अमेरिका से शुरू हुए इस अभियान की आंच अचानक भारत के नामचीन लोगों तक पहुँचने लगी है. इनमें फिल्म जगत के कद्दावर, सफल और ‘संस्कारी’ छवि के अलावा राजनीति और अन्य क्षेत्रों के ‘बड़े’ लोग भी शामिल हैं. नाना पाटेकर, आलोकनाथ, साजिद खान, सुभाष धई, सलमान खान और एक केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर आदि—आदि के बाद अगला नंबर किनका होगा, यह देखना बाकी है. भारत सहित पूरी दुनिया में (बेशक आदिवासी समाज इस रोग से अब तक लगभग मुक्त है) लड़कियों को घर से लेकर बाहर तक ‘अनचाहे’ स्पर्श और बदनीयत शारीरिक/यौनिक पहल को झेलना पड़ता है. मगर, खास कर एशियाई देशों में वे किसी से कुछ कह नहीं पातीं, क्यों कि इससे उनकी ही बदनामी होगी! खुद उनके परिजन-करीबी उन्हें चुप रहने की सलाह देते हैं. घर की देहरी, यानी ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघने की इतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है.
ग्लैमर की दुनिया के इस कड़वे सच का एहसास भी हर किसी को है. फिल्मी गलियारों में इसकी चर्चा भी होती रही है; चटखारे लेकर! बहुत पहले कृष्ण चंदर की एक किताब ‘बावन पत्ते’ में इसका पूरा ब्यौरा है. दूसरे-तीसरे दर्जे की महिला कलाकार ऐसी शिकायत करती भी रही हैं. लेकिन उनके आरोपों को एक असफल कलाकार का रोना मान लिया जाता रहा है. फिर इंडस्ट्री के कद्दावर और रसूखदार लोगों से कोई पंगा भी लेना नहीं चाहता. सो ‘भले’ लोग भी चुप रहते हैं. माना जाता है कि यह उस दुनिया का ‘मान्य’ रिवाज है. जिनका कोई गॉड फादर; या जिनके परिवार का कोई सदस्य स्थापित नहीं होता, उनको, अपवादों को छोड़ कर, आगे बढ़ने के लिए इस तरह के समझौते करने ही पड़ते हैं. राजनीति हो, निजी/सरकारी कार्यालय हो, मीडिया हाउस हो या कारपोरेट जगत, हर जगह स्थिति में कम या अधिक, डिग्री का ही अंतर होगा. जहां ‘सफल’ होने का ईनाम जितना बड़ा है, वहां समझौते की जरूरत या बाध्यता भी उतना ही अधिक है. लेकिन अचानक सब कुछ बदलता नजर आने लगा है. वर्षों तक चुप रही लड़कियां/महिलाएं अब तक शरीफ माने जाते रहे लोगों को बेनकाब करने की हिम्मत जुटाने लगी है. लोग उनके समर्थन में सड़कों पर उतरने लगे हैं. और ऐसे ‘शरीफों’ और उनके बचाव में उतरे लोगों की प्रतिक्रिया भी जानी-पहचानी है. इतने दिनों तक चुप क्यों थी? यह सब बस सुर्ख़ियों में रहने का हथकंडा है.. आदि. गनीमत है कि इस अभियान में शामिल लोगों या इसके समर्थकों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ या ‘सेकुलर गैंग’ की तरह अब तक किसी ‘गैंग’ का नाम नहीं दिया गया है.
सुदूर अतीत में हुए यौन दुर्व्यवहार के आरोप अदालतों में टिक पायेंगे या नहीं, अभी यह कहना कठिन है. लेकिन इतना तो हुआ ही है कि काम, नौकरी और प्रमोशन के बदले लड़कियों के साथ बेजा हरकत करते रहे और करनेवालों के होश फाख्ता हो रहे हैं. लड़कियां/ महिलाएं कल तक जिस बात को कहने का साहस नहीं कर पाती थीं, अब वे नाहक शर्मिंदगी से उबर रही हैं. इसका एक दूरगामी और सकारात्मक असर यह भी होगा कि अब बच्चियां/ लड़कियां बदनामी के डर से चुप रहने के बजाय ऐसी बेजा हरकतों का उसी समय विरोध करेंगी. शायद उनके माता-पिता भी अब परिवार की कथित प्रतिष्ठा के भय से उन्हें खामोश रहने के लिए बाध्य न करें.
अच्छी बात यह भी हुई और हो रही है कि सम्बद्ध बिरादरी के कुछ लोग भी ऐसे आरोपों की जांच की मांग, साथ ही आरोपी लोगों से किनारा करने लगे हैं. केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने कहा है कि ‘मी टू’ के तहत जो मामले सामने आ रहे हैं, उनकी जांच होगी. हालांकि एक हकीकत यह भी है कि ऐसी हरकत करनेवाले अधिकतर लोग परिचित और घर/परिवार के ही होते हैं. यदि महिलाएं सचमुच अपनी आपबीती खुल कर बताने लगें, तो बहुतेरे पुरुषों की कलई उतर जायेगी, जिनमें उनके निकट संबंधी भी होंगे.
संभव है, इस अभियान के कारण कुछ सचमुच के शरीफ लोगों पर बदनामी का धब्बा लग जाये. लेकिन यह खतरा तो किसी भी कानून और अच्छी पहल के साथ जुड़ा ही रहता है. उन सबको बचाव का मौका मिलना ही चाहिए. लेकिन सभ्य समाज में हवस के सफेदपोश भेड़ियों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए- वे एमजे अकबर हों या नाना पाटेकर या कोई और.
इस अभियान में मुंह खोलने का साहस कर रही महिलाओं को सलाम!