आजाद भारत की महिलाओं को संविधान ने पुरुषों के बराबर अधिकार दिये. वह अपनी इच्छा से खा सकती है, पी सकती है, कपड़े पहन सकती है, पढ़ लिख सकती है और नौकरी कर सकती है. और उनके इन अधिकारों की रक्षा के लिए एक न्याय व्यवस्था और पुलिस तंत्र भी है. तब ऐसा क्यों होता है कि संविधान की दिशा निर्देशों से सरकार चलाने वाले प्रभु वर्ग के लोग महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की बात न कह कर महिला उत्पीड़न, हिंसा, बलात्कार आदि में महिला को ही दोषी ठहराते हुए बयान देते हैं और पुलिस प्रशासन बलात्कारी के बचाव में लगी रहती है.
निर्भया बलात्कार कांड के समय भी इन नेताओं ने कहा था कि एक लड़की को रात के नौ बजे अपने पुरुष मित्र के साथ बाहर निकलने की क्या जरूरत थी. अब हाथरस के दलित नाबालिग लड़की के बलात्कार और उसकी मृत्यु के बाद बीजेपी विधायक सुरेंद्र सिंह कहते हैं कि तलवार और शासन से बलात्कार नहीं रुक सकते हैं. इसलिए माता पिता को बेटियों को संस्कार देना चाहिए. योगी आदित्यनाथ का पहले से ही यह विचार रहा है कि लड़कियों को आजादी नहीं, सुरक्षा चाहिए. अन्यथा नारी शक्ति बेकार जायेगी या किसी अनिष्ट का कारण बनेगी. हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर की सलाह है कि लड़कियों को आजादी का अपभोग करना हो तो नग्नता को छोड़ कर ढंग के कपड़े पहनने होंगे, नहीं तो लड़कों की बुरी नजर उन पर पड़ेगी ही.
बनारस हिंदू विवि के वीसी जीसी त्रिपाठी अपने कार्यकाल के समय यौन उत्पीड़न के विरोध में प्रदर्शन करती छात्राओं से कहा था कि वे इस तरह अपने सम्मान को बेच रही हैं. मैंगलुरु के एक पब से कुछ लड़कियों को राम सेना के लोगों ने इसलिए खदेड़ा कि वे शराब पीकर भारतीय संस्कृति का अपमान कर रही हैं. करनी सेना ने तो पद्मावती के पात्र को निभा रही दीपिका पादुकोण को नाक काट लेने की धमकी दी थी. सुशांत सिंह आत्महत्या मामले में रिया चक्रवर्ती को औकात बतानीे की धमकी पंलिस के एक आला अफसर देते हैं तो कुछ अन्य लोग उसे विषकन्या तक कह डालते हैं.
इस तरह पुरुष के अपराध के लिए महिलाओं को दोषी ठहराते हुए उन पर तरह तरह के लांछन लगाना, अपशब्द कहना, मानसिक तथा शारीरिक यंत्रणा देने का अधिकार तो संविधान ने पुरुषों को नहीं दिया है. सामाजिक संरचना में लैंगिक भेद भाव और जातिगत भेद भाव में पले बढ़े पुरुष श्रेष्ठता बोध वाले ये लोग शासक या पुलिस में जा कर भी अपना स्वभाव नहीं बदल पाते हैं. इन सारे बयानों से तो यही लगता है कि औरतों के साथ होने वाले सारे अपराधों की जड़ में खुद औरत ही है, क्योंकि वह संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों का उपभोग करना चाहती है, जो उसके कुसंस्कारी होने के लक्षण हैं. घर की इज्जत और देश की संस्कृति तथा परंपराओं को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी उसी की है. इसलिए उसको अपने को घर की चाहरदिवारी में बंद कर सुरक्षित रहना है. दूसरी ओर पुरुष को अपनी आजादी के उपभोग की पूरी छूट है. वह पीकर उत्पात मचा सकता है. वह औरत को पीट सकता है. बलात्कार कर सकता है और काट कर फेंक सकता है. यह उसका कुसंस्कार नहीं है और न इससे देश की संस्कृति का अपमान होता है.
औरतें ऐसी सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में अपने को कैसे सुरक्षित रखना है, जानती है. वे यह भी जानती हैं कि घर में बंद रह कर भी वे सुरक्षित नहीं हैं. अपने कहलाने वाले लोग भी उसके लिए खतरनाक बन जाते हैं. अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत महिलाओं के साथ यदि बलात्कार की घटनाएं होती हैं तो बयानबाजी की नहीं, बल्कि जरूरत है एक ईमानदार पुलिस तंत्र की. यदि पुलिस अधिकारी समय से बलात्कार की घटनाओं का एफआईआर दर्ज करंे, सही धाराओं में करंे और जरूरत के अनुसोर पोस्को कानून का उपयोग भी करे तो शायद पीड़ित महिलाओं को न्याय मिल सकता है. एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2019 में दलित आदिवासी तथा नाबालिग बच्चियों के बलात्कार की 3486 मामले दर्ज हुए, जिसमें केवल 32 प्रतिशत ही पोस्को कानून के तहत दर्ज हुए. यह एक निर्मम संवेदनहीन तंत्र को दिखाता है.