झारखंड का सबसे पिछड़ा जिला पाकुड़ है जो साहिबगंज से 1994 में अलग हुआ. जहां औसत साक्षरता दर 48 % है, जिसमें 57 % पुरुष और 40 % महिलाएं साक्षर हैं। पाकुड़ की 92 प्रतिशत जनसंख्या गांव में बसती है, जिसमें संताल आदिवासियों की एक बड़ी जनसंख्या निवास करती है। यहां के आदिवासी मुख्यतः खेती करते हैं।

पाकुड़ में लगभग 400 के आसपास पत्थर के खदान और क्रशर हैं। यह खदान अधिकतर आदिवासियों की जमीन पर हैं, पर इन खदानों के इक्का-दुक्का मालिक ही आदिवासी हैं। जबकि, अधिकतर खदान और क्रशर के मालिक गैर आदिवासी बने हुए हैं, जो लीज पर जमीन लिए रहते हैं. लीज के नियमों के तहत जो प्रतिशत का हिस्सा आदिवासी जमीन मालिक को मिलना चाहिए वह भी नहीं दिया जाता है, क्योंकि पाकुड़ की अधिसंख्य आदिवासी जनसंख्या अशिक्षित है। यहाँ आदिवासी अपनी ही जमीन पर एक मजदूर की तरह खट रहे हैं।

साथ ही यहां तीन कोयला खदान भी है— नार्थ ब्लॉक, सेंट्रल ब्लॉक और साउथ ब्लॉक। वर्तमान में केवल नार्थ ब्लॉक ही चालू है। बाकी दोनों ब्लॉक बंद हैं। कोलगेट घोटाले में नाम आने के बाद 2015 से उन दोनों को बंद किया गया है। इन कोयला खदानों के कारण कई आदिवासी गांव विस्थापित हो गए। इनमें से एक गांव ‘कठलडी’ बसाया गया विस्थापितों के लिए। जिसमें उनके लिए छोटे-छोटे घर कंपनी के द्वारा आदिवासियों से ही बनवाये गये। घर बनाने तक वहां के संतालों को यह भी नहीं पता था कि यह घर उनके लिए ही बनवाया जा रहा है। इस स्थिति में लोगों ने खराब मटेरियल का इस्तेमाल कर जैसे-तैसे बना दिया। घर बन जाने के बाद कंपनी बताती है कि इन घरों में उन्हें ही रहना है। सुनकर सब ने अपना माथा पीट लिया। आज उन सभी के घरों से पानी टपकता है।

मुआवजे की रकम का सही इस्तेमाल अशिक्षा के कारण अधिकतर आदिवासी नहीं कर पाए। अचानक पैसे मिलने के कारण कई लोगों ने बुलेट खरीदा, तो किसी ने ट्रैक्टर खरीदा, यह सोच कर कि इससे कोयले की ढुलाई होगी। लेकिन जब खदानें ही बंद हैं तो सबके ट्रैक्टर पड़े— पड़े सड़ रहे हैं। जब खदान चल रहा था तो खदान में अधिकतर संतालों को चतुर्थ वर्गीय काम दिया गया, क्योंकि अधिकतर संताल अशिक्षित हैं।

झारखंड के बाकी आदिवासियों की तरह पाकुड़ के अधिकतर आदिवासी नशा, गरीबी और अशिक्षा से त्रस्त हैं। छोटी लड़कियों की ट्रैफिकिंग हो जाती है और लड़के पैसे कमाने केरल और गुजरात पलायन कर रहे हैं। नशे के कारण पुरुषों की मृत्यु 30 - 45 की उम्र में ही हो जा रही है और हर गांव में दो चार विधवा महिलाएं मिल ही जाती हैं।

कहना कठिन है कि पाकुड़ के आदिवासियों की हालत इतनी गंभीर होने के बाद भी वहां के स्थानीय आदिवासी नेता शांत क्यों है? हालांकि एक समय में विस्थापितों की समस्याओं को लेकर वहां के स्थानीय नेताओं में से स्वर्गीय विधायक डॉ अनिल मुर्मू तथा वर्तमान विधायक स्टीफन मरांडी जी ने आंदोलन किया था, लेकिन वर्तमान में पाकुड़ के संतालों की स्थिति जस की तस बनी हुई है।

आखिर क्या कारण है कि झारखंड अलग होने के बाद भी आदिवासियों की जमीन पर आदिवासियों के खदानों पर गैर आदिवासी मालिक बन कर बैठें है और अपनी ही जमीन पर आदिवासी नौकर बनने को अभिशप्त हैं?

हमें सवाल करने की जरूरत है अपने आप से कि हम किस प्रकार की आदिवासी राजनीति कर रहे हैं ? आए दिन लोग सोशल मीडिया पर धर्म, संस्कृति पर्व- त्योहार और रोमन लिपि, ऑल चिकि लिपि की लड़ाई में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। क्या यह मुद्दे हमारे लिए आदिवासियों की अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी और नशे से होने वाली मौतों से ज्यादा जरूरी है?

और यह केवल पाकुड़ की बात नहीं है. साहिबगंज में भी एक हजार के आसपास पत्थर खदान हैं जो आदिवासियों की जमीन पर ही है. यही स्थिति झारखंड के सभी जिलों की है. सोचने की जरूरत है आखिर हमारी राजनीति की दिशा और दशा किस ओर जा रही है?