उसको संविधान में प्रदत्त कर्तव्य और अधिकार उस सीमा तक प्रयोग करना है ताकि उससे अन्यों के अधिकार का अतिक्रमण न हो. पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था होने के कारण महिलाओं के अधिकारों का हनन हुआ है. फलस्वरूप महिलाएँ अपने जीवन जीने हेतु,अपने से जुड़ी हर बात के लिये निर्णय लेने के सम्बन्ध में पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं. स्वतंत्रता का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि वो एकदम निरंकुश या स्वार्थी हो जाये. और ऐसा प्रायः ही होता है. महिलाएँ शक्ति और स्नेह का पूर्ण उदाहरण होती हैं.तो उन्हें बिना किसी शर्त के आगे बढने दिया जाये फिर हम एक प्रगतिशील समाज की कल्पना कर सकते है. हम अभी अपने आसपास इतने सारे उदाहरण देखते हैं जिसमें महिलाओं की परवरिश बिना लड़के लड़की के भेद किए की गई, बिना रोक टोक और वे सफल हुई अपने कैरियर में. लेकिन हर जगह ऐसा नहीं है. गांव मे या कुछ विशेष वर्ग से जुड़ी महिलाएँ अभी भी इस भेदभाव का शिकार है. अभी भी उनको अपना निर्णय खुद लेने की आजादी नहीं और ना ही वो खुद में इतनी सक्षम हैं. तो इसके लिये हमें पहले उन जैसी महिलाओं को सक्षम बनाना होगा. उनको शिक्षा, उनके लिये रोजगार उपलब्ध कराने होंगे. क्योंकि बिना आर्थिक रूप से सबल बने उनके लिये ये सम्भव नहीं. जब तक वो पैसे के लिये किसी और पर निर्भर रहेगी, तब तक आजाद कैसे ? आर्थिक निर्भरता सबसे बड़ी बाधा है उनकी आजादी में. इसलिए हमें अपने आस पास ऐसी महिलाओं की मदद करनी होगी जिससे कि वो एक सम्मानित जीवन जी सकें, निर्भय हो कर. फिर चाहे आप पुरुष हो या महिला, यह आपका कर्तव्य है, अगर आप एक अच्छे समाज की चाह रखते हैं तो.