अमेरिका और यूरोप के बाद अब भारत में भी मी टू आंदोलन जोर पकड़ रहा है. मीडिया, सिनेमा, टेलिविजन, म्यूजिक आदि क्षेत्रों में काम कर रही महिलायें अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की घटनाओं का उल्लेख सोसल मीडिया पर करते हुए उन पुरुषों का भी नाम लिया है जिन्होंने उनके साथ दुराचार किया या करने का प्रयास किया. ये घटनाएं आज कल की नहीं, बल्कि 20-25 वर्ष पहले की थीं. उस समय उन्होंने इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई तो इसका सबसे बड़ा कारण यही रहा होगा कि भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में यौन उत्पीड़न लड़की के लिए शर्म की बात होती है. इसके लिए उसे ही दोषी ठहराया जाता है. उत्पीड़क पुरुष तो अपने इन कामों के द्वारा अपने पौरुष का ही प्रदर्शन करता है.

इसी बीच ‘यू गो इंडिया’ नामक संस्था ने एक हजार शहरी स्त्री- पुरुष से मीटू के प्रभाव के बारे में जानने का प्रयास किया. इस सर्वेक्षण में 51 फीसदी पुरुष व 49 प्रतिशत महिलाओं से बात की गई. मीटू आंदोलन के प्रभाव के बारे में कुछ बातें सामने आई. जैसे, प्रति दो पुरुषों में से एक पुरुष ने यह स्वीकार किया है कि मीटू आंदोलन के बाद से उन्होंने औरतों से बात करते समय सावधानी बरतनी शुरु कर दी है. प्रति तीन पुरुषों में से एक पुरुष ने यह स्वीकार किया है कि कार्यस्थल पर स्त्रियों से केवल काम से संबंधित बातें ही वे करते हैं. कुछ पुरुषों ने काम के दौरान अपने दल में स्त्रियों को शामिल करने में संकोच व्यक्त किया है. लेकिन इस सर्वेंक्षण में यह बात स्पष्ट हुई कि 66 फीसदी पुरुष तथा 87 फीसदी महिलाओं ने यौन उत्पीड़न को भारतीय समाज की सब से बड़ी समस्या बताया.

मीटू आंदोलन से यह तो निश्चित हुआ कि महिलाएं अपने साथ हुए यौन शोषण को खुल कर बोलने का साहस करने लगी. सर्वेक्षण ने मीटू आंदोलन के प्रभाव को एक सीमित नजरिये से रखने का प्रयास जरूर किया है. इससे आंदोलन के रूख का तो पता चलता है, लेकिन व्यापक रूप से पूरे समाज पर और सभी वर्गों की महिलाओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ा या कितना प्रभाव पड़ने की संभावना है, यह स्पष्ट नहीं होती. मीटू आंदोलन महानगरों में कुछ उंचे प्रतिष्ठानों में काम करने वाली महिलाओं के साथ हुए यौन दुराचार या अश्लील व्यवहार का खुलासा करता है. इसके कुछ परिणाम भी दिखे. कई संस्थाओं ने ऐसे अपराधी पुरुषों को अपनी संस्थाओं से हटाया भी. कुछ पुरुषों ने तो महिलाओं पर ही मानहानी का केस कर अपने को दोषमुक्त करने का प्रयास किया. कुछ तथाकथित नामी पुरुषों के चेहरे लोगों के सामने आये. इस आंदोलन के इतने से प्रभाव से ही क्या महिलाएं संतुष्ट हो जायेंगी या वे इसका प्रभाव पूरे समाज पर देखना चाहेंगी, अभी यह स्पष्ट नहीं.

गौर करें तो भारतीय समाज की महिलाएं एक समान धरातल पर नहीं हैं. महानगरों में रहने वाली शिक्षित महिलाएं, जो बड़े उद्योगो में कार्यरत है, आत्मनिर्भर हैं, इन महिलाओं को मीटू आंदोलन से जुड़ने का साधन और साहस दोनों उपलब्ध है, दूसरी ओर छोटे शहरों में रहने वाली पढ़ी लिखी महिलाएं, जोवनोपार्जन के लिए बाहर तो निकलती हैं, लेकिन मुखर नहीं होती हैं. वे या तो उत्पीड़न की घटनाओं से बचकर चलना चाहती हैं या चुप रह जाती हैं. सड़कों पर, बसों में आते जाते उन्हें पुरुषों के दुव्र्यवहार को सहना ही पड़ता है. तीसरे स्थान पर ग्रामीण महिलाएं होती हैं, जो कम पढ़ी लिखी होने के कारण ज्यादातर खेतों में या दूसरे तरह का शारीरिक श्रम करती हैं. वे महिलाएं मुखर हो सकती हैं, लेकिन रोजी रोटी के सवाल के सामने वे भी चुप रह जाती हैं. क्या ये सारी महिलाएं मीटू आंदोलन का हिस्सा बन पायेंगी. अपने उपर होने वाली हिंसा को बताने का साहस इनमें आयेगा? शोसल मीडिया के अलावा कोई दूसरा जरिया हो सकता है जहां वे अपनी शिकायत दर्ज कर सके?

ऐसे समय मे हमें निश्चित रूप से 1992 में भंवरी देवी द्वारा उठाये गये साहसिक कदम को जरूर याद करना चाहिए. कम पढ़ी लिखी ग्रामीण भंवरी देवी महिला सशक्तिकरण की योजना में शामिल हो कर साथिन के तौर पर काम करती थी. अपने इस सीमित अधिकार का ही प्रयोग कर उसने नौ साल की एक गुज्जर लड़की के बाल विवाह को रोकने का प्रयास किया. उसकी यह कोशिश गांव के दबंग गुज्जर पुरुषों को अच्छी नहीं लगी. तीन गुज्जर पुरुषों ने भंवरी देवी का उसके पति के सामने बलात्कार किया और उससे बदला लिया. भंवरी देवी ने अपने इस अपमान को समाज के डर से चुपचाप सहन नहीं किया. अदालत में उन पुरुषों को चुनौती दी. मीडिया में खबरें आई. लोगों ने उसका समर्थन किया. पांच साल बाद पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने के लिए ‘विशाखा गाईडलाईन’ प्रस्तुत किया. बाद में इसी के आधार पर 2013 में केंद्रीय सरकार ने कार्यस्थल पर महिला उत्पीड़न को रोकने के लिए कानून लाया.

तो हम कह सकते हैं कि हमारे देश में मीटू आंदोलन की बुनियाद 1992 में ही पड़ गई थी. इसकी नींव रखने वाली भारतीय समाज की सबसे निचले तबके की महिला थी. पुरुष प्रधान समाज महिला को उपभोग की वस्तु समझता हो, लेकिन इस सोच के बावजूद भारतीय समाज की महिलाएं बिना किसी संकोच या डर के यौन शोषण के विरुद्ध आवाज उठायेंगी, तभी मीटू आंदोलन की सफलता की आशा की जा सकती है.