आम चुनाव के परिणाम से स्तब्ध रह गये अनेकानेक बुद्धिजीवी इवीएम और कुछ दोषपूर्ण एफटीपी चुनाव प्रणाली को इस चुनाव परिणाम के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं. इससे सुविधा यह होती है कि उन्हें यह आत्मतोष मिलता है कि दरअसल भाजपा का जनता के बीच उतनी पैठ नहीं बढ़ी है, जितनी चुनाव परिणामों से सामने आया है. यह तो इवीएम को मैनुपुलेट करने अथवा चुनाव प्रणाली के अंदरुनी दोषों की वजह से भाजपा सत्ता में पहुंची है. इसका लाभ यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता और लोकशक्ति में विश्वास करने वाली ताकतें सारा दोष व्यवस्था पर ही मढ़ कर अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं. जबकि हकीकत यह है कि भाजपा और संघ परिवार अपनी शातिर चालों की वजह से जन साधारण का ध्यान अपनी मूल समस्याओं से हटाने और कृत्रिम राष्ट्रवादी व हिदुत्ववादी रूझानों की तरफ भटकाने में कामयाब रहा है. और यह पिछले सौ वर्षों के सतत प्रयासो से हुआ है. हालात यह कि दलित और आदिवासी समुदाष् के लिए आरक्षित सीटों में से तीन चैथाई भाजपा जीतने में कामयाब हो गई है.

यह सही है कि इवीएम की गड़बड़ी के अनेक दृष्टांत सामने आये हैं. कुल मतदान और पार्टियों को मिले वोटों गैर अनुपात के कई उदाहरण सामने आये हैं और उन मामलों को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ी जा सकती है. लेकिन विपक्ष ने जिस तरह से अपनी पराजय स्वीकार कर ली है और चुनाव आयोग व न्यायिक संस्थाओं का देश में जो हाल है, उसे देखते हुए किसी तरह की उम्मीद करना सिरे की बेवकूफी है. यदि विपक्षी दलों के नेताओं को यकीन होता कि यह पराजय धांधली की वजह से हुई है, तो वे सामूहिक रूप से संसद के वहिष्कार का निर्णय लेते और जनता के बीच जाते. लेकिन ऐसा नहीं. यानी, चुनावी दंगल का एक मुख्य खिलाड़ी अपनी पराजय स्वीकार कर चुका है और खुदाई फौजदार जैसे समाजकर्मी और तथाकथित जन आंदोलनकारी ईवीएम को लेकर हवा बनाने की कोशिशों में लगे है.

इसी तरह कुछ साथी याद दिला रहे हैं कि झारखंड में महागठबंधन को 34.6 फीसदी और एनडीए को 55 फीसदी मत प्राप्त हुए हैं. इस लिहाज से विपक्ष को पांच सीटें और एनडीए को आठ-नौ सीटें मिलनी चाहिए. इस तरह की गड़बड़ी दोषपूर्ण एफपीटीपी चुनाव प्रणाली की वजह से होता है. इसमें सुधार होना चाहिए. वे भूल जाते हैं कि भाजपा इसी चुनाव प्रणाली में दशकों तक सत्ता से दूर रही. इंदिरा गांधी इसी चुनाव प्रणाली में एमरजंसी के बाद बुरी तरह पराजित हुई. वीपी सिंह इसी चुनाव प्रणाली से सत्ता में आये. लोहिया के मार्गदर्शन में इसी चुनाव प्रणाली के तहत कई राज्यों में संविद सरकारें बनी.

इसका अर्थ यह नहीं कि इवीएम के दुरुपयोग को रोकने की कोशिशें नहीं होनी चाहिए या इस बार के चुनाव में इसके दुरुपयोग के प्रमाण हैं तो कानूनी लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए. या चुनाव प्रणाली की बुनियादी गड़बड़ियों को सुधारने की मांग न हो. प्रतिनिधि वापसी का अधिकार, समानुपातिक चुनाव प्रणाली को लागू करने की मांग होनी चाहिए, लेकिन सामाजिक चेतना के क्षेत्र में जो बदलाव आ रहे हैं, वे ज्यादा महत्वपूर्ण और खतरनाक हैं.

क्या यह तथ्य आपकी चेतना को झकझोरता नहीं कि दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की बदौलत भाजपा आज सत्ता में पहुंची है. यानी, समाज का वह तबका जिसे हम वंचित मानते हैं, जो मनुवादी व्यवस्था में सबसे अधिक आक्रांत है, वही भाजपा की तरफ मुखातिब है. इस बार के चुनाव परिणाम इस दृष्टि से बेहद चैंकाने वाले हैं कि दलितों के लिए आरक्षित कुल 84 सीटों में से 45 सीटें भाजपा ने जीती हैं. और आदिवासी क्षेत्र की सीटों यानी, एसटी सीटों की बात करें तो कुल 37 सीटों में से 31 सीटें भाजपा ने जीत ली. यानी, मनुवादी व्यवस्था से आक्रांत दलित और आदिवासियों ने कट्टर मनुवादी पार्टी को वोट दिया. परिणाम यह हुआ कि आदिवासी-दलितों की कुल 76 सीटें भाजपा की झोली में गई. यदि कहा जाये कि इन्हीं सीटों की बदौलत भाजपा सत्ता में पहुंची है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

गौर से देखें तो आरक्षित सीटों पर जीतना भाजपा के लिए आसान बनता जा रहा है. होता यह है कि अब दलित बहुल सीट हो या आदिवासी बहुल सीटें, वहां गैर दलित- गैर आदिवासी वोटरों की भी उपस्थिति रहती है. अब आरक्षित सीटों पर यदि भाजपा किसी दलित या आदिवासी को खड़ा करती है तो उसके जीत की संभावना बढ़ जाती है. क्योंकि उसे प्रत्याशी को दलित या आदिवासी मतों के अलावा गैर दलित-आदिवासी वोट भी प्राप्त होता है, जबकि दलित या आदिवासी राजनीति करने वाले दलों को सिर्फ अपनी जाति या समुदाय का. वोट मिलता है. इसकी वजह यह कि अगड़ा समाज राजनीतिक रूप से ज्यादा सचेत है, जबकि पिछड़ा दलित समाज अभी बेटी, वोट जात को देने में विश्वास करता है.

कल्पना करें कि दलित नेता रामविलास पासवान को यदि भाजपा का समर्थन नहीं हो तो क्या उनकी जीत इतनी आसान होगी? कुरमी नेता नीतीश कुमार को यदि अगड़ों का वोट नहीं मिले तो क्या वे सिर्फ कुरमी वोटों की बदौलत चुनाव जीत सकेंगे? शायद नहीं. लेकिन साथ ही यह भी होता है कि भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद दलित या आदिवासी नेता भी भगवा रंग में रंग जाता है. वह कहने के लिए तो दलित और आदिवासी रहता है, लेकिन भाजपा की नीतियों का समर्थक बन जाता है.

यानी, क्षेत्र, जाति या समुदाय केंद्रीत राजनीति की अपनी सीमाएं हैं, जो धीरे-धीरे प्रकट हो रही हैं. इसका मुकाबला तो वंचितों की मुद्दा आधारित राजनीति और मनुवाद विरोधी दलों के बीच की एकजुटता से ही हो सकती है. संस्कृति के फ्रंट पर भाजपा से हार कर आप राजनीति में उसे पराजित नहीं कर सकते. इसलिए समय रहते इस तथ्य को समझिये और सांस्कृतिक पतन के फ्रंट पर सक्रिय होइये. सिर्फ इवीएम और चुनाव प्रणाली में सुधार का नारा लगाते रहने से कुछ नहीं होगा. जनता के बीच जाना और समझना-समझाना सबसे जरूरी काम है आज के दिन का. लेकिन यह काम कठिन है, कानूनी तरीके से भाजपा को पटकनिया देने का सपना देखना-दिखाना आसान.