पिछले काफी समय से सरकारों का जोर रहा है कि अधिक से अधिक ग्रामीण और गरीब जनता अधिक से अधिक ऋण ले. पूर्व में सबसीडी भी दी जाती थी. विकास क्रम में उत्तरोत्तर उसे भी समाप्त किया जा रहा है. पर कुछ न कुछ तो लालच जरूरी है. इसीलिए अब सूद में छूट दी जा रही है. यानी व्यवहार में यह अनुदान बैंकों को मिल रहा है. संभव है, बाद में यह भी समाप्त कर दिया जाए. उम्मीद की जाती है कि ऋण से जीवन स्तर उपर उठेगा. पर हमारे प्रधानमंत्री द्वारा जो योजनाएं लायी जा रही हैं, वे सब असल में जनता से पैसा वसूलने की योजनाएं हैं. बड़े पैमाने पर जीवन सुरक्षा की योजनाएं, फिर किसानों के लिए ऋण और अब मुद्रा. विकास की नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है. विकसित गांव, यानी जहां ज्यादा से ज्यादा लोग ऋणी हों! किसान, युवा और महिलाएं -सभी. फिलहाल हम महिलाओं की ही बात करें. हमने स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) का क्रमिक विकास देखा है. उनके माध्यम से स्त्रियों के सशक्तीकरण की योजना बनायी जा रही है. पहले स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के तहत 40-50 समूहों को ऋण दिया जाता था. अब गांव के सभी समूहों को ‘ऋण मंडित’ करने की योजना है. विकास शायद इसी को कहते हैं. षुरू षुरू में महिलाओं को सषक्त बनाने के लिए स्वयं सहायता समूहों की कल्पना की गई. सोच यह था कि महिलाएं समूह बना कर छोटी छोटी बचत करें. उन्हें बैंकों में जमा करें. जरूरत पड़ने पर उसे निकाल सकें, ताकि उन्हें महाजनों पर निर्भर नहीं रहना पड़े. माना गया कि पैसा हाथ से बाहर बैंक में रहने पर पति द्वारा जबरन ले लेने या फिजूलखर्ची का डर नहीं रहेगा और आवष्यकता पड़ने पर उन्हें पैसा मिल भी जाएगा. आम महिलाएं अपने घरेलू कामों में व्यस्त हैं. उनके पास समय कम है और इच्छा की भी कमी है. हां, पैसा जरूर चाहिए. मगर उसके लिए वे समय देना नहीं चाहतीं. योजना बनाना, समय देना और बुद्धि लगाना उनके लिए जरूरी नहीं. सहज रूप से जीवन जैसे चल रहा है, वैसे ही चलता रहे. वक्त जरूरत के लिए पास में पैसा है, यह बहुत बड़ी राहत है. और वह पैसा भी कोई बोझ नहीं, कोई कर्ज नहीं. अपनी बचत है. यह क्या छोटी बात है? ज्यादातर स्वयं सहायता समूह इसी धारणा के साथ षुरू हुए. कुछ महिलाएं जरूर कुछ खास करने की क्षमता रखती हैं. वे परंपरागत कार्य छोड़ कर कुछ अलग करना चाहती हैं. उन्हें अलग से विषेश ध्यान देकर उनकी रुचि और क्षमता के अनुरूप प्रशिक्षित करने की जरूरत है. इस तरह सही जगह शक्ति लगाने से सफलता मिलेगी. सभी महिलाओं को एक ही तरह से, कहें हांक कर, सशक्त करने की कोशिश बस उन्हें ऋण के लपेटे में डाल देना है. और यही हो रहा है. कई बार यह देखने में आता है कि समूह बैंक से ऋण लिये पैसे को भी बैंक में ही फिक्स कर देता है. इससे कुछ पैसे तो मिल जाते हैं, पर उससे अधिक बैंक को सूद देना पड़ता है. असल कारण या बात है आम महिलाओं का इस मामले में रुचि नहीं लेना. कई समूहों में तो अपना पैसा भी बहुत जमा है. अब अभी के नियमों के अनुसार यह अच्छे समूह की पहचान नहीं है. ऐसे समूह को कई लाभों से वंचित किया जाता है; और समूह आवश्यकता नहीं होने पर भी पैसे निकाल लेता है. कई बार महिलाएं बताती हैं कि उन्हें जमा पैसा निकालने की जरूरत नहीं पड़ी है, पर उन्हें समझाया जाता है कि पैसे के लेन देन से ही वे ‘योग्य’ बनेंगी. आखिर हम जिस समाज में रहते हैं, वहां क्या सभी व्यक्ति व्यवसाय करने की रुचि रखते हैं? हम सभी अपनी दैनंदिन जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं. अगर कुछ समय बचता भी है तो उसे किसी उपार्जन के काम में ही लगा दें, यह जरूरी तो नहीं. आम कृषक परिवार की औरत कठिन जीवन जीती है. उसे आराम करने का वक्त नहीं मिलता, जो मिलना ही चाहिए. अब हमारे बीच की सारी औरतें बैंकों से लोन लेने के लिए, या व्यवसाय के लिए इच्छुक हों, यह जरुरी नहीं, तो एक गांव की सभी औरतें इसके लिए तैयार होंगी, इसे मान कर क्यों चला जाना चाहिए. क्यों गांव के सभी घरों को एक जैसे नियमबद्ध समूहों में बांधा जाए. ज्यादातर समूहों को सही तरीके से पैसे की बचत करना और उसका हिसाब रखना आना चाहिए. उनके बीच विष्वास हो, आश्यकता पड़ने पर वे अपनी समस्याओं के लिए एकजुट हो सकें, एक दूसरे की मदद कर सकें और सामाजिक जीवन में हाथ बटा सकें, यह स्वयं सहायता समूहों का उद्येश्य बनाना होगा. हमने अपने आसपास बचपन से यही सुना है कि ऋणग्रस्त होना अच्छा नहीं. जहां तक हो सके, अपने साधनों से काम चलाना चाहिए. कहा भी गया है- ‘चादर जितनी लंबी हो, पांव उतना ही पसारना चाहिए.’ कर्ज से बचने की सलाह पर चलने वाला समाज आज इ.एम.आई. पर चल रहा है. कार, घर, स्मार्टफोन, पर्यटन सभी के लिए कर्ज का लालच दिया जा रहा है. बस खरीददारी करते रहें. बाजार जाने का मन न हो, तो घर बैठे करें. पैसा न हो तो कर्ज लेकर खर्च करें. हमारी व्यवस्था बचत की रुझान रखने वाली व उधार से भागने वाली रही है. फिर यह कैसी बयार चल रही है कि अगर हम कर्ज नहीं ले रहे हैं, तो विकास विरोधी हैं. अगर हम कर्ज नहीं ले रहे हैं तो अच्छे समूह नहीं हैं और तरक्की की दौड़ में पीछे छूट जाएंगे. देश कर्ज में डूबा रहे. शहरी जीवन कर्ज ले लेकर उपभोक्तावाद की दौड़ लगाता रहे. और हम आधुनिक कहलाएं. ‘विकसित’ कहलाएं. जरूरी है कि अधिकाधिक कर्ज लेकर विकास करने की इस नीति पर पुनः विचार करें और कर्ज को आधुनिकता का पैमाना नहीं बनायें. हाल ही में हमने देखा, काला धन समाप्त करने या नकली नोट के धंधे को बंद करने के नाम पर हमें अपनी छोटी छोटी बचत को बैंक में रखने को मजबूर किया गया; और गाहे बगाहे बड़ी जरूरत के लिए की जाने वाली बचत को काला धन बता दिया गया. वक्त जरूरत कर्ज लेना गलत नहीं है. जिनमें क्षमता और रुचि है, वे कर्ज लेकर व्यवसाय करें, इसमें भी कुछ गलत नहीं. लेकिन कर्जखोरी को महिमामंडित करना और आम लोगों, खास कर औरतों को कर्ज लेने को प्रेरित और विवश करने की सरकार की इस नीति से महिलाएं सशक्त या आत्मनिर्भर नहीं हो सकतीं, उल्टे वे परेषान हो रहीे हैं. नोबेल षांति पुरश्कार से सम्मानित बांग्लादेष के मो. युनुस ने 1976 में एक मिशन के रूप में माइक्रो फाइनांस की शुरुआत की थी. इसके पीछे धारणा यह थी, जो वास्तविकता भी है, कि गरीब अपना ऋण लौटाते हैं. और पाया गया कि माइक्रो फाइनांस की वसूली 95 प्रतिषत रही. इससे एक नयी राह खुली. कम और अनियमित आय वर्ग के इच्छुक लोगों के लिए यह उपयोगी थी. मगर गरीबी से लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं. इसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य की योजनाओं को भी निरंतर पैना बनाना होगा. मगर अब इससे हाथ खींचने की कोषिष हो रही है. देष के लाखों समूहों को माइक्रो फाइनांस के तहत लाया गया है. सबसीडी खत्म करने के बाद अब ऋण देने की होड़ है. सरकारों का दबाव है. बैंकों को ज्यादा लक्ष्य दिये जा रहे हैं. बहुत बड़ी आबादी को दायरे में लाने के कारण ऋण का कारोबार बड़ा बन गया है. इसी होड़ में ज्यादा लोन लेने को प्रेरित किया जाता है. एक ऋण लौटते ही और अधिक ऋण का प्रलोभन दिया जाता है. न भी लौटे तो अधिक ऋण देकर उसी से पहले की राषि काटने का प्रस्ताव. फिर कर्ज की वसूली षुरू होती है. इस तरह गरीब परिवार बेवजह, बल्कि सरकार की त्रुटिपूर्ण योजना और लोभ के कारण, कर्ज के जाल में फंस रहे हैं. दरअसल सभी व्यक्ति/महिला उद्यमी हो सकते हैं, यह धारणा ही गलत है. कुछ लोगों में ही यह खूबी या क्षमता होती है. स्थिति यह है कि शायद ही लिये गये कर्जों का उपयोग घोषित उद्येश्य के लिए किया जाता है. समूह अगर ऋण ले रहा है तो समूह की एक दो महिलाएं ही उसका फायदा लेती हैं, बाकी बस शामिल हैं. ऐसे में सबों का गरीबी से तो बाहर निकलना संभव नहीं. हां, सभी लोनी अवष्य हो रही हैं. महिलाओं को सषक्त बनना होगा. महिला सशक्तीकरण की सरकारी परिभाषा से अलग. अपने और अपने समाज के चारो तरफ हो रहे अन्याय के खिलाफ बोलना और लड़ना होगा, तभी औरतें सषक्त होंगी. आर्थिक गैरबराबरी को समझना आसान है, मगर सामाजिक गैर बराबरी को भी समझना है. अपने साथ साथ हर स्त्री के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठानी है. हां, स्त्रियों की एकमात्र ताकत एकजुटता ही है; और हां, स्त्रियों के सशक्तीकरण का अर्थ उनमें अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ने की समझ और ताकत विकसित होना है.