क्रांतियों के इस युग में औरत मुक्ति का संघर्ष भी तेज है. पुरुष प्रधान समाज को यह स्वीकार नहीं है. नारी मुक्ति की बात ने पुरुष को असहिष्णु बना दिया है, क्योंकि उसका नेतृत्व और अधिकार खतरे में है. इस कारण औरत पर पुरुष का हमला तेज हो गया है. हमने पौराणिक आख्यानों से लेकर इतिहास की कथाओं तक में देखा है कि स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली औरतों को क्या मिला. द्रौपदी इसका उदाहरण है जिसको सत्ता का एक पक्ष जूएं में हारता है और दूसरा पक्ष चीर हरण करता है.
हमारी संस्कृति औरत को पूजा की देवी एवं दया की मूर्ति के साथ भोग की वस्तु मानती है. इस संस्कृति से भारत के जन जीवन में यह प्रवृत्ति संस्कार के रूप में जड़ जमा चुकी है कि औरत का अस्तित्व पुरुष का अनुसरण करने में है, न कि पुरुष के बराबर चलने में. पुरुष उसे गुलाम समझता है. हमारे समाज में एक ओर पुरानपंथी हैं तथा दूसरी ओर उपभोक्ता संस्कृति के उपासक. दोनों ही औरत को वस्तु बना कर रखना चाहते हैं. संस्कृत ग्रंथों से उदाहरण चुनने वाले विद्वान तथा अंग्रेजी पढ़ कर अपने को सभ्य समझने वाले आधुनिक शिक्षित, दोनों तरह के लोगों के दृष्टिकोण में औरत के अस्तित्व और अस्मिता के मामले में असहमति की रेखा बेहद धूमिल है. हमारे देश में पंूजीवाद के विकास होने के बावजूद सामंती रिश्ते कायम हैं. हमारा आर्थिक आधार पूंजीवादी है. किंतु सामाजिक ढ़ाचे के मूल्य सामंती हैं. दोनों में ही औरत दोयम दर्जे की नागरिक है. एक तरफ सामंती क्रूरता एवं अत्याचार की बर्बरता का हमला औरत पर जारी है जो हमारी संस्कृति एवं कथित उच्च परंपराओं एवं मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है. दूसरी तरफ आज के उपभोक्तावाद से ग्रस्त आधुनिक संस्कृति में औरत का अपमान और इस्तेमाल नये नये रूपों में प्रगट हो रहा है.
हमारे मीडिया तंत्र का विकास भी औरत के शरीर के प्रदर्शन तथा सेक्स भड़काने पर टिका है. यह नई चीज नहीं है. इसका रिश्ता उन कथित मूल्यों में भी निहित है जिसे हम विरासत के रूप में ढ़ों रहे हैं. यह महज अनावृत्त प्रकृति या इंसानी सौदर्य का दर्शन दिगदर्शन की सीमा संभावना का नहीं, बलिक हमारी सभ्यता और संस्कृति के मूल्यों के खोखलेपन को उजागर करत हैं. सड़क से संसद तक की बहस की सीमाएं हमारी स्पष्ट दृष्टि के अभाव का सूचक हैं. यह अभाव समाज की अनेक बुराईयों और उसमें भी औरत पर होने वाले जुल्मों एवं अन्यायों के जड़ में है. इसे समझे बिना हम नये समाज की रचना के संघर्ष में सफल नहीं हो सकते. औरत की जलालत का मुद्दा संस्कृति की उन मान्यताओं से जुड़ा है, जिसमें कहा गया है कि औरत को छू जाने से मन गंदा होता है तथा शूद्र के छू जाने से तन.
क्रांतियों के इस युग में औरत मुक्ति का संघर्ष भी तेज है. पुरुष प्रधान समाज को यह स्वीकार नहीं है. नारी मुक्ति की बात ने पुरुष को असहिष्णु बना दिया है, क्योंकि उसका नेतृत्व और अधिकार खतरे में है. इस कारण औरत पर पुरुष का हमला तेज हो गया है. हमने पौराणिक आख्यानों से लेकर इतिहास की कथाओं तक में देखा है कि स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली औरतों को क्या मिला. द्रौपदी इसका उदाहरण है जिसको सत्ता का एक पक्ष जूएं में हारता है और दूसरा पक्ष चीर हरण करता है.
आज का पुरुष जुल्म औरत मुक्ति आंदोलन को दबाने के षडयंत्र का एक एक अंग है. समाज औरत को खास नजरों से बेधता रहा है और बेध रहा है. कभी वह देवी बनायी गयी तो कभी ताड़का की संज्ञा दे राक्षसी बनायी गयी. उसे बार बार अपने सतित्व का प्रमाण आग में जल कर देना पड़ा. किंतु पुरुष उसे सर्वदा शक एवं उपेक्षा की दृष्टि से देखता रहा है. वह पुरुष के इज्जत का पैमाना है, भोग का उच्चतम साधन है. क्या हमारा समाज इससे अधिक औरत को कुछ मानने को तैयार है?
लेकिन आज स्थिति बदल रही है और औरत अपनी चेतना औश्र अधिकारों के प्रति सजग हो रही है. खास तौर से दिल्ली गैंग रेप के बाद देश भर में बलात्कार के खिलाफ बुलंद आक्रोश को एक टर्निंग प्वाईट के रूप में देखा जाता है. उस आक्रोश पर राजनीतिक प्रभुओं एवं सत्ता तंत्र की प्रतिक्रिया के साथ-साथ उसी दौश्रान और फिर आज तक देश के विभिन्न राज्यों में जारी बलात्कार की घटनाएं देश की नई पीढ़ी को इतना तो समझा ही चुकी है कि हमें समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना होगा, यानि आज समाज में जो आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक ढ़ाचा है, उसको बदलना होगा. अन्याय, शोषण, दमन और गैर बराबरी को बढ़ाने और टिकाये रखने वाले मूल्यों को बदलना होगा. समाज परिवर्तन की प्रक्रिया तेज होगी तो व्यक्ति पर इसका असर होगा. यानि, समाज बदलेगा तो व्यक्ति बदलेगा लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ, बेईमानी, झूठ, धोखा, अविश्वास की प्रवृत्तियों को खत्म करने के लिए नये प्रयास भी करने होंगे. नैतिक और सांस्कतिक क्रांति छेड़नी होगी. इससे समाज में बुनियादी परिवर्तन की प्रक्रिया तेज होगी. यानि व्यक्ति बदलेगा तो समाज बदलेगा.
लेकिन आज पूरे देश में गूंजती स्त्री आवाज का एक मैसेज खास है, वह यह कि बदलाव के इस संघर्ष में औरत की समान भागिदारी नहीं होगी, तब तक संघर्ष अधूरा रहेगा और इससे होने वाले परिवर्तन भी अधूरे रहेंगे.