पिछले कुछ दिनों से गोदी मीडिया भारत अमेरिकी रिश्तों को लेकर तूफान मचाये हुए है और लंब्बोलुआब यह कि अमेरिका जैसे शक्तिशाली और धनवान देश के राष्ट्रपति ट्रंप, उनके प्रधानमंत्री मोदी के कितने बड़े मित्र और प्रशंसक हैं. हद तो तब हो गई जब ट्रंप ने भारतीयों को यह बताने की कोशिश की कि मोदी ने भारत को जिस तरह एकजुटता की डोर से बांधा है उसे देखते हुए भारतियों को उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा देना चाहिए. यह अपने आप में राष्ट्रपिता बापू का तो अपमान है ही, करोड़ों भारतीयों का भी अपमान है, इस रूप में कि कोई विदेशी उसे यह बताये कि उसके राष्ट्रपिता कौन बनने लायक हैं.
इस बात में कोई हर्ज नहीं कि भारतीय प्रधान मंत्री मोदी का रुतबा दुनियां में बढ़े. लेकिन हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह वही अमेरिका है जिसने गुजरात दंगे के बाद करीबन दस वर्षों तक मोदी के अमेरिका प्रवेश पर रोक लगा रखी थी. आज भी वह भारत और मोदी के साथ दोस्ती का दम तो भरता है लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक के बाद उसने एक बार फिर कश्मीर के मसले को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की बात दोहराई. ट्रंप ने कहा कि उनसे बेहतर मध्यस्थ कोई और हो ही नहीं सकता. जबकि मोदी बार बार कहते रहे हैं कि कश्मीर का मसला भारत का अंदरुनी मसला है. चर्चा अब पाक अधिकृत कश्मीर पर ही हो सकती है और वह भी पाक के साथ. और इस बातचीत में उसे किसी की मध्यस्थता स्वीकार नहीं.
बावजूद इसके यदि अमेरिकी राष्ट्रपति बार-बार मध्यस्थता की बात करते हैं तो इसका क्या अर्थ लगाया जाये? क्या वास्तव में वे मोदी के मित्र हैं, उनकी भावना का आदर करते हैं? मजेदार तथ्य यह कि अमेरिका शुरु से कश्मीर के मसले पर मध्यस्थता करने के लिए उतावला रहा है. उसने 1948 में पं.नेहरु के समक्ष कश्मीर के मसले पर तीसरे पक्ष की मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा था जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सिरे से खारिज कर दिया था. इसलिए इस बात को बहुत ज्यादा ग्लोरिफाई करने की जरूरत नहीं कि मोदी या गुहमंत्री राजनाथ सिंह ने अमेरिका की मध्यस्थता को अस्वीकार कर दृढ़ता का परिचय दिया है. समझने की जरूरत यह है कि ट्रंप भारत का रुख जान कर भी बार-बार कश्मीर मसले पर मध्यस्थता की बात कर के भारत की महत्ता को स्वीकार कर रहे हैं या उसका उपहास उड़ा रहे हैं.
और यह भी देखने की बात है कि मोदी द्वारा पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश बार बार बताने के बावजूद अमेरिका की नजर में पाकिस्तान या पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान की अहमियत कम नहीं है. ट्रंप दोनों को बराबरी का दर्जा देते हैं. मोदी की पीठ थपथपाते हैं तो इमरान की भी और दोनों को सलाह देते हैं कि अपनी समस्याओं को जल्द से जल्द निपटायें, क्योंकि दोनों आणविक शक्ति से लैश मुल्क हैं और दोनों के बीच युद्ध का होना विनाशकारी होगा. क्या यह बात अमेरिका के समझाने से ही हमारी समझ में आयेगा? और इन सब बातों को कहने का तरीका देखिये. संयुक्त राष्ट्रसंघ की तीन दिवसीय महा सम्मेलन की समाप्ति के बाद रिपोर्टरों को संबोधित करते हुए ट्रंप की शैली तो देखिये जैसे वे दो संप्रभुताप्राप्त देशों के प्रधानमंत्रियों के बारे नहीं, अपने दो लंगोटिया दोस्तों के बारे में बोल रहे हों, वह भी बिग बाॅस की तरह. संवादाताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा — ‘‘आप इन दो महानुभावों को देखें, उन दो देशों का नेतृत्व करने वाले, दोनों मेरे मित्र हैं. मैंने उनसे कहा - ‘फेलास’ इस काम को पूरा करो. बस इस काम को निबटाओ.’’ अंग्रेजी भाषा में प्रयुक्त ‘फेलास’ सहभागी/साथी के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द ‘फेलो’ का भदेस संस्करण माना जाता है.
अमेरिका में मोदी को ग्लोबल गोलकीपर का खिताब दिया गया. यह अवार्ड स्वच्छता की दिशा में बेहतर काम करने के लिए दिया गया. लेकिन स्वच्छता का अर्थ बहिरंग की सफाई या अंदर की भी सफाई? विडंबना यह कि दुनियां के शीर्ष प्रदूषित शहरों की सूची में भारत के अधिकतर शहर आते हैं, चाहे वह दिल्ली हो, कानपुर हो, बंगलोर और कोलकाता हो, पटना हो या इलाहाबाद हो. यदि हमारी तमाम पावन नदियां चाहे वह गंगा हो या यमुना, या फिर दामोदर हो या सुवर्ण रेखा गंदे नाले में तब्दील होते जा रहे हैं, तो स्वच्छता का क्या मतलब? सवाल यह भी उठता है कि भीषण विषमता और विपन्नता के बीच स्वच्छता के मापदंड कैसे पूरे हों? इसका त्रासद उदाहरण है मध्य प्रदेश में खुले में शौंच करते दो दलित बच्चों की हत्या. क्या हम इस तथ्य को नकार सकते हैं कि अभी भी लाखों दलित परिवार ऐसे हैं जिनके पास झोपड़ी तक बनाने के लिए अपनी जमीन नहीं. वे किसी जमींदार की जमीन पर बसे हुए हैं और बासगीत के पर्चे के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
और चंद दिनों की बारिश में ही आप्लावित हो उठे तमाम प्रमुख शहरों के बीच, उस समारोह के फोटो को भाजपा चुनावी पोस्टर की तरह लेकर घूम रही है. जिस दिन मोदी विदेश यात्रा से वापस लौटे, उस दिन दिल्ली के हवाई अड्डे पर आयोजित समारोह में ग्लोबल गोलकीपर अवार्ड का वह पोस्टर लहरा रहा था. दरअसल, राजनीति या विदेश नीति की इन बारीकियों को समझने का माद्दा बुद्धिजीवियों को न हो, ऐसा तो लगता नहीं, मामला सिर्फ इतना है कि तीन राज्यों के चुनाव के मुहाने पर मोदी की प्रतिष्ठा यदि अंतराष्ट्रीय पैमाने पर बढ़ी-चढ़ी दिखे तो उनकी पार्टी के जीत की संभावना बढ़ती है. बेरोजगारी, महंगाई, अर्थ व्यवस्था में आई गिरावट तो भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा नहीं है, चुनावी मुद्दा पाकिस्तान, आतंकवादी खतरा और उसका मुकाबला करते— दिखते मोदी ही हैं.