आईसलैंड उत्तरी अटलांटिक का एक द्वीप और यूरोपीय संघ का एक गणतंत्र देश है, जहां की जनसंख्या मात्र 3 लाख 71 हजार है. वहां के संसद में 63 सदस्य हैं. चार साल के लिए संसद के सदस्य चुने जाते हैं. 2017 के बाद इस वर्ष सितंबर के 25 तारीख को मतदान हुआ. 26 सितंबर को जब वोटों की गणना हुई तो 33 महिलाओं को विजयी घोषित कर दिया गया. लेकिन दुबारा गिनती करने पर केवल 30 महिलाएं ही विजयी घोषित हुई, जो संसद के सदस्यों का 28 प्रतिशत है.

रवांडा, क्यूबा, तथा निकारगुआ के संसद में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. मैक्सीको तथा अरब अमीरात के संसद में स्त्री तथा पुरुष बराबर की संख्या में हैं. यूरोपीय देश स्वीडन और फिनलैंड के संसदों में क्रमशः 47 प्रतिशत और 46 प्रतिशत महिलाएं हंै. उनके बाद ही आईसलैंड का स्थान है.

इस देश की एक विशेषता यह है कि यह लगातार 12 वर्षों से वल्र्ड एकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट में विश्व का सबसे ज्यादा लैंगिक समानता वाला देश कहलाता रहा है. दूसरी विशेषता यह है कि 2017 के चुनाव में प्रधानमंत्री बनी कैटरीन जैकोबारीयर ही एक ऐसी प्रधानमंत्री रही जो एक दशक से अस्थिर बनी हुई आईसलैंड की शासन व्यवस्था को स्थिरता प्रदान की. पूरे चार साल सरकार को बखूबी संभाला अन्यथा 2007 से 2017 के बीच पांच बार चुनाव हुए और कोई स्थिर सरकार वहां नहीं बन पायी. आईसलैंड के चुनावी नतीजों ने एक बार फिर भारतीय महिलाओं के मन में एक टीस पैदा किया होगा, क्योंकि आजादी के 72 वर्ष बाद भी सवा सौ करोड़ जनसंख्या वाले देश के राजनीति तथा शासन व्यवस्था में महिलाओं को पुरुषों के बराबर न अधिकार मिला है, न मौका ही मिला. भारत में महिलाओं की संख्या 48 फीसदी है. 543 सीटों वाली लोकसभा में महिलाओं को आधा नही ंतो कम से कम 33 फीसदी का प्रतिनिधित्व होना चाहिए था. यदि 180 महिलाएं चुन कर लोकसभा में जातीं तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व होता. 2019 के चुनाव में आठ हजार प्रत्याशियों में मात्र 700 महिलाएं थीं और उनमें से 78 महिलाएं जीत कर लोकसभा पहुंची. यानि कुल सदस्यो का 14.36 प्रतिशत.

भारतीय शासन व्यवस्था में महिलाओं की भागिदारी न के बराबर होना महिलाओं की कमजोरी या अयोग्यता नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक भारतीय समाज के ही पुरुष राजनीतिक दलों में महिलाओं को न प्रवेश करने देते हैं और न टिकट ही देते हैं. जब महिलाओं ने 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए आवाज उठायी तो 25 वर्ष बाद भी नतीजा सिफर ही रहा. 1996 से ही संसद में महिला आरक्षण बिल पेश होता रहा जो तीखी बहस, हाथा पायी और बिल को चिंदी-चिंदी फाड़ कर उड़ा देने में ही समाप्त हो गया.

भारतीय संविधान स्त्री और पुरुष को बराबर का अधिकार देता है, लेकिन इस अधिकार को देने वाला पुरुष ही होता है. भारतीय पुरुष की मानसिकता यह कभी स्वीकार नहीं कर पाती है कि स्त्रियां उनके एकछत्र राज्य में प्रवेश करे. भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल तक में महिला आरक्षण बिल लागू है और वहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व भारत से अधिक है. पाकिसतान के दोनों सदनों में से प्रत्येक में 20 प्रतिशत महिलाएं हैं. बांग्लादेश में महिलाओं का प्रतिशत 20.92 है. और नेपाल में तो महिलाओं की जनसंख्या ही पुरुषों से अधिक है जो 54.19 प्रतिशत है और वहां के सदन में 33.2 प्रतिशत महिलाएं हैं. ये सारे आंकड़े 2020 के हैं.