असम की मातृ सत्तात्मक समाज जहां सबसे छोटी बेटी को संपत्ति हस्तांतरित होती है, वहां हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, को लागू कर दिया गया. अर्थात बेटियों के साथ बेटों को भी माता की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा. हिमाचल प्रदेश की आदिवासी महिलाएं भी अब इस कानून का लाभ ले पाएँगी. पूरे देश में आदिवासी महिलाएं हिस्सा पाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. कहना कठिन है यह लड़ाई कितनी लंबी चलेगी.
जल,जंगल और जमीन की रक्षा, यह आदिवासियों का पूरे विश्व में प्रसिद्ध नारा है, क्योंकि आदिवासी जिस गहराई से जमीन और जंगलों से जुड़ा हुआ महसूस करता है, शायद ही कोई करता होगा. वास्तव में आदिवासियों की आत्मा ही जंगलों, पहाड़ों और नदियों से जुड़ी हुई है. यही कारण है कि आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन नहीं करते हैं, बल्कि केवल अपनी जरूरत की चीजें ही प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए लेते हैं.
आदिवासियों की जमीन पर सबसे अंतिम हमला अंग्रेजों ने किया, जिसका आदिवासियों ने जोरदार विरोध किया और इस विरोध में उसने अपनी जान की बाजी लगा दी. अंग्रेजों ने देखा कि आदिवासी अपनी जमीन के लिए मर मिटने को तैयार बैठे हैं, इसलिए उसने सीएनटी, एसपीटी एक्ट पास किया, जिसके तहत जमीन का हस्तांतरण गैर आदिवासी में अवैध घोषित कर दिया गया. इसके बावजूद सरकार (चाहे कोई भी सरकार रही हो) खुद समय-समय पर विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन छीनकर पूंजीपतियों को देती आई है. इस बात को आदिवासी अच्छी तरह समझ रहे हैं जिस कारण से वे आंदोलन करते रहते हैं. पूंजीपतियों से अपनी जमीन को बचाने की लड़ाई में आदिवासी महिलाएं भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं, बल्कि आंदोलन का नेतृत्व भी करती हैं.
विरोधाभास तब होता है जब जमीन की लड़ाई में दिन भर हुंकारें भरती आदिवासी महिला अपने घर आती है तो उसे गाहे-बगाहे परिवार के पुरुष एहसास दिला देते हैं कि तुम्हारा इस घर में कुछ नहीं है. लड़की जब तक पिता के घर रहती है तो पिता उससे कहता है कि अपना अधिकार ससुराल में मांगना और जब शादी करके ससुराल जाती है तो वह पूरी तरह से पति के रहमों करम पर रहती है. थोड़ा भी विवाद होने पर उसे एहसास दिला दिया जाता है कि उस घर पर उसका कुछ भी नहीं है.
हालांकि कस्टमरी लॉ के तहत जिसे केवल लड़की संतान होती है उसमें से एक को घर जवाय सिस्टम के तहत जमीन में पिता की संपत्ति प्राप्त होती है. तलाकशुदा, परित्यक्ता या कुंवारी रहने की स्थिति में पिता की जमीन में भरण पोषण लायक कुछ हिस्सा दिया जाता है. लेकिन यह अधिकार भाइयों और गोतिया के रहमों करम पर ही मिल सकता है, उनकी इच्छा के बगैर अगर लड़की हिस्सा लेने की कोशिश करती है तो उसे भारी संघर्ष का सामना करना होता है. कई जगह तो यह देखा गया है कि घर जमाई विवाह ही नहीं करने दिया जाता है. कुछ मामलों में लड़की की हत्या तक कर दी जाती है. यहां आदिवासी औरत की हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो जाती है. ना वह मायके की हो पाती है ना ससुराल की. इस स्थिति में एक औरत का मन कचोटता ही होगा कि जिस जमीन के लिए वह दिकुओं से लड़ने में अपने पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही है उस जमीन में वह केवल एक मेहमान ही है.
जिस स्वाभिमान से एक पुरुष कहता है कि मैं अपने पिता की जमीन पर खड़ा हूं, क्या एक औरत आत्म सम्मान के साथ कह पाती है?
आदिवासी महिलाओं को जमीन पर हिस्सा ना देने के पीछे तथाकथित समाज चिंतकों का पहला तर्क यह है कि आदिवासी समाज या दर्शन सामुदायिक या सामूहिकता पर आधारित है. यहां किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होती सब लोग मिल बांट कर रहते हैं. यह तो अंग्रेज थे जिसने लोगों के नाम पट्टे बांट दिए. इस बात में सच्चाई है. फिर औरतों के नाम भी बराबर पट्टे लिख दिए जाएं तो क्या दिक्कत है?
दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि लड़कियों को अधिकार मिल जाएगा तो दिकु आदिवासी लड़कियों से धड़ाधड़ शादी करने लगेंगे (जबकि ये कानून भी अब बन गया कि गैर आदिवासी के साथ शादी करने करने वाली लड़की आदिवासी की जमीन नही खरीद सकती, न उसके पति को हस्तांतरित होगी. इस हालत में ऐसे तर्क का क्या औचित्य रह जाता है?). इसलिए उनका यह मौलिक हक छीन लिया जाए. यह लगभग वैसी ही बात है कि देश में आपातकाल आ जाय और नागरिकों का मौलिक अधिकार छीन के रखा जाए.
आदिवासियों का शोषण कोई और कर रहा है और उसके एवज में आप अपनी औरतों के अधिकारों को कम करेंगे?
वास्तव में इस तरह अपने समाज की परंपरा, संस्कृति और संपत्ति को बचाने के लिए हिंदू और मुसलमानों में भी यही धारा चल रही है! हिंदुओं ने बाल- विवाह, घूंघट प्रथा, सती प्रथा जैसी प्रथाएं इसलिए चलाई (ऐसा वो तर्क देते हैं कुप्रथाओं के बचाव में) क्योंकि औरतों को आक्रमणकारियों से बचाना था! मुस्लिम समाज भी अपनी औरतों को पर्दे में इसलिए रखने का तर्क देते हैं ताकि कोई गैर मर्द उसे न देखे!
तो क्या आदिवासी औरतें उस दिन तक का इंतजार करेंगीं बराबरी का हक पाने के लिए जब आदिवासी दिकुओं से ज्यादा ताकतवर हो जाएंगे?
यह आपातकाल हट पाएगा क्या?
दुख की बात तो यह है कि हमारे आदिवासी अगुआ, बुद्धिजीवी और नेताओं तक की यही धारणा है! पिछले रघुवर सरकार में बीजेपी के आदिवासी नेता रमेश हासदा ने जम कर संताल महिलाओं के खिलाफ जहर उगला! इसके लिए उनसे एक आदिवासी बच्ची का ही इस्तेमाल (लडकियों के खिलाफ बयान दिलवाया) किया. क्योंकि उनके पास आदिवासी मुद्दे पर बोलने के लिए कुछ था नहीं. उनके बयान से पूरा स्त्री द्वेषी समाज तालियां पिटने लगा. वास्तव में बीजेपी धर्म (सरना ईसाई लडाई), संस्कृति (पूजा- पाठ, लुगु बुरू विवाद) और औरतों (गैर आदिवासी में शादी )में लोगों को उलझा कर पीठ पीछे cnt/spt act में संशोधन करने की योजना में थी.
आदिवासी औरतों का दुर्भाग्य यही है कि आदिवासी पार्टी कहलाने वाली जेएमएम के नेताओं की भी यही मानसिकता है! आर्थात महिलाओं के मामले में सब चोर चोर मौसेरे भाई बन जाते हैं. क्या सरना, क्या ईसाई.
फिर औरतों की आवाज कौन बनेगा?
क्या हम वर्तमान माननीय मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से कुछ उम्मीद कर सकते हैं? अब तक के उनके भाषण में मैंने हमेशा सकारात्मक ही सुना है आदिवासी महिलाओं के लिए. चाहे वो फ्री बस सेवा देने, महिला सुरक्षा और नशा मुक्ति केन्द्र खोलने की बात हो. क्योंकि पुरूषों के नशा से अगर सबसे ज्यादा प्रभावित घर की औरतें ही होतीं हैं.
लोगों को यह मौलिक बात क्यों नहीं समझ में आ रही है कि जमीन आपके लिए जान से प्यारी हो सकती है तो एक औरत के लिए जरूरी क्यों नहीं हो सकती?
असम की मातृ सत्तात्मक समाज जहां सबसे छोटी बेटी को संपत्ति हस्तांतरित होती है, वहां हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, को लागू कर दिया गया. अर्थात बेटियों के साथ बेटों को भी माता की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा. हिमाचल प्रदेश की आदिवासी महिलाएं भी अब इस कानून का लाभ ले पाएँगी. पूरे देश में आदिवासी महिलाएं हिस्सा पाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. कहना कठिन है यह लड़ाई कितनी लंबी चलेगी.