प्रशासन तथा पुलिस की दमनकारी कार्रवाईयां इन आवाजों को दबा पायेंगी, यह तो आने वाला समय ही बता पायेगा. विभिन्न विवि के छात्रों का नागरिकता कानून को लेकर सड़कों पर आना एक आशा की किरण सा प्रतीत होता है, क्योंकि उनका विश्वास धर्मनिरपेक्षता तथा समानता में है.
वर्ष 2019 का अंत एक वर्ष का ही अंत नहीं है, बल्कि एक दशक का भी अंत है और उस शताब्दी का भी अंत है जब 1919 में महात्मा गांधी का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पदार्पण होता है. इस पूरे समय में जितनी भी घटनाएं घटी हैं, जिनको हमने पढ़ा, जाना और अनुभव किया, उन सबका एक मूल्यांकन करना इस समय वाजिब ही होगा.
100 वर्ष पहले 1919 में महात्मा गांधी, सत्य और अहिंसा से लैश होकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश करते हैं. तीन दशकों तक देश की आजादी के लिए ब्रिटिश शासकों के साथ लड़ते रहे. जाति, वर्ग, लिंग भेद के बिना भारतवासियों को इस लड़ाई में सहयोग करने का मौका मिला और यही कारण है कि ब्रिटिश अपनी सारी कुटिलताओं के बावजूद भारत छोड़ कर जाने के लिए मजबूर हुए. भारतीयों ने सत्य, अहिंसा, समानता, समाजवाद आदि को अपने जीवन का आदर्श बनाया. जीवन के ये ही सिद्धांत आगे चल कर हमारे संविधान के आधार बने. भारतीय संविधान ने बिना किसी जाति, लिंग, वर्ग भेद के भारतीय नागरिकों को बराबरी के अधिकार दिये और इन अधिकारों की रक्षा के लिए प्रजातंत्रात्मक सरकार को दिशा निर्देश भी दिये.
क्या हम अपने इन सिद्धांतों और संविधान के मानदंडों पर खड़े उतरे? समय के साथ विकास के नाम पर आयी विकृतियों के चलते लोगों की मानसिकता तथा सरकार की नीतियों में भी बदलाव आते गये. नेहरु युग की कल्याणकारी योजनाएं 1980 के दशक तक आते- आते पूंजीवादी योजनाओं में बदलती गयीं. लोगों ने 74-75 में कांग्रेस सरकार का अधिनायकवाद और भ्रष्टाचार को भी देखा और इसके विरुद्ध आंदोलन किया. सरकार बदली, लेकिन नीतियां नहीं. वैश्वीकरण के दंश को झेला. बदलते समय और तकनीकि उपलब्धियों को भी स्वीकार किया. उसके साथ-साथ बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी और अन्य पूंजीवादी विसंगतियों को भी झेला, लेकिन अपने नैतिक मूल्यों और बापू की विरासत को भी पकड़े रहने की कोशिश की. इसी शताब्दी में इन्हीं परिस्थितियों के समानांतर कुछ ऐसी ताकतें भी पैदा हुई जो भारत को केवल हिंदुओं का भारत बनाना चाहती थी. चंूकि भारत में हिंदुओं की बहुलता है तो वे यहां के प्रथम नागरिक हैं और दूसरे धर्म के लोग दोयम दर्जे के नागरिक होंगे. हिंदू देश हिंदू धर्म के नियम से संचालित होगा, इसलिए इसमें जाति व्यवस्था की प्रधानता होगी. दलित और आदिवासी भी दायेम दर्जे के नागरिक होंगे. हिंदू धर्म में स्त्रियों को पुरुषों का अनुगामी माना गया है, इसलिए वे भी दोयम दर्जे के नागरिक होंगे. इस तरह के चिंतन वाले लोगों को महात्मा गांधी की समानता का सिद्धांत समझ में नहीं आया. पुरुष और पौरुष उनके सिद्धांत थे जो बाद में महातमा गांधी की हत्या के कारण भी बनें. यही ताकतें धीरे-धीरे अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाती हुई वर्तमान दशक में प्रवेश करती हैं और शासन तंत्र पर काबिज होती हैं. गोधरा कांड गुजरात सहित देश के विभिन्न भागों में हुए दंगे, बाबरी मस्जिद का ढ़हना, ये सारी घटनाएं इसके निमित्त बने. 2014 में केंद्रीय शासन इनके हाथों में आते ही सारा दृश्य ही बदल गया. जनता के प्रतिनिधियों के सुर बदल गये. उनकी भाषा निम्न स्तर की हो गयी और अल्पसंख्यकों के लिए घृणा उगलने लगी. परिणाम यह हुआ कि अल्पसंख्यकों में भी बड़ी संख्या वाले मुसलमानों में डर बन गया. गौमाता की रक्षा के नाम पर मुसलमानों का लिंचिंग होने लगा. मुस्लिम पुरुष तथा हिंदू स्त्रियों के प्रेम संबंधों को ‘लव जिहाद’ का नाम दिया गया और उन पर हमले होने लगे. ईसाई पादरियों और ननों के साथ दुव्र्यवहार, चर्चों पर आक्रमण हुआ. सरकार की नीतियों का विरोध करने या अल्पसंख्यकों के लिए आवाज उठाने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ कह कर उन पर देशद्रोह के मुकदमें हुए. उन्हें जेल भेजा गया. स्त्रियों के पोशाक पर पाबंदियां लगी. साथ ही बलातकार का ग्राफ भी बढ़ा.
2019 के चुनाव से विशाल बहुमत से सरकार बनाने वाली भाजपा के सामने कई चुनौतियां थी और ये चुनौतियां भी उनके पिछले शासन काल की ही उपज थीं. लगातार नीचे जाती अर्थ व्यवस्था, किसान समस्यायें, निराशा, क्रोध तथा आत्महत्यायें, बेरोजगारी का पिछले चालीस वर्षों में सबसे निचले स्तर पर पहुंचना आदि. लेकिन मोदी सरकार इन सवालों पर उदासीन रही. उसने अपने बहुमत को दूसरे तरीके से परिभाषित करना शुरु किया. अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का कानूनी अधिकार लिया और ध्वस्त बाबरी मस्जिद पर राम मंदिर के निर्माण का सपना दिखाना शुरु किया. तीन तलाक के शरीयत कानून को आपराधिक कानून का जामा पहनाया. संविधान की धारा 370 को खत्म कर जम्मू कश्मीर को लद्याख से अलग किया और केंद्र शासित राज्य बनाया. जनता के विरोध को कुचलने के लिए सेना का प्रयोग किया. नेताओं को जेल में बंद किया गया. कश्मीर में इंटरनेट तथा दूसरे संचार माध्यमों को बंद कर लोगों को कश्मीर की समस्याओं से दूर रखा.
इसके बाद अति महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन लाया. इसके अनुसार बाहर से आये मुस्लिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता पाने से अलग कर दिया. असम में नागरिक रजिस्टर को लागू कर दिया और उसमें अपना नाम दर्ज करने में असफल मुसलमानों की दुर्गति को देख कर देश के अन्य भागों के मुसलमान डर गये और वे नागरिकता कानून तथा नागरिक रजिस्टर का विरोध करने लगे. अभी भी देश के विभिन्न भागों में धरना प्रदर्शन के साथ वे आंदोलन रत हैं. उनके इस आंदोलन में उनका साथ दिया देश के अन्य नागरिकों को वह बड़ा तबका जो धर्म निरपेक्षता में आस्था रखता है और गांधीवादी आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता है. प्रशासन तथा पुलिस की दमनकारी कार्रवाईयां इन आवाजों को दबा पायेंगी, यह तो आने वाला समय ही बता पायेगा. विभिन्न विवि के छात्रों का नागरिकता कानून को लेकर सड़कों पर आना एक आशा की किरण सा प्रतीत होता है, क्योंकि उनका विश्वास धर्मनिरपेक्षता तथा समानता में है.