‘मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना है कि कितने ही हिंदू इसलिए खादी पहनने से इनकार करते हैं कि वह मुसलमानों की बुनी होती है और मुसलमान इसलिए इन्कार करते हैं कि उन्हें स्वराज में कोई दिलचस्पी नहीं. वे अंग्रेजों को तो निकाल देना चाहते हैं, पर उनकी जगह पुराना मुसलमानी शासन कायम करना चाहते हैं.’
‘यंग इंडिया’ के 24 जुलाई, 1924 के अंक में गांधीजी ने A GLOOMY PICTURE शीर्षक के तहत एक मुसलमान संवाददाता का एक पत्र-समाचार छापा, जिसके अंत में उन्होंने अपनी छोटी-सी टिप्पणी नत्थी कर दी. करीब एक साल बाद उक्त पत्र-समाचार के बारे में एक पाठक ने ‘यंग इंडिया’ को पत्र लिखा. गांधीजी ने उस पत्र को उद्धृत करते हुए ‘यंग इंडिया’ के 9 जुलाई 1925 के अंक में ‘NOT TWO RACES’ शीर्षक से पत्र-समाचार के रूप में प्रकाशित किया और अपनी संक्षिप्त टिप्पणी भी उसमें जड़ी. उक्त दोनों पत्र-समाचारों में गांधी ने दोनों पत्र-लेखकों के पत्रों को शब्दशः यथावत प्रस्तुत किया है. लेकिन अपनी टिप्पणी में भारत के हिंदू और मुसलमान समुदायों के लिए ‘कम्युनिटीज’ शब्द का प्रयोग किया है.
नैराश्यपूर्ण चित्र [A GLOOMY PICTURE]
अमृतसर से एक मुसलमान संवाददाता ने भावनापूर्ण पत्र लिखा है :आज कल उत्तर भारत में हिंदुओं और मुसलमानों में खुल कर संघर्ष होना रोज की बात ही हो गई है। इससे यह साबित होता है कि ये दोनों ही गुलाम’कौमें’ अपने देश में उठने वाले प्रश्नों का निबटारा करने में सर्वथा असमर्थ हैं. यही नहीं वे अनेक अनमेल तत्वों वाले इस विशाल देश के शासन की बागडोर अपने हाथों में लेनेके अयोग्य हैं. दोनों के बीच विरोध मिटाने के आपके के प्रयत्न सफल तो हुए थे; पर आपके जेल जाने के बाद झगड़ालू लोग फिर सामने आ गये. आपके जेल जाने से पहले जहां-जहां दोनों में लम्बे अर्से से साथ रहने के कारण परस्पर सहानुभूति और भाईचारा था, वहीं आज फूट और दुश्मनी है. पंजाब के तमाम बड़े-बड़े शहर इन दोनों कौमों की आपस की लड़ाई के अखाड़े हो गये हैं और यह आशा नहीं दिखाई देती कि भूतकाल के मीठे सम्बंध फिर कभी बहाल हो सकेंगे.
कृपया रोग के असाध्य होने से पहले इसके इलाज का कोई रास्ता निकालिये. कृपा करके पंजाब पधारिए और खुद अपनी आंखों सब हाल देखिए. जब तक आप फिर उसी स्थिति को नहीं ला पाते, तब तक आपकी खादी की हलचल व्यर्थ है. कहां 1919 केअमृतसर के वे शानदार दिन और कहां आज की यह निराशा-भरी तस्वीर. इस नगर की आबादी कोई 2 लाख है, पर उसमें 50 आदमी भी मुश्किल से खादीधारी दिखाई देंगे; और जो हैं सो भी इसी कारण कि वे कांग्रेस कमेटियों में किसी-न-किसी पद पर हैं और यह सब हिंदू-मुसलमानों के बीच फैले हुए तनाजे का नतीजा है. इस खराबी को हटाइए,दूसरी सब बातें अपने-आप दुरुस्त हो जायेंगी. अफसोस है कि ‘संगठन’ की बुनियाद किसी बुरी साइत में रखी गई थी.
गांधीजी ने संवाददाता के पूरे पत्र को उद्धृत करते हुए लिखा : लेखक द्वारा खींची गई यह तस्वीर नि:संदेह अतिरंजित है. पंजाब में अगर हिंदुओं और मुसलमानों में रोज खुल्लमखुल्ला लड़ाई हो रही हो,तो वहां लोगों का रहना बहुत ही कठिन हो गया होता. पर मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं कि बाह्य दृष्टि से पंजाब दूसरे किसी भी प्रांत के बराबर ही शांत है. फिर यह सज्जन सारा दोष संगठन के ही मत्थे मढ़ते हैं. यह उनकी भूल है. रोग तो था ही. हां, संगठन से वह बढ़ जरूर गया है. दोनों ‘जातियां’ अपना-अपना संतुलन खो बैठी हैं.
यदि पंजाबियों ने हिंदू-मुसलमान तनाव के कारण खादी छोड़ दी हो, तो खादी और देश के प्रति उनका प्रेम ऊपरी रहा होगा. परंतु मैं इस बात को नहीं मानता कि उनकी देशभक्ति औरों से कम है. इसलिए खादी का इस्तेमाल कम होने का कारण कहीं और खोजना होगा.
इसका स्पष्ट कारण तो यह है कि लोगों में यह विश्वास नहीं जम पाया है कि खादी के बिना स्वराज नहीं मिल सकता और मलमल तथा मिल के कपड़े जिस ऐशो-आराम की जिंदगी के चिन्ह हैं, वैसी जिंदगी बसर करने की उनकी इच्छा बढ़ गई है. तमाम प्रांतों में पंजाब ही ऐसा है जो अगर चाहे तो विदेशी कपड़े का बहिष्कार आज ही कर सकता है,पर वह चाहता ही नहीं. मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना है कि कितने ही हिंदू इसलिए खादी पहनने से इनकार करते हैं कि वह मुसलमानों की बुनी होती है और मुसलमान इसलिए इन्कार करते हैं कि उन्हें स्वराज में कोई दिलचस्पी नहीं. वे अंग्रेजों को तो निकाल देना चाहते हैं, पर उनकी जगह पुराना मुसलमानी शासन कायम करना चाहते हैं और यह भी कहा जाता है कि अगर हिंदू और मुसलमान दोनों एक सामान्य ध्येय के लिए चरखे के सूत्र में बंध जायें, तो पुराना मुसलमानी राज्य कायम नहीं किया जा सकेगा. मगर इन सबको मैं गर्म दिमागों की भभक मानता हूं. ऐसी बातों का विचार करने तक की फुरसत गरीब हिंदू और मुसलमानों को नहीं हो सकती. वे तो चरखा चला कर साल में अपनी आमदनी थोड़ी-बहुत बढ़ाने के लिए उत्सुक रहते हैं.
खुशकिस्मती से समझ फिर लौटती दिखाई दे रही है. जाट और कसाई एक-दूसरे का सिर फोड़ने की अपनी मूर्खता को समझ गये हैं और कहते हैं कि उनमें सुलह भी हो गई है. पर सबसे आशाजनक खबर तो दूसरे पत्र लेखकों से मिली है. उनका कहना है कि एक ओर जहां खून-खराबी करने पर तुले हुए वहशी लोग हैं, वहां दूसरों की जान बचाने पर तुले हुए समझदार स्त्री-पुरुष भी मौजूद हैं और ऐसी मिसालें एक-दो ही नहीं बल्कि बहुत ज्यादा हैं; इससे लगता है दोनों जातियों के लोगों में लड़ाई की इच्छा जितनी बलवती थी, उतनी ही शांति की भी थी. लड़ाई स्वाभाविक नहीं है, वह तो शरीर पर उठने वाले अदीठ फोड़े की तरह है. लेकिन शांति एक शाश्वत वस्तु है. दोनों जातियां यदि एक बार इस बात का निश्चय कर लें कि हम एक-दूसरे के धार्मिक रीति-रिवाजों का लिहाज रखेंगे,तो फिर कोई बात मुश्किल नहीं है. मेरे पंजाब जाने के विषय में यह बात छिपी नहीं है कि मेरा दिल उन जगहों पर जाने के लिए तड़प रहा है, जहां पर तनाजा फैला हुआ है.
शेष अगले अंक में