संविधान में कुछ भी लिखा/दर्ज हो, इसे हम भारतीयों - वी द पीपुल ऑफ इंडिया- ने ही बनाया और आत्मार्पित किया है. इसलिए आज या आगे कभी भारत की जनता जैसा चाहेगी, यह देश उसी रास्ते चलेगा.
संविधान में पूरी आस्था के बावजूद मेरी नजर में यह वेद, कुरान या बाइबल आदि की तरह कोई ‘आसमानी’ किताब नहीं है, जिस पर किसी तर्क या बहस की गुंजाइश नहीं है. इसमें खुद ही संशोधन और बदलाव के प्रावधान की प्रक्रिया निहित है, जिसके तहत सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं. जरूरत के मुताबिक आगे भी होंगे. और संसद द्वारा किये गये प्रत्येक संशोधन को भी इतना ‘पवित्र’ नहीं माना जा सकता कि उस पर सवाल न किया जाये या उसे दूसरे संशोधन से निरस्त/ रद्द न किया जा सके.
इमरजेंसी में विपक्ष की लगभग अनुपस्थिति में किये गये संशोधनों को ‘77 के बाद जनता पार्टी के समय, उचित ही, निरस्त कर दिया गया. मेरी जानकारी में केवल एक को छोड़ कर. वह था संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी शब्द जोड़ने का.
याद रहे कि उस सरकार और संसद में वाजपेयी और आडवाणी सहित तमाम ‘राष्ट्रवादी’ नेता भी थे. फिर भी इस संशोधन को रद्द नहीं किया गया, यानी सभी नेता उससे सहमत थे. बेशक मूल संविधान और उसकी प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे. इसलिए नहीं कि आंबेडकर, पटेल आदि को इन पर आपत्ति थी. इसलिए कि हमारे संविधान निर्माता मानते थे कि इन शब्दों के बिना भी हमारे संविधान के अन्य प्रावधान देश के धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा करते हैं.
फिर भी मेरा मानना है कि संविधान में कुछ भी लिखा/दर्ज हो, इसे हम भारतीयों - वी द पीपुल ऑफ इंडिया- ने ही बनाया और आत्मार्पित किया है. इसलिए आज या आगे कभी भारत की जनता जैसा चाहेगी, यह देश उसी रास्ते चलेगा. भारत के 85 % हिंदू यदि सचमुच ‘इनकी’ बातों में आकार इसे ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने पर तुल ही जायेंगे, तो कोई संविधान भी भला क्या कर लेगा. नया संविधान ही लिख दिया जायेगा. पर गनीमत है कि दशकों के सतत प्रयास के बावजूद अब तक ‘ये’ हिंदुओं का खून उस हद तक खौलाने में सफल नहीं हो सके हैं. जब तक ऐसा नहीं हो जाता, तब तक इस जमात के लोगों को अपने आदरणीय वाजपेयी और आडवाणी आदि की समझ का आदर करते हुए यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि प्रस्तावना में ये शब्द हैं, तो इसमें उनकी भी सहमति रही है. या कि यह मान लिया जाये कि दिंवगत आदरणीय वाजपेयी जी भी तुष्टिकरण की राजनीति ही करते रहे!
इंदिरा गांधी तो शायद इस संशोधन से खुद को धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी साबित करना चाहती थीं. लेकिन जाहिर है कि अब जो लोग इन शब्दों पर आपत्ति जता रहे हैं, उनको धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांत से ही चिढ़ है. पर मुश्किल यह कि यह बात वे खुल कर कह नहीं पाते.
संघी मित्रों के तमाम सवाल और कथन असल में सीएए को जस्टिफाई और उसके विरोधियों को देश और हिंदुओं का दुश्मन साबित करने का प्रयास है. 2014 के बाद से ये यही तो करते रहे हैं. यानी जो भी मोदी और भाजपा से असहमत है, उनकी आलोचना करता है, देशद्रोही है, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का सदस्य है, ‘अर्बन नक्सल’ है. अब तो भाजपा के सहयोगी दल, भाजपा शासित राज्यों के इनके नेता भी सीएए और एनआरसी पर सवाल करने लगे हैं. फिर भी ये नीतीश कुमार/जदयू और अकाली दल के नेताओं को ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ नहीं कहते! असम सहित पूरे पूर्वोत्तर में इन कानूनों का विरोध हो रहा है. देश के अन्य हिस्सों में गैर मुसलिम भी सड़कों पर निकल कर विरोध कर रहे हैं. फिर भी इनको लगता है कि लोग लगभग रसातल को जा चुकी कांग्रेस के बहकावे में ऐसा कर रहे हैं तो क्या कहा जाये!
ध्यान दीजिये, मोदी-शाह और भाजपा के अन्य नेता कह रहे हैं कि गांधी ने भी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों (गैर मुसलिम) को शरण देने की बात कही थी. तो इनसे पूछिये कि क्या सीएए लाने का मकसद गांधी की इच्छा का सम्मान करना ही था? गांधी ने वैसा नहीं कहा होता तो ये नागरिकता कानून में संशोधन नहीं करते? और आप उनके इस झूठ का जवाब तो खुद भी दे सकते थे कि ‘भारत का विभाजन धर्म के आधार पर नेहरू की महात्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए किया गया था..’ लौहपुरुष सरदार पटेल इतने निरीह और कमजोर तो नहीं थे. यह तो सर्वविदित है और ‘नागपुरी’ इतिहास के अलावा हर जगह मोटे अक्षरों में दर्ज है कि नेहरू, गांधी, पटेल या कांग्रेस के किसी नेता की इच्छा से नहीं, उनकी अनिच्छा और उनके विरोध के बावजूद भारत का विभाजन हुआ. नेहरू के धुर आलोचक डॉ लोहिया तक ने अपनी किताब ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में विभाजन के जिन प्रमुख कारणों-गुनहगारों को चिह्नित किया है, उनमें से एक ‘कांग्रेस के बूढ़े हो चुके नेताओं (जाहिर है, उनमें नेहरू के साथ पटेल भी थे) की सत्ता पाने की जल्दबाजी’ भी है. इसके अलावा जिन्ना/मुसलिम लीग के साथ ही संकीर्ण हिंदूवादियों के अहंकार को उन्होंने दोषी माना है.
तब भी पाकिस्तान भले ही जिन्ना की जिद और मुसलमानों के लिए बना, लेकिन शेष हिंदुस्तान किसी धर्म विशेष का देश नहीं बना. तब यदि आरएसएस या हिंदू महासभा की हैसियत होती, तो शायद उसी समय भारत हिंदू राष्ट्र घोषित हो जाता. पर ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि भारत देश के स्वरूप और इसके चरित्र का निर्माण आजादी के संघर्ष के दौरान ही हुआ, जिसमें इस देश के सभी धर्मों समुदायों के लोग शामिल थे. इस कारण यह देश बुनियादी रूप से सेकुलर है. सभी इस देश के बराबर के नागरिक हैं. इसके बिना यह देश एक और समृद्ध हो भी नहीं सकता. तब ‘इनके’ मन में जो कसक रह गयी थी, उसे पूरा करने का प्रयास ये लगातार करते रहे हैं. और आज इन्हें लगने लगा है कि इनका वह अधूरा सपना पूरा हो सकता है.
बेशक यदि कांग्रेस या कोई दल सत्ता के स्वार्थ में किसी समुदाय के तुष्टीकरण की नीति पर चलता है तो गलत करता है. लेकिन उसके जवाब में गैर हिंदुओं के साथ भेदभाव सही नहीं हो जायेगा.
सीएए को अकेले मत देखिये. खुद शाह डंके की चोट पर कह चुके हैं कि इसके बाद एनआरसी आयेगा. उसके बिना ‘शरणार्थियों’ और ‘घुसपैठियों’ (जो सिर्फ मुसलमान ही हो सकता है) की पहचान कैसे होगी? वैसे सीएए भी अपने आप में निर्दोष नहीं है. इस पर हम अलग से बात कर सकते है. फिलहाल, आप खुद से यह पता कीजिये कि सीएए के पहले सरकार के पास किसी शरणार्थी को नागरिकता देने का अधिकार था या नहीं? और क्या विदेशी मुसलिम शरणार्थी द्वारा नागरिकता पाने का आवेदन करने पर सरकार पर उसे स्वीकार करने की बाध्यता थी?
अंत में एक जानकारी. मोदी-1 सरकार ने पाकिस्तानी कलाकार अदनान सामी को नागरिकता दी थी; साथ ही मोदी-2 में पत्रकार तवलीन सिंह के पुत्र (पाकिस्तान के मुसलिम पिता की संतान) की सशर्त नागरिकता छीन ली.