हर युग में स्त्रियाँ पुरुषों के आपसी झगड़ों में बलि चढ़ती आ रही हैं. चाहे युद्ध दो राज्यों में हो या दो समुदायों में हो, महिलाओं को हिंसा का शिकार बनाकर बदला लिया जाता रहा है. इस अत्याचार से महिलाओं को बचाने में शासन- प्रशासन हमेशा से असफल रहा है.
मणिपुर में मैताई समुदाय को जन जाति का दर्जी देने की सिफारिश वहां के हाइकोर्ट ने सरकार से की तो वहां के कुकी जनजातीय समुदाय आन्दोलन करने लगे और धीरे- धीरे इसने उग्र रूप धारण कर लिया. दोनों समुदायों में हिंसक झड़पें होने और अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. हजारो बेघर हो गये और अन्त में यह टकराव औरतों से बदला लेने का रुप धारण कर लिया.
हिंसक झगडों में वहाँ की आदिवासी महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार होना पड रहा है. औरतों के साथ इस तरह की हिंसा मई के तीन तारीख को दोनों समुदायों के झड़पों के साथ ही शुरु हो गई. हिंसा के पचहत्तर दिनों के बाद उन शुरुआती दिनों में महिलाओं के साथ हुए उत्पीडन का वीडियो जब हाल में वायरल हुआ, तब पुलिस दोषियों को पकड़ने की तत्परता दिखाने लगी.
जुलाई के अठारह तारीख को जब दो महिलाओं को नग्न कर घुमाये जाने का वीडियो वायरल हुआ तो प्रधान मंत्री सहित केद्रीय मंत्रियों तथा मणिपुर के मुख्यमंत्री के बयान आने शुरु हुए. तब तक इनमें से किसी को इसे घटना की जानकारी नहीं थी. और जानकारी हुई तो प्रधानमंत्री राजनीति करने लगे. कह डाला कि मणिपुर हो या राजस्थान जहां कहीं भी महिलाओं के साथ अत्याचार होता है तो सरकार चुप नहीं रहेगी. दोषियों को कड़ी से कडी सजा मिलेगी.
यहां पर एक बात ध्यान देने की है कि मणिपुर तथा राजस्थान में महिलाओं के साथ हुए यौन हिंसा में अन्तर है. मणिपुर में आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों के झगडे में बदला लेने के लिए आदिवासी महिलाओं के साथ हिंसा की गई. महिलाओं के साथ छेडछाड, बलात्कार तथा उन्हें मार देने की घटनाएं तो अमूमन हरेक राज्य की घटना हो गई है. बलात्कारी को मृत्यु दंड का कानून बनाकर ही सरकार ने सोच लिया कि बलात्कार की घटनाएं कम हो जायेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रायः हर दिन अखबार में बलात्कार की घटनाएं खबर बनती ही हैं. लेकिन दो समुदायों, दो जातियों या दो धार्मिक गुटों में हुए झडपो में अक्सर देखा गया है कि दोनो तरफ की स्त्रियों के साथ यौन हिंसा कर उसका बदला लिया जाता है. इस तरह के अत्याचार बहुधा भारी भीड के बीच होता है. ऐसी घटनाओं का भी संज्ञान प्रशासन नहीं लेती है तो यह उसकी संवेदनहीनता ही है.
मणिपुर में तीन आदिवासी महिलाओं को गैर आदिवासी लोगों के भीड ने जब कपडे उतारने के लिए कहा तो एक महिला किसी तरह वहाँ से बच निकली, लेकिन दो महिलाए उनका शिकार बनी. इक्कीस साल की युवती का तो सामूहिक बलात्कार भी हुआ. उसको बचाने के लिए आगे बढ़े उसके पिता तथा भाई को मार दिया गया. घटना चार मई की थी. उन स्त्रियों के गाँव के प्रधान ने इस घटना का एफआईआर 18 मई को करवाया. लेकिन यह एफआईआर जीरो एफआईआर कहलाया, क्योंकि यह थाना उस स्थान का नहीं था जहा इन महिलाओं के साथ हिंसा हुई थी. इस एफआईआर को असली थाने तक पहुंचने में एक महीने का समय लगा. यानि 19 जून को यह वहाँ पहुंचा. उसके बाद भी इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. लगभग घटना के पचहत्तर दिनों के बाद पीडित महिलाओं का वीडियो वायरल हुआ तो पुलिस हरकत में आई.
इस बीच न तो मणिपुर में जातीय हिंसा का अन्त हुआ, न बडे पदाधिकारियों का मणिपुर हिंसा के समाधान के लिए बैठके बन्द हुई. 27 मई को सेना प्रमुख मणिपुर की सुरक्षा व्यवस्था की जानकारी लेने मणिपुर जाते हैं. 29 मई को गृहमंत्री चार दिन की यात्रा पर मणिपुर जाते हैं और वहां की सुरक्षा व्यवस्था से संबंधित सभी विभागों से मिलकर इसकी समीक्षा करते हैं. उस समय भी उक्त घटना को पुलिस उनके के सामने नहीं लाती है. जून 4 को केन्द्रीय सरकार ने असम हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग का घटन कर मणिपुर हिंसा की जाच पड़ताल करने को कहा.
10 जून को असम के मुख्यमंत्री मणिपुर का दौरा कर मणिपुर के मुख्यमंत्री तथा दूसरे अधिकारियों से भेंट कर स्थित जायजा लेते है.
जून 24 को गृहमंत्री अमित शाह इसी संबंध में सर्वदलीय बैठक करते हैं . 26 जून को प्रधानमत्री भी अमितशाह तथा कुछ उच्च अधिकारियों के साथ बैठक करते हैं जिसमें वित्त मंत्री तथा पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिह पुरी भी उपस्थित थे.
इतने सारे बैठको, वार्ताओं तथा समीक्षाओं के बावजूद भी औरतों के साथ हुए इस अत्याचार पर किसी का ध्यान नही गया. इसे भी सामान्य हिंसा मान कर पुलिस चुप्पी लगा गई.
जब मणिपुर के मुख्यमंत्री से इस घटना को लेकर हुई देरी के के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब था कि पुलिस के पास 6000 से भी अधिक एफआईआर थे. इसलिए उनके पास इस घटना की जाँच का समय नहीं था. पुलिस के आला अधिकारियों से इस देरी का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था कि उनके पास इस घटना का कोई सबूत नहीं था. इसलिए वे इस पर त्वरित कार्रवाई नहीं कर सके.
जबकि इक्कीस वर्षीया पीडिता का बयान था कि उनके गाँव को जब जलाया जा रहा था, तब पुलिस तीन महिलाओं और दो पुरुषों को बचा कर लाई और तीन किलो मीटर की दूरी पर एक भीड के पास उन्हें छोड गई. महिलाओं के साथ हुई हिंसा के समय वहां पुलिस भी थी.
पूरे घटनाक्रम पर नजर डालें तो यही समझ बनती है कि इक्कीसवीं सदी में भी महिलाओं को लेकर पुरुष समाज के नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया है. अभी भी महिला को पुरुष की संपत्ति समझा जाता है और पुरुष से बदला लेने के लिए स्त्रियों के साथ यौन हिंसा कर उसकी गरिमा को चोट पहुंचाया जाता है.
दूसरी ओर सरकार पुलिस प्रशासन में बैठे लोगों में भी यह समझ नहीं बनी है कि स्त्री की यौन हिसा सामान्य कानून व्यवस्था का प्रश्न नहीं है, बल्कि एक आजाद देश की आधी आबादी के मान सम्मान और गरिमा से जुड़ा प्रश्न है. जिस देश में इस तरह की घटनाएं हों, उस देश को सभ्य तो नहीं ही कहा जा सकता है.