अब तक तो सिर्फ यह दिखता है कि ‘सफाई’ का काम जरूरी है और इसके लिए किसी भी स्वीपर को ताजिदंगी (उसकी अगली पीढ़ी को भी) उसी तरह - उसी तंत्र, प्रक्रिया और परम्परा के अधीन - काम करने को विवश रहना पड़ेगा। या फिर उसे अपने ‘पेशे’ को छोड़ना होगा, लेकिन उसके लिए समाज मेंं अवसर नहीं के बराबर हैं। क्या यह कहना अधिक युक्तिसंगत नहीं होगा कि समाज या सरकार उसे यह ‘अवसर’ नहीं देना चाहते, क्योंकि तब वे इस सवाल में फंसेंगे कि ‘सफाई’ का काम कैसे चलेगा, जो कि नितांत जरूरी है?

ज्ञानकर्म के विविध धंधों में लीन प्रभु और अधिसंख्य प्रजा भी यह मानते हैं कि आजीविका के लिए मानसिक-श्रम पर आधारित तथा शरीर-श्रम पर निर्भर मानस - स्वाधीन या पराधीन माइंड सेट - दोनों में से किसी में कोई परिवर्तन की जरूरत नहीें। वे (ज्ञान-कर्मी) यह भी मान कर चलते हैं कि उन्हें अपने ज्ञान-कर्म को किसी जरूरी या सहयोगी शरीर-श्रम से अनिवार्यतया जोड़ने जैसी सोच को बरतने की चिंता नहीं करनी है। सरल उपाय यह है कि शरीर-श्रमजीवी समुदाय को सिर्फ छोटे-मोटे यांत्रिक कौशल-विकास का प्रशिक्षण दिया जाये। बाकी काम आज का ‘टैक्नोसाइंस’ खुद कर देगा।

ज्ञानकर्मियों के लिए कोई शरीरश्रम कितना भी छोटा और कम समय का हो, उसे अंशतः भी खुद करना और पसीना बहाना उनके लिए बिना मोल समय गंवाने जैसा है। सो अमूमन वे सभी यही समझ पाले रहते हैं कि इतने समय में वे अपनी दिमागी कसरत से कई गुना ज्यादा कमा सकते हैं। उससे तो कई गुना ज्यादा, जितना कि शरीर-श्रम में पसीना बहाने के एवज में किसी श्रमिक को मिलता है!

पिछले बरसों में ऐसे ही कुछ ज्ञानकर्मी बिहार के एक दलित समुदाय में सफाई के काम के सिलसिले में यांत्रिक-कौशल का प्रशिक्षण देने गयेे। अपने साथ वे कुछ यंत्र व उपकरण भी ले गये। लेकिन उनके प्रति दलित समुदाय में किसी तरह का सकरात्मक रवैया और रुचि न पाकर वे बेहद निराश लौटे। उन्होंने यंत्रों की खासियत बताते हुए दलित समुदाय को समझाने की कोशिश की कि इससे सफाई का काम कितना आसान और आनंददायक होगा। लेकिन इस पर दलित समुदाय के किसी कथित ‘बिगड़ैल’ दिमाग ने कहा – “जब इन सबसे सफाई का काम इतना आसान और आनंददायक हो जाता है तो आप ज्ञानी समाज के लोग अपना टट्टी-कूड़ा और गंदगी खुद क्यों नहीं साफ कर लेते? हमलोगों को दलित बनाये रखने में दिमाग क्यों खपाते हैं?” ज्ञानकर्मियों ने समझाने की कोशिश की कि दिमाग न हो तो शरीर के उपयोगी अंग यानी हाथ-पैर भी गुलामी करते हैं। इस पर उसी ‘बिगड़ैल’ दिमाग ने कहा – “हाँ, यह सही है लेकिन यह भी तो सही है कि बिना हाथ-पांव का दिमाग सिर्फ गुलामी सोचता है और गुलाम बनाता है।”

आजकल बिहार के कई प्रभु ज्ञानमूलक समाज के निर्माण पर जोर दे रहे हैं लेकिन वे यह तय नहीं कर पा रहे कि ‘ज्ञान’, ‘पूंजी’ और ‘श्रम’ बीच के कैसे संबंध हों। उन्हें यह समझ में आता है प्रचलित गतिशील व्यवस्था (जिसे सामंतवादी-पूंजीवादी प्रक्रिया के रूप में पहचाना जाता है) में कोई परिवर्तन किये बिना ज्ञान, पूंजी और श्रम के बीच के संबंधों के स्वरूप, चरित्र और संतुलन में विकास संभव नहीं है। वे बिना परिवर्तन के विकास चाहते हैं, इसलिए फिलहाल ‘ज्ञानमूलक समाज’ बनाने की उनकी कल्पना अस्पष्ट है।

वर्तमान परिदृश्य जो सामने है, उसमें ज्ञान और श्रम अपनी उपयोगिता, महत्व और आवश्यकता को साबित करने के लिए ‘पूंजी’ के पीछे पूर्ववत दौड़ते नजर आते हैं। पूंजी उनको डिक्टेट और कंट्रोल करती है। ‘ज्ञान’ एक तरफ सहयोगी भूमिका निभाने के लिए तरह-तरह के ‘समझौते’ कर रहा है क्यांकि ये समझौते ही उसकी उपयोगिता और उसकी सीमाओं का निर्धारण करते हैं, दूसरी तरफ ‘पावरफुल’ होते ही वह उन्हीं मूल्यों को अपनाता दिखता है, जो अपने पावर के जरिये ‘पूंजी’ प्रगट करती है। और, जहां तक श्रम की बात है, वह अपने अस्तित्व को पावर के रूप में प्रगट रखने के लिए ‘संख्याबल’ को आधार बनाता है, लेकिन पूंजी और ज्ञान के गठबंधन की ताकत से मात खाता है। अतीत का यह तथ्य आज का भी सच है।

आजकल यह परिणाम पहले की तुलना में कुछ ज्यादा ही कांटें सा चुभ सकता है कि ‘पूंजी’ अब पहले से ज्यादा आवारा और निरंकुश हो गयी है। वह उसी ज्ञान या श्रम-कर्म को जीने का हक देती है, जो उसकी निरंकुशता को अक्षुण्ण रखने और उसके डिक्टेट व कंट्रोल करने के अधिकार को सर झुका कर स्वीकार करे। (पूंजी की जगह अब ‘बाजार’ शब्द का भी इस्तेमाल किया जाता है)। आधुनिक ज्ञान में न ‘विनय’ रहा और न ‘ईमानदारी’। ज्ञान के हाथ में ‘पावर’ आते ही वह राजनीति और पूंजी से जुड़ी उसी ‘बेईमानी’ का पोषक या संरक्षक बन जाता है, जिसके खिलाफ वह लड़ने की मुद्रा में आकर समाज और जनता के बीच प्रतिष्ठित या मान्य होने का प्रयास करता है। ‘श्रम’ को अपने ‘अस्तित्व’ के लिए आज भी ‘जीने के अधिकार’ के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ‘श्रम’ किसी भी ‘मानव समाज’ के विकास के लिए अनिवार्य आधार रहा है, फिर भी उसे अपने ‘अस्तित्व’ को जिंदा रखने के लिए श्रमनिषेध की पावरफुल सोच से लड़ना पड़ता है। वैसे, आम तौर पर पिछड़े समाज में भी विकसित समाजों के श्रमिकों की तरह ‘अपने श्रम में’ निहित ‘पावर’ का बोध नहीं है क्योंकि उनकी सामूहिक ‘चेतना’ में ‘आजीविका’, ‘आजादी’ और ‘आनंद’ के बीच के अविभाज्य संबंधों व संतुलन का कोई बोध विकसित नहीं हो पाया है। इसलिए मौका पाते ही वे भी ‘गुलामी’ में अपना वजूद खोजते हैं। वे खुद को जिंदा रखने के लिए समाज या सरकार के प्रभु वर्ग द्वारा उनकी योग्यता या कौशल की जगह उनकी ‘मजबूरी’ के इस्तेमाल किये जाने की रणनीति को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। यह समझते हुए भी कि प्रभु वर्ग उनकी क्षमता का न इस्तेमाल करना चाहता है और न सम्मान देता है - वे ‘पापी पेट’ के लिए यह सब मंजूर करते हैं! और फिर? जहां मौका मिलता है, वहां अपने ‘कर्म’ की उपेक्षा करते हैं। निकम्मा कहलाते हैं। पूंजी व ज्ञान के सामंती व पूंजीवादी लात खाते हुए बातों से न मानने वाले भूत की तरह जिंदा रहने और दारू-शराब में अपनी पीड़ा को डुबाने का जतन करते हैं।