मणिपुर की ताजा घटनाओं से पूरा देश स्तब्ध है. सर्वत्र इसकी निंदा हो रही है. लेकिन भाजपा में शामिल हो चुके आदिवासी नेताओ व जनप्रतिनिधियों की चुप्पी बहुत कुछ बयां करती है. दलीय राजनीति और पार्टी का अनुशासन सभी को पार्टी का गुलाम बना देती है, चाहे वह आदिवासी हो या गैर आदिवासी. वरना मणिपुर में हुई जिन शर्मनाक घटनाओं पर हर कोई मुखर है और अपने-अपने तरीके से विरोध कर रहा है, उस पर भाजपा में शामिल हो चुके आदिवासी नेताओं की चुप्पी बेहद शर्मनाक है.

भाजपा के कुल 31 सांसद हैं. बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जैसे नेता भाजपा की शीर्ष राजनीति में अपनी पुहंच रखते हैं. लेकिन मणिपुर की आदिवासी महिलाओं को नंगा कर सार्वजनिक रूप से उनका परेड कराया गया, उनके साथ बलात्कार हुआ, उनमें से एक पीड़िता खुल कर कह रहीं हैं कि उन्हें भीड़ के हवाले वहां की पुलिस ने किया, बावजूद इसके आदिवासी सांसद खामोश हैं. उनकी बोलती बंद है. और वजह यह कि वे दलीय अनुशासन, पार्टी के व्हिप से डरे हुए हैं. वे इस मामले में पार्टी कर स्टैंड जानते हैं. उनकी हिम्मत नहीं कि वे पार्टी के स्टैंड के खिलाफ कुछ बोलें.

लेकिन बात सिर्फ इस मसले पर पार्टी के रुख का नहीं, उसके कुछ और भी गहरे अर्थ हैं. आदिवासी इलाकों में भाजपा की राजनीति का मूलाधार ईसाई आदिवासी और आदिवाससियों में दूरी बनाना हैं. वे सिद्धांत रूप में यह मानते और कहते हैं कि ईसाई बन चुके आदिवासी अब ईसाई नहीं रहे. वे समय-समय पर यह कहने से भी परहेज नहीं करते कि ईसाई आदिवासियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए. वे धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाने के पक्षधर है. ईसाई आदिवासियों को आदिवासियों के नाम पर मिलने वाला आरक्षण छींन लेने के पक्षधर है. और उनकी पिछले कुछ दशकों से चलने वाली सतत इस राजनीति से आदिवासी और ईसाई बन चुके आदिवासियों के बीच दूरी बढ़ी है. उनका लक्ष्य इस दूरी को और बढ़ाना है.

मणिपुर उनके लिए एक सही जगह बन गयी है. वहां के आदिवासी ईसाई बन चुके हैं. और मैतेई समुदाय, जो आबादी के पचास फीसदी से भी ज्यादा है, का बहा हिस्सा हिंदू है. अलग-अलग धर्म के होते हुए भी वे सदियों से एक साथ रह रहे हैं. लेकिन जैसे-जैसे भाजपा की दखलअंदाजी भारतीय राजनीति में बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे सभी इलाकों में धर्म आधारित इस तरह के मसले उठते जा रहे हैं. अपना जनाधार बढ़ाने के लिए इस तरह के द्वंद्व को, अंतरविरोधों को भाजपा हवा दे रही है. भाजपा की इसी रणनीति का त्रासद हिस्सा बन गया है मणिपुर.

आदिवासी जनता को इस तथ्य को समझना होगा कि महज आदिवासी होना काफी नहीं, वोट डालते वक्त इस बात पर भी गौर करें कि प्रत्याशी किस राजनीतिक दल का है. वरना यही होगा जो मणिपुर में हो रहा है. आदिवासी अस्मिता तार-तार हो रही होगी और आदिवासी राष्ट्रपति व सांसद विधायक मूक दर्शक बने रहेंगे.