जंगल के कई हिस्सों में चूहों की आबादी बढ़ गयी थी। जहां हर चीज कुतरने लायक हो, खुले में हो और बहुतायत में हो, वहां चूहों को बढ़ने से कौन रोक सकता था! अलबत्ता, चूहों का नेतृत्व वर्ग चिंतित था। कारण था - जंगल का हाथी। वह हर वक्त मस्ती में रहता था। जंगल में रह कर भी जानवरों के किसी कायदे-कानून को नहीं मानता था। जब चलता कुछ न कुछ रौंद देता था। कभी कानून तो कभी चूहे! पांव तले आने के खतरे से परेशान चूहे चिल्लाते - ‘यह कैसा जंगल-राज है!’

मोटी चमड़ी, मोटी काया। मोटे तन में मन कहां, यह मुस्टंड चूहों को भी नहीं मालूम! तो फिर हाथी के मनमौजीपन का पता-ठिकाना कैसे मालूम हो? वह कभी जंगल के इस हिस्से में रहता, कभी उस हिस्से में पहुंच जाता। जैसे यह हिस्सा घर और वह हिस्सा घाट। अन्य हिस्से में ज्यादा दिन टिक गया, तो वहां अल्प संख्या में मौजूद लेकिन अपनी तादाद बढ़ाने में मशगूल चूहे चिंतित हो उठे कि हाथी ने कहीं घाट को भी घर बनाने का फैसला तो नहीं कर लिया? उन्होंने पहले हिस्से के चूहों से पूछा - ‘हाथी राजा को अपने घर से निकाल कर हमारे घाट भेज दिया क्या?’ पहले हिस्से के चूहों ने कहा - ‘हम ऐसा प्लान बना रहे हैं कि हाथी न घर का रहे और न घाट का।’ तब दूसरे हिस्से के चूहों ने सुझाया - ‘इस प्लान के लिए हम साथ मिलकर मीटिंग करें।’

एक दिन घर और घाट दोनों के चूहों ने मीटिंग की। हाथी से छुटकारा पाने। कोई अंतिम फैसला करने। ऐन उसी वक्त वहां हाथी पहुंच गया! चूहों में भगदड़ मच गयी। सब अपने-अपने बिलों में भागे। कुछ चूहे राह भूल गये। डर के मारे उन्हें सूझा नहीं कि बिल कहां है? आपाधापी में एक चूहा एक पेड़ पर चढ़ गया।

संयोग कि हाथी उसी पेड़़ के नीचे पहुंचा। अलसाया, मस्ती में सूंड उठाकर जोर से सांस ली। ये लो! ठीक उसी वक्त दहशत का मारा वह चूहा पेड़ पर से टप् से टपक गया। गनीमत कि वह हाथी की पीठ पर गिरा। कुछ संभला और बचने-भागने की सोच ही रहा था कि उसे बिलों में और अन्यत्र दुबके चूहों की चीत्कार सुनाई पड़ी। वे चूहे गला फाड़ कर चिल्ला रहे थे - ‘अबे चूहे! डर मत। जोर लगा। दबा, जोर से दबा। इतना दबा कि हाथी बैठ जाये। उठ नहीं पाये। ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा।’

दूसरा संयोग कि ठीक उसी वक्त हाथी वहीं बैठ गया। और, वह ‘टपकल’ चूहा कि दे भाग! बिल तक पहुंचने के पहले बेहोश! उस दिन हाथी घंटों उस जगह बैठा रहा। फिर उकता कर अपनी धुन में उठा और चला गया! लेकिन जाते वक्त कई चूहों ने मार्क किया कि हाथी लंगड़ा रहा है। शायद उसके पांव में या कहीं कोई कील-कांटा चुभ गया था। वैसे, जब तक वह नहीं टला, टपकल चूहा बिल के बाहर बेहोश पड़ा रहा! कई अन्य चूहे भी देर तक बिलों में पड़े रहे - वे बेहोश नहीं थे लेकिन उनके होश गुम थे।

किस्से का तेजी से बदलता राजनीतिक मोड़ यह है कि उस दिन के बाद से पस्त-पस्त चूहे हंसी-मजाक में मस्त हैं। इस बीच चूहों के प्रतिनिधियों की कई मींटिंगें हुईं। कभी ग्रुप में तो कभी सामूहिक, लेकिन हाथी से छुटकारा पाने की कोई वैकल्पिक स्ट्रैटजी नहीं बन पायी। हर बार जैसे सब समवेत स्वर में जल्दी-जल्दी ‘राम-राम-राम-राम’ बोलते और ध्वनित होता - ‘मरा-मरा-मरा-मरा!’

हर बैठक में उक्त घटना का जिक्र उठता। एक लॉबी कहती - ‘उस दिन मौका मिला तो बच्चू की हालत ऐसे पंक्चर हुई कि पूछो मत। डर के मारे बेहोश हो गये! हंसी के साथ तालियां बजतीं। तब दूसरी लॉबी कुढ़ती लेकिन कहती - ‘अंततः हाथी को बिठा तो दिया न!’ फिर जोरदार तालियां बजतीं। लेकिन कोई तीसरी लॉबी कहती - ‘अरे, वो तो इसलिए संभव हुआ कि हाथी कुछ चोट खाया हुआ था। वह घायल नहीं होता तो …? इस पर तालियां नहीं बजतीं। बैठक फुस्स हो जाती।

किस्से का लेटेस्ट मोड़ यह है कि हाल की एक बैठक में कुछ चूहों ने गंभीरता से विचार कर विभिन्न ग्रुपों को कहा - देखो भाई, टपकल चूहा और उसके समर्थक चाहे जो कहें, फैक्ट यही है कि हम अपनी सामूहिक ताकत का इस्तेमाल करके भी हाथी को बैठा नहीं सकते। इसको स्वीकार करते हुए सोचेंगे, तो आगे का रास्ता निकलेगा। सबका एक ही लक्ष्य है। हाथी पर अंकुश। इसके लिए एक ही रास्ता है कि घायल हाथी को चोट से उबरने का रास्ता न मिले, ऐसा इन्तजाम किया जाय। इसके दो तरीके हैं। एक तो यह कि उससे खुले आम दुश्मनी की जाये और ऐसा खेल रचा जाये कि हाथी हमें कुचलने को प्रेरित होकर कांटों में फंस जाय। दूसरा, यह कि उससे दोस्ती कर उसके इलाज का ऐसा इंतजाम किया जाय कि वह दवा के नाम पर जो इलाज करे-कराये उससे दर्द घटने का एहसास हो लेकिन चोट कायम रहे! फिलहाल चूहों का विमर्श इसी मोड़ पर रुका हुआ है।


सब पंछी एक हाल के

विश्वकर्मा बाबू पहले से आसन जमाकर यार-दोस्तों के आने का इंतजार कर रहे थे। सबके आते ही प्रणाम-पाती के बाद वह सीधे कथा-वाचन पर आ गए - ‘आज टाइम कम है। श्रीमतीजी का फरमान है कि मैं जरा ‘हाट’ हो आऊं। मोहल्ले के ‘मार्केट’ में कद्दू का भाव आसमान पर है। हाट में जो कुछ सस्ता मिले, ले आऊं। सो मैं छोटी कहानी सुनाऊंगा। कहानी का शीर्षक है ‘सब पंछी एक हाल के।’ महाभारत में यह कहानी विदुर ने अंधे धृतराष्ट्र को सुनाई थी। आज मैं उसी कहानी का नया पाठ आपको सुना रहा हूं।’

‘विश्वकर्मा बाबू, इसका माने ये है न कि आप खुद को विदुर बना रहे हैं। और, हम जनता को धृतराष्ट्र कह रहे हैं। आज के लोकतंत्र में असली मालिक जनता न है। राजतंत्र में राजा और लोकतंत्र में प्रजा मालिक होती है और दोनों का माने एक जैसा ही है। यही न आप बोल रहे हैं? हां, तनी-मनी डिफरेंट है और यह ‘बट नेचुरल’ है, क्योंकि राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच हजारों साल का गैप है। है कि नहीं?”

जोर का ठहाका लगा। लेकिन विश्वकर्मा बाबू गंभीर बने रहे। बोले – “जो बोलना हो, बाद में बोलिएगा। पहले सुन लीजिए। फिर तय कीजिएगा कि राजतंत्र काल के नेत्रहीन प्रभु और आप जैसे लोकतंत्र की दृष्टिहीन प्रजा में और भी कितनी-कितनी भिन्नताएं या कितनी समानताएं हैं!

“हां, तो कहानी यह है कि किसी समय एक चिड़ीमार ने चिडि़यों को फंसाने के लिए जंगल में अलग-अलग जगह तीन जाल बिछा रखे थे। उसके तीनों जाल में कुछ-कुछ पंछी फंस गये। हर जाल में ऐसे पंछी भी फंस गये थे, जिनने सदा साथ उड़ने और विचरने की कसम खा रखी थी।

“चिड़ीमार जाल समेटने गया, तो तीनों जगह एक ही जैसा नया हादसा पेश आया। उसके पहुंचते ही पंछी जाल लेकर आकाश में उड़ चले। यानी तीन जाल लिये पंछियों के तीन समूह। पंछियों को जाल समेत आकाश में उड़ते देखकर चिड़ीमार कतई खिन्न या हताश नहीं हुआ। सब पंछी एक ही दिशा में उड़ रहे थे। इसलिए वह उनके पीछे दौड़ पड़ा।

“जंगल के सुदूर कोने में कुछ मुनि-गण उस समय संध्या-वंदन आदि नित्यकर्म करके अपने-अपने आश्रम के बाहर बैठे हुए थे। उन्होंने यह विचित्र लेकिन दिलचस्प दृश्य देखा कि पंछियों के तीन गुट तीन अलग-अलग जाल लिये उड़े जा रहे हैं। उनके साथ कई अन्य छोटे-मोटे पंछी भी जाल के बाहर उनके आगे-पीछे और अगल-बगल उड़े जा रहे हैं। आसमान पर जाल के अंदर जाल के साथ उड़ते और जाल के बाहर उनके साथ उड़ते पछियों को देख जमीन से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता था कि कौन क्या चाहता है? जाल के अंदर के पंछी मुक्त होना चाहते थे या कि जाल के बाहर के पंछी कैद होना चाहते थे? नीचे से उतना ही चकित करने वाला यह नाजारा भी साथ-साथ चल रहा था कि शिकारी उनका पीछा करते दौड़ रहा था। उसके भी आगे-पीछे एवं अगल-बगल दौड़ते-भागते लोगों का हुजूम था। उनका शोर सुनकर यह अनुमान करना मुश्किल था कि वे शिकारी के तरफदार हैं या कि सिर्फ तमाशबीन?

“जमीन और आसमान पर साथ-साथ चलते इन दिलचस्प नजारों को देख एक मुनि ने पूछा - ‘अरे, व्याध, हमें यह बात बड़ी विचित्र और आश्चर्यजनक जान पड़ती है कि तू आकाश में उड़ते हुए इन पंछियों के पीछे पृथ्वी पर पैदल दौड़ रहा है। और तेरे साथ ये आम लोगों का हुजूम। उधर ऊपर भी ऐसा ही दृश्य। जाल में पंछी और उनके साथ जाल के बाहर के पंछी। यह सब क्या है?’

“व्याध बोला - ‘मुने, ये गुटबाज पंछी आपस में मिल गये हैं, अतः मेरे जालों को लिये जा रहे हैं। वे जहां कहीं एक दूसरे से झगड़ेंगे, वहीं मेरे वश में आ जाएंगे।

“तदनंतर काल के वशीभूत दुर्बुद्धि पंछी जाल समेत आकाश में उड़ते-उड़ते थकने लगे और एक दूसरे से झगड़ने लगे। उड़ते-उड़ते तू-तू-मैं-मैं करने लगे। सब एक-दूसरे पर गुस्सा उतारने लगे कि ‘मैं दम साध कर जोर लगा रहा हूँ और तुम हो कि उड़ने का मजा लूट रहे हो!’ लड़ते-लड़ते अंततः सब पृथ्वी पर गिर पड़े। तीन जाल में फंसे पंछियों के तीनों समूहों की एक-सी गति हुई। और तो और, जो जाल के बाहर उड़ रहे थे, उनमें से भी कई पंछी उन्हीं के आसपास लस्त-पस्त पड़ गये। उसी समय व्याध पहुंचा। उसने तीनों जालों को उनमें फंसे पंछियों समेत समेट लिया। और, आराम से बाहर के पंछियों को भी पकड़लिया।

“सब पंछी समझ गये कि चिड़ीमार एक-एक कर सबके पर कतरेगा जैसा कि वह बरसों से करता आ रहा है। अब उन्हें मजबूरन एक दूसरे के साथ रहना पड़ेगा या एक दूसरे से झगड़ा करना होगा, क्योंकि इससे ही तय होगा कि किसके पहले या किसके बाद किसके पर कटने का नम्बर आयेगा।”

इतना कहकर विश्वकर्मा बाबू हाट जाने के लिए उठ गये। उनके साथ तमाम श्रोता-मित्र भी राजी-खुशी बाहर निकल गये। कथा के क्लाइमेक्स का सब पर ऐसा असर हुआ कि सबकी जुबान पर पचास-साठ बरस पुरानी एक ‘ब्लैक एंड ह्वाइट’ फिल्म का टाइटिल सॉन्ग अठखोलियां करने लगा - ‘हम पंछी एक डाल के…! बोली अपनी-अपनी बोलें, जी बोलें जी बोलें! जी संग-संग डोलें, जी संग-संग डोलें…!’

बंधुओ, जाहिर है, ‘सब पंछी एक हाल के’ महाभारत काल की एक कथा का नया पाठ है। लेकिन क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि चुनाव-2019 के महाभारत में शामिल गठबंधनों के भाग्य में भी उक्त कथा के पंछियों जैसा लेखा दर्ज है?