परिवार का आधार प्रेम और परस्पर सहयोग होना चाहिए, निष्ठा और त्याग के नाम पर औरतों के इंसानी वजूद का विसर्जन स्थल नहीं. जीवन अनमोल और सुंदर है. उसे उजाड़ नहीं बनाना है. परिवार, बच्चे और स्त्री-पुरुष के बीच का प्रेम, इनसे दुनिया वंचित न हो, मगर इनकी कीमत औरतों की गरिमा और मानवीयता की हत्या भी न हो.
कई बार ‘आठ मार्च’ मनाते हुए या इस मौके पर कुछ लिखते हुए, एक कर्मकांड और नाहक दुहराव का बोध होता है. मगर समाज में महिलाओं की स्थिति; और महिला के प्रति समाज की धारणा में सकारात्मक व अपेक्षित बदलाव की उम्मीद पूरी न होने पर बार बार वही बातें दुहराना भी जरूरी लगने लगता है.
स्त्री- पुरुष समता का अर्थ है- एक दूसरे की क्षमताओं और सीमाओं को समझते हुए बराबरी का व्यवहार. यह जरूरी नहीं कि स्त्रियां सारे काम पुरुषों की बराबरी से करने लगें. मातृत्व के दायित्वों के कारण स्त्री पुरुष से भिन्न है, मगर कमतर नहीं. दोनों के बीच मूल अंतर तो प्रजनन अंगों की भिन्नता मात्र है. जैसा कि कमला भसीन ने कहा है- प्रकृति ने बस इतना तय किया कि स्त्री गर्भ धारण करेगी. रोटी भी वही बनायेगी, यह तो इस समाज ने तय कर दिया. हर जीव अपनी प्रजाति की निरंतरता बनाये रखता है, यही जीवन के विकास की प्रक्रिया है. प्रारंभ में अमीवा है, जो अपने शरीर को विखंडित कर नया जीवन पाता है. फिर एक ही शरीर में नर व मादा अंगों की उपस्थिति बनी. विकास क्रम में अधिक विकसित प्रजाति में संतति की निरंतरता के लिए नर-मादा अलग अलग बने. अभी तक के विकास की उच्चतम संरचना मानव है. यहां भी नर और मादा अलग हैं. मगर दोनों मनुष्य हैं. बाद में दोनों की जिम्मेदारियां भिन्न हो गयीं, जो बहुत अस्वाभाविक नहीं है. पर दोनों साथ साथ विकास क्रम में यहां तक पहुंचे हैं. बराबरी की हैसियत से. न कोई पहले बना, न ऊंचा बना. मानव शेष प्राणी जगत से बुद्धि और विवेक के कारण विषिश्ट है, न कि अपने शारीरिक बल के कारण. मानव नर और मादा में सारीविशिष्टताएं साथ साथ विकसित हुईं. और दोनों निरंतर वर्तमान से भविष्य की ओर साथ साथ आगे बढ़ते रहे हैं. मगर जीवन के संघर्ष के साथ पुरुष में सत्ता की पिपासा और सत्ता का मद भी पैदा हुआ. महिला की गर्भधारण की जिम्मेदारियों और विषिश्टता को पुरुष ने उसकी कमजोरी मान लिया और वह पीछे ढकेल दी गई. समाज में उसकी स्थिति दोयम बना दी गयी. तब से आज तक, सदियों से औरत हर क्षेत्र में गैरबराबरी, भेदभाव और अन्याय झेलती रही है. धीरे धीरे समाज में यह धारणा बनती और स्थापित होती गयी कि वह हर स्तर पर पुरुष से निम्न है, कमतर है. और आज स्थिति यह है कि उसकी कोई जाति नहीं, उसका कोई धर्म नहीं, पहचान नहीं, कोई नाम तक नहीं. वह फलाने की बीवी है, फलाने की बेटी है, फलाने की बहू है. उसकी कोई संपत्ति नहीं. और यह भेदभाव पूरी दुनिया में व्याप्त है.
मगर समता का सपना तो अपनी जगह बना रहता है, बना हुआ है. हर इंसान सपने देखता है. खुद को आगे बढ़ाने का, छा जाने का, ज्ञान पाने का. अपनी इच्छाओं को पूरा करने की क्षमता अर्जित करने का. सम्मान पाने का. स्त्री भी सपने देखती है. क्योंकि वह भी इंसान है. मगर पुरुष ने स्त्री को कमतर मान लिया है. यह धारणा इतनी व्यापक और समाज में अंदर तक समायी हुई है कि स्त्रियों का भी अनुकूलन हो गया है और धीरे धीरे उसने भी मान लिया है कि पुरुष श्रेष्ठ है, कि वह कमजोर है, कमतर है, कि यह विधान तो ‘भगवान’ ने ही बनाया है कि उसे पुरुष के अधीन रहना है. और आज की दुनिया सामने है. जहां स्त्री एक अलग जाति बन गई, जो न विचार कर सकती है, न फैसले ले सकती है और न ही सपने देखती है. वह बस पुरुषों के सुख के लिए, उपभोग के लिये पैदा की गई है. वह गरीबों से गरीब है, सवर्ण परिवार में भी शूद्र है, शिक्षित परिवार में भी; और शिक्षित होकर भी मूर्ख है, असहाय है. पुरुष की इच्छा से रानी या दासी है.
मगर औरतों को अपनी यह स्थिति बदलनी ही है. उसे हर हालत में समझना है कि वह भी इंसान है. उसे भी हक है नाम का, पहचान का, संपत्ति रखने का, सपने देखने का और उसे पूरा करने का. दहेज और बलात्कार के खिलाफ उसे आगे आना होगा. विवाह की अनिवार्यता को नकारना होगा. विवाह करेगी, पर अपने सुख के लिए, अपनी मर्जी से, बोझ की तरह नहीं, एकतरफा दायित्व मान कर नहीं. खुद को मिट्टी की हांडी मानने या अपवित्र होने की धारणा को नकारना होगा. बराबरी के लिए स्त्री को पहले खुद को सम्मान देना होगा. वह अपनी कद्र करेगी. अपने जीवन, अपनी इच्छाओं को महत्व देगी. फैसले लेगी और अपने फैसलों को इज्जत देगी. सक्षम बनेगी. समता आधारित समाज की ओर बढ़ने के लिए स्त्रियों को कुछ सुविधाओं के लिए गुलामी का आसान रास्ता छोड़ना होगा; और जीवन संघर्ष में उतरना होगा. श्रम, योग्यता और शिक्षा के साथ समाज में अपनी उपादेयता साबित करनी होगी. बेटियां असहाय और पराश्रित होने के बोझ से मुक्त होकर दोस्ती, खुलेपन और प्रतियोगिता से विकास पायेंगी. बेटे भी मिथ्या उच्चता ग्रंथि से मुक्त होंगे. सभी एक दूसरे के सहयोगी होंगे, मगर स्त्रियों को अपनी जिम्मेदारी खुद उठाने योग्य बनना होगा. अपना, अपने माता-पिता का और बच्चों का भी. तभी तो इन सब पर उनका हक भी होगा.
परिवार का आधार प्रेम और परस्पर सहयोग होना चाहिए, निष्ठा और त्याग के नाम पर औरतों के इंसानी वजूद का विसर्जन स्थल नहीं. जीवन अनमोल और सुंदर है. उसे उजाड़ नहीं बनाना है. परिवार, बच्चे और स्त्री-पुरुष के बीच का प्रेम, इनसे दुनिया वंचित न हो, मगर इनकी कीमत औरतों की गरिमा और मानवीयता की हत्या भी न हो. स्त्री पुरुष समता के लक्ष्य के लिए सबों को कुछ खोना होगा. मगर जो प्राप्त होगा वह असाधारण होगा, अनुपम होगा. तभी हमारा समाज बेहतर और सुंदर बनेगा.