छट सूरज की आराधना का पर्व है, इससे इसे प्रकृति का पर्व भी कहते हैं. इस पर्व के बारे में बहुत ज्यादा प्रचार नहीं होता है, फिर भी कोई बात है जिसकी वजह से लोग सफाई और पवित्रता की याद दिलाते हैं.

दिवाली में लड्डू चलता था या चलता है, लेकिन कैडबरीज कंपनी ने दिवाली गिफ्ट चॉकलेट पैक बनाना शुरू कर दिया. छठ में ठेकुआ चलता है और ठेकुआ को जहां- जहां बिहारी गए वहां- वहां छठ के दिन फैला दिया और ठेकुआ का कोई कारपोरेट ब्रांड नहीं बना है.

छठ पर्व में जाति का कोई भेद सुनाई नही देता. यह उभर कर नहीं आता और पूजा विधि के लिए पंडित को आमतौर पर नहीं बुलाने का चलन है. जिसके कुछ अपवाद हो सकते हैं.

छठ पर्व के रुप से महिलाओं का पर्व है. लड़के खाली रहते हैं इसलिए अब वह पंडाल लगाने का काम कर रहे हैं, लेकिन इसके पहले लड़के गलियों सड़कों की सफाई में खुद लगा करते थे. लोक पर्व- छठ पर्व - की पवित्रता के ऊपर, पर्व की व्यवस्था के ऊपर, मालिकाना प्रेम करेंगे और किस तरह पर्व में गिरावट आने लगेगी.

परंतु ऐसा बहुत समय तक नहीं हुआ. मुझे यह दिखने लगा कि एक दिन में पूरे पटना को या पटना के अधिकांश हिस्से को लोग साफ सुथरा कर देते हैं और चमका देते हैं और तब मुझे लगता था कि छठ के बाद प्रशासन की तरफ से यह निर्देश जारी किया जा सकता है, कि सफाई के इस स्तर को मेंटेन किया जाए.

दिवाली के एक हफ्ता बाद छठ पर्व आता है और दिवाली के समय लोग घरों की सफाई करते हैं तो इस तरह छठ पर्व को बिहार के एक जरूरी मिशन के प्रेरक के रूप में भी देखा जा सकता है.

कुछ साल पहले मैंने कलेक्ट्रेट घाट के बाहर छठ की एक मूर्ति देखी थी, जिसके बाहर एक लॉटरी का आयोजन था. पुरस्कार सामने रखा गया था. मुझे यह बात छठ पर्व की आम भावना के साथ बेमेल दिख रहा था और इस कारण, या इस तरह मुझे यह लगने लगा कि इस पर्व के साथ पवित्रता की जो भावना जुड़ी है, उसे बचा कर रखा जाए.

छठ के आयोजन में जो लड़के लगते हैं वह सामान्य तौर पर स्ट्रीट के लड़के होते हैं. उनके द्वारा मंच संचालन होता है और इस वजह से अनजाने ही यह साउंड सिस्टम से छठ के शाम और सुबह गुजर रहे स्त्री पुरुषों का भोंडे ढंग से स्वागत करते हैं. मुझे दिखने लगा कि हर साल की तरह बोलने का तरीका हर जगह बदल रहा है.

इस तरह छठ पर्व में दोनों बातें देखी जा सकती है. और अगर इंतजाम व्यवस्था ठीक हो तो निश्चित तौर पर हर साल छठ का सप्ताह कई तरह के अन्य ऐसे मानक भी बना सकता है, जो अपने आप में पर्व के उद्देश्य में नहीं है.

अब स्त्रियों के दृष्टिकोण से विचार करें, तो यह पर्व बहुतायत में स्त्रियों के प्रभुत्व का पर्व हैं. स्त्री केंद्रित, स्त्री रेखी - मेट्रिलिनियल. स्त्रियों के इस स्टेटस की रक्षा करने में पुरुष समाज लग जाता है. आजकल कुछ पुरुष भी, छठ पर्व करने लगे हैं. पर छठ में महिलाएं ही आगे रहती हैं. वह खुद कर्मकांड करती हैं और पंडित भी नहीं बुलाये जाते. इसं पर्व मे ईश्वर तो है परंतु मनुस्मृति कम है. हम अनिश्वरवादियों के लिए छठ पर्व में ऐसी कोई कुछ खास बात नहीं है.

समाज में स्त्री पुरुष की जो श्रेणियां हैं वह छठ पर्व में समाप्त हो जाती है, यह कहना गलत है. परंतु यह इतना तो कह सकते हैं, इस पर्व में अभी तक स्त्रियां केंद्र में रहती हैं.