मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक तीन चीजें- आजीविका, आजादी और आनंद- को आदिवासियों ने अपने श्रमशील जीवन में अब तक साध रखा था, लेकिन ये तीनों ही अब उनके हाथ से निकलते जा रहे हैं. गरीब आदिवासियों के लिए जो जीवन के मूलाधार थे, वे बेरहमी से उनसे छीने जा रहे हैं. बर्बरता से उनकी लूट हो रही है. सहज सुलभ जल के उसके स्रोत अनादि काल से नदियां थी जो निरंतर प्रदूशण की शिकार हो रही हैं. बड़ी बड़ी परियोजनाओं की वजह से नदियों का पानी ही सूखता जा रहा है. जंगल उनकी अर्थ व्यवस्था के पूरक आधार थे. लेकिन जंगल अब उनसे छिनता जा रहा है. और जमीन पर चतुर्दिक अतिक्रमण होते जा रहे हैं. उनकी ही जमीन पर शानदार आवासीय कालोनियां बन रही हैं, बड़े-बड़े फ्लैट्स बन रहे हैं और उनके बीच उनके गांव- घर झोपड़पट्टी में तब्दील होते जा रहे हैं.

आजीविका के लिए वह अब तक जंगल के अलावा जमीन पर निर्भर था. कठोर श्रम करके उसके पूर्वजों ने जंगल-झाड़ साफ कर खेती योग्य जमीन तैयार की थी और पठारी क्षेत्र में बड़ी मुश्किल से तैयार इन खेतों में वह अपनी जरूरत की चीजे उपजा लेता था. लेकिन विकास के नाम पर लगे उद्योगों और उसके साथ चलने वाले शहरीकरण की वजह से वह विस्थापन का शिकार हो कर उजरती मजदूर में बदलता जा रहा है. आजीविका के लिए आपने परिवार वालो को छोड़ देश-प्रदेश श्रम करने जाता है. और इस उजरती श्रम के विभिन्न रूप हैं. कही वह किसी के घरों में चाकरी करता है. कहीं वह पहरेदारी करता है. कहीं शोफर है. कही ड्राईवर. तो, कहीं इंटा-बालू ढ़ोता है. कही सड़क पर खटता है. किसी बड़ी सी इमारत पर रस्सी के सहारे लटक रंग-रोगन करता है.

श्रम की कीमत बहुत कम मिलती है. आठ-दस घंटे खट कर भी कही उसकी कमाई 50 रुपये, कही 100 रुपये, कहीं 250 रुपये और अधिकतम 500 रुपये तक होती है जिससे जीवन चलना बहुत आसान नहीं. साथ ही पहले वह अपने खेत में काम करता था, अपने जरूरत भर स्वेच्छा से करता था, उजरती मजदूर बन कर वही काम उसके लिए एक बेगार जैसी हो जाती है. वह कृतदास हो जाता है कुछ घंटों के लिए किसी और का.

यह सही है कि बहुत सारे लोग खेती से विमुख हो रहे हैं क्योंकि खेती से उनका पेट नहीं भरता अब. खेती का तरीका बदल चुका है और उसमें छोटे-मंझोले किसानों का जिंदा रहना मुश्किल. इसलिए खेती के बजाय लोग मजदूरी करने में आसानी देखते हैं. लेकिन आदिवासी समाज हमेशा से अपनी जमीन और अपनी आत्म निर्भर खेती में आनंद का अनुभव करता है. सामान्य दिनों में वह भले ही कुछ करता नजर न आये, लेकिन बादल आकाश में अतरते देख वह भी अपने हल काड़ा लेकर खेतों की ओर चल पड़ता है. और वह अकेले नहीं जाता, उसके साथ घर की औरतें, बच्चे, बच्चियां सभी होते हैं. वे कठोर श्रम के दिन होते हैं और साथ ही खेती उनके लिए आनंदोत्सव भी है.

और वनों से तो आदिवासी समाज के रागातमक संबंधों को गैर आदिवासी समाज के लोग समझ ही नहीं सकते. जंगल उनके लिए भय की वस्तु नहीं और न सफारी यात्रा की वस्तु. उनके बीच तो वह पला बढ़ा है. उनके दरख्तों के साये में उसकी परवरिश हुई है. उस जंगल से वह हर मौसम में अपने लिए कुछ न कुछ पाता है. लेकिन धीरे-धीरे जंगल उसकी पहुंच के बाहर हो गया है. उससे छिनता जा रहा है. अब वह अधिक से अधिक वहां से सूखी लकड़ियां प्राप्त कर सकता है, सूखे पत्ते बटोर सकता है और वह भी वन रक्षकों की कृपा से. तमाम किस्म के वनोत्पाद की अब वन विभाग या ठेकेदार नीलामी करता है. अपने आंगन में उगे बीड़ी पत्ते पर भी उसका हक नहीं. वह बस उसे तोड़ कर, उसके बंडल बना कर उसकी एवज में नाममात्र की मजदूरी का हकदार रह गया है.

और जब आजीविका और जीवन का आधार ही छिनता जा रहा है तो आजादी भी कैसे रहेगी? जीवन यापन के लिए अब उनमें से बहुतेरों के पास अपना श्रम बेचने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रह गया है और वह भी काम देने वालों के शर्तों पर. और आजादी अर्थहीन हो कर रह गयी है. परोक्ष रूप से गुलामी ही उनके जीवन का आधार बनता जा रहा है. बड़ी हसरत से कुछ बच्चे पढ़ने लिखने लगे हैं, लेकिन नौकरी है कहां? एक जमाने में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में कुछ नौकरियां सृजित हुई थी. लेकिन अब उसकी गुंजाईश कम हो गयी है. वैसे भी आदिवासी बच्चे अर्थाभाव की वजह से तकनीकि शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते. इसलिए उनके लिए नौकरी का अवसर बहुत कम है. ले दे कर अकुशल मजदूर के रूप में खटना उसकी नियति बन गयी है. सरकार नरेगा के तहत काम देने का भरोसा तो देती है, लेकिन वहां मजूरी कितनी है? दिन भर कठोर श्रम के बदले 220 रुपये प्रति दिन.

कुल मिला कर कहें तो जीवन यापन के लिए जिस तरह के काम उसे करने पड़ते हैं, वह उसके प्रकृति के अनुकूल नहीं. कुछ लोग इस व्यवस्था में जगह बना पाते हैं, लेकिन वे या तो अपनी जड़ों से बिल्कुल कट जाते हैं या फिर एक तरह के तनाव के शिकार हो जाते हैं. एक बिल्कुल नई और प्रकृति में उससे भिन्न दुनियां में ढ़लना उसके लिए बहुत आसान नहीं. प्रकृति के साहचर्य में अब तक बीता उसका अपना सरल सहज जीवन उससे निरंतर छिनता जा रहा है. और उसके जीवन का रस सूखता जा रहा है. उनके बीच बढ़ती नशाखोरी की एक वजह यह भी है.
ऐसी ही परिस्थिति रही तो एक दिन आदिवासी समाज के गरीब लोग सड़क पे आ जायेगे, उसका जीवन से सब कुछ छिनता ही जा रहा हैं. इन परिस्थितियों में ना रहेंगी आजीविका और आजादी और न ही आनंद. अपने बजूद के लिए निरंतर संघर्ष ही अब उनके लिए बची है.