परिवार, रीति-रिवाज़ व समाज के दबाव के चलते युवा अपनी आजादी व यौनिक इच्छाओं को जीने की जगह तो तलाश ही रहे होते हैं, जिनके चलते वे तमाम अन्य अन्य गलत गतिविधियों में भी लिप्त होते जाते हैं. लेकिन बहुत हद तक युवा अपनी इच्छाओं को रोके भी रखते हैं. खासतौर पर लडकियों के सन्दर्भ में कहें, तो वे इस भूमिका में ज्यादा दिखती हैं.

  • चर्चाओं में यह भी समझ में आया कि लड़कों से इस प्रकार की अपेक्षाएं नहीं की जाती हैं कि उनको अपनी इज्ज़त सम्हालनी है, उनको कैसे रहना है, जिसकी वजह से सभी समुदायों में लड़कों पर उस तरह की पाबंदियां नहीं हैं. लड़कों का कहना था कि बस माँ बाप का यह कहना रहता है कि घर में लाकर कुछ गलत ना करो. तुम्हारी बहनें भी हैं घर में, या शादी कर के ना लाओ.
  • वहीं लडकियों के सन्दर्भ में देकहें, तो लड़कों की तुलना में लडकियों पर माँ-बाप या समाज द्वारा दबाव होना कि अपनी इज्ज़त की परवाह करनी है, इज्ज़त नहीं जानी चाहिए, वेर्जेनिटी (कौमार्य) ख़त्म नहीं होनी चाहिए, तुमको खुद को इस प्रकार रखना है कि कोई तुम्हारे चरित्र पर ऊँगली ना उठा सके ( मुस्लिम समुदाय की लडकियों का कहना था कि अगर कोई चक्कर नहीं है, दोस्ती भी नहीं है लड़कों के साथ, जैसे कभी पेट से हुई (प्रेग्नेंट) औरत के बारे में कुछ बोल दिया कि वो ‘पेट से’ है, या कभी हम यहां से जाकर बताते हैं कि महीना क्यों आता है, तो हमको ऐसे देखा जाता है कि हम गन्दी, बिगड़ी हुई लड़की हैं. और सोचा जाता है कि हमको सब मालूम है, मतलब हम ये सब काम करते हैं. इसलिए हम यहाँ जो सुनते हैं या कहीं से भी मालूम पड़ता है तो अपने तक ही रखते हैं. सहेलियों को बताते हैं, लेकिन बड़ी औरतों के सामने ये सब बात नहीं करते. इस पूरे दौर में एक मजेदार बात हुई कि मुस्लिम समुदाय से संपर्क में आयी लडकियों में दो अलग अलग तरह के समूह देखने को मिले. एक वह, जिस समूह ने स्वयं को कंट्रोल करने के उद्देश्य से खुद के साथ पूरी ईमानदारी बरती हुई है, जैसे कभी फिल्म देखने, घूमने, लड़कों से बात करने, दोस्ती करने के मौके मिलने पर भी वे खुद को नियंत्रित; या कहें कि जान कर भी वे खुद को अनभिज्ञ रखते हुए जीती हैं. वहीं इसी समुदाय का दूसरा समूह ऐसा है, जो मौका मिलते ही सहेलियों के साथ, या जिनके भी साथ वे सहज महसूस करती हैं, उनके साथ वे इन तमाम मुद्दों पर बात करने को व्याकुल नज़र आती हैं. हालांकि दोनों ही समूह की युवा एक जैसी उम्र, बैकग्राउंड व शिक्षा के क्षेत्र में बराबरहैं. हो सकता है, समूह दो की अभिव्यक्ति समूह एक की युवाओं से ज्यादा स्ट्रोंग हो, पर एक बात यह भी समझ आयी कि समूह एक की युवतियों ने समाज द्वारा बताये, तौर तरीके इज्ज़त के डर को इतने अंदर तक आतम्सात किया है कि वे मौके मिलने पर भी इसको आसानी से छोड़ नहीं पातीं.

यौनिकता के बारे में बात करने में युवा केसा महसूस करते हैं, इस पर उनके प्रश्न किस तरह के होते हैं

  • यौनिकता जैसे विषयों पर सहज कराने ,बात करने के मोके उपलब्ध कराने, साझा करने व एक-दूसरे से नयी बातों को सुनने-सीखने के अवसरों की उपलब्धता बनाने से जल्द ही युवा इन विषयों पर आधारित चर्चा में शामिल व बात करने में सहज हो पाये, हालांकि इसमें भी युवाओं के समूह की गति आगे पीछे दिखती है. जैसे, पारधी समुदाय में लडकियां उतनी जल्दी सहज नहीं हो पाती थीं, जिस तरह लड़कों ने साझा करना शुरू कर दिया था.
  • शुरुआत में अनेक युवा अपने शरीर के अंगों के नाम ही नहीं ले पाते थे. बहुत से युवा ऐसे भी थे, जो ऐसे किसी किसी अंग के नाम जानते भी नहीं थे. इससे समझ आया कि जब युवा अपने अंगों से पूर्णतया परिचित नहीं हैं, तो वे डाक्टर या किसी के साथ बीमारी या शरीर के इन हिस्सों पर कैसे बात कर रते होंगे!
  • इस पर युवाओं का कहना था कि हमें तो ज़रूरत ही नहीं पड़ती. हम कभी इस तरह की बात ही नहीं करते. लेकिन जब इसी बात को इस प्रकार से समझने की कोशिश की गयी कि शरीर में इनकी उपयोगिता क्या और क्यों है, शरीर का चित्र और उसके अंगों के बनने की प्रक्रिया में बार बार जाने व उन अंगों को चित्र में देख कर छूने, उनके नाम के साथ बोलने से कुछ ही कार्यशालाओं के बाद से युवाओं ने खुद से जुडी या शरीर के इन हिस्सों से जुडी चर्चाओं पर खुलकर बोलना भी शुरू किया.
  • शुरुआत में युवा सिर्फ अपने शरीर के अंदर की बनावट को जानने की बात करते, धीरे धीरे युवा एक-दूसरे, यानी विपरीत लिंग (different gander) के प्रति रूचि व जानने की उत्सुकता दिखाते. युवाओं ने अपने अपने दोस्त, पहचान के लोगों से जुड़े यौनिकता के अनुभवों को साझा करते हुए स्वयं के अनुभव साझा करना भी शुरू किया…… (इस दौर में वे अपनी अपनी जगहों के दीदी-भैय्या या जिनके साथ वे यौनिकता जेसे मसलों पर बात करने के लिए सहज हो रहे थे, उनके साथ निजी स्तर (persnol lavel) पर, फोन या मिलकर सवाल पूछना, जानकारी लेना, कुछ मुश्किल हुआ है तो तुरंत पूछना या बताना भी शुरू किया.

तब हमें यह समझ आया कि यूयुवाओं को ये महसूस करवा पाने में कि यह उनकी बातों को रखने की जगह है, जब युवाओं ने खुलकर (बाकी विषयों पर भी क्योंकि ये उनके लिए जटिल विषय था) यौनिकता जैसे मुद्दों पर सवाल पूछना व अपनी इच्छाओं को साझा करना शुरू किया. हालांकि सवालों के स्तर में भी फर्क समझ आ रहा था. सवाल कुछ इस प्रकार थे :-

  • कांख में बाल क्यों आते हैं? लड़कों को कहां कहां कहा आते हैं? क्या उनको भी लिंग-बाल होते हैं?
  • लड़कों का सीना क्यों नहीं फूलता?
  • जिस लडकी के बच्चा नहीं है, उसको तब भी रोज़ दूध आता है क्या?
  • बच्चा कहाँ से निकलता (यह जानने में लड़का-लडकी दोनों की ही रूचि थी) है?

युवाओं के सामाजिक दबाव से जुड़े भी कई सवाल थे; जैसे

  • वे जानना चाहते हैं कि हम लडकियां शादी के पहले सेक्स क्यों नहीं कर सकते?
  • हम बिना शादी के क्यों लड़के या किसी भी जेंडर के पार्टनर के साथ नहीं रह सकते?
  • हम क्यों एक रात भी कहीं रुक नहीं सकते, किसी के साथ जा नहीं सकते? हम तो किस भी नहीं कर सकते.
  • कभी कभी क्यों अपने ही शरीर के साथ कुछ करने का मन करता है?
  • शादी के लिए कुंवारा या कुंवारी होना क्यों ज़रूरी होता है?
  • लड़के कुंवारे है या नहीं, यह लड़कों को भी साबित करना होता है क्या?

सवालों को पूछते हुए युवा अपनी यह भी इच्छा ज़ाहिर कर रहे थे कि वे लडकियों से जुड़े सवाल सीधे लडकियों से, और लडकियों का कहना था वे लडको से पूछना चाहते हैं. हालांकि हम सीधे एक-दूसरे के साथ इन सवालों को लेकर इंटरेक्ट नहीं करवा पाये.

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