नरेन्द्र मोदी के शासन काल में संविधान द्वारा प्रदत अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर तीखे हमले हो रहे हैं। खासकर, ‘भीमा कोरेगांव शोर्य दिन प्रेरणा अभियान’ के बैनर तले आयोजित 1 जनवरी, 2018 के ‘विजयोत्सव’ कार्यक्रम के दौरान हुई हिंसक वारदातों से जुड़े मामले में जिस तरह से नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ताओं एवं समाजसेवियों के घरों में पुलिस द्वारा छापे मारे गए एवं उनकी गिरफ्तारियां की गईं, उससे मोदी के नेतृत्व में चल रही केन्द्र सरकार एवं महाराष्ट्र की राज्य सरकार का फासीवादी और दमनकारी चेहरा खुलकर समाने आ जाता है। इसके बाद पुणे के विशेष कोर्ट, महाराष्ट्र हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट ने ‘लोकतन्त्र’, ‘संविधान’ और ‘असहमति की आवाज की रक्षा’ के नाम पर जो कवायद की, उससे उनकी न्यायिक पक्षधरता उजागर हो जाती है।

1 जनवरी, 2018 को जब भीमा कोरेगांव के कार्यक्रम से लोग लौट रहे थे, तो उन पर ‘समस्त हिन्द अघाड़ी’ के नेता मिलिंद एकबोटे और ‘शिव प्रतिष्ठान’ के संस्थापक सभांजी भिड़े के नेतृत्व में हमले किए गए। इन दोनों हमलावरों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज किये गए, लेकिन महराष्ट्र पुलिस ने इनके खिलाफ कोई कारगर कार्रवाई नहीं की। उल्टे, भीमा कोरेगांव कार्यक्रम से सम्बन्धित एक दूसरे एफआईआर के आधार पर 6 जून, 2018 को नागपुर विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभागध्याक्ष प्रो.सोमा सेन, इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीप्लस लॉयर्स के महासचिव एडवोकेट सुरेन्द्र गडलिंग, मराठी पत्रिका विद्रोही के सम्पादक सुधीर धवले, राजनीतिक बंदी रिहाई कमिटी के रोना विल्सन एवं विस्थापन विरोधी कार्यकर्त्ता महेश राउत को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इसके बाद 28 अगस्त, 2018 को पुणे पुलिस ने 7 राज्यों में छापेमारी कर 5 जाने-माने नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों एवं समाजसेवियों को गिरफ्तार कर लिया, जिनमें तेलुगु कवि एवं विरसम के संस्थापक वरवरा राव, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के सलाहकार सम्पादक एवं पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) के वरिष्ठ कार्यकर्ता गौतम नवलखा, पीप्लस यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की महासचिव एवं दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के अतिथि व्याख्याता सुधा भारद्वाज, कमिटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (सीपीडीआर) के कार्यकर्त्ता वरनॉन गोंसाल्विस और इंडियन एसोसियेशन ऑफ पीप्लस लॉयर्स के कार्यकर्त्ता एडवोकेट अरूण फरेरा शामिल हैं। गौतम नवलखा एवं सुधा भारद्वाज को छोड़कर बाकी तीनों को आनन-फानन में जेल भी भेज दिया गया। सभी गिरफ्तार लोगों पर आईपीसी की धाराओं के साथ-साथ यूएपीए की कई संगीन धाराओं को भी लगाया गया। इसके अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामि, दलित चिंतक आनन्द तेलतुम्बड़े, प्रो. सत्यनारायणा, सीपीडीआर के कार्यकर्ता सुजैन अब्राहम, पत्रकार क्रान्ति टेकुला एवं के.वी. कुमारानाथ के ठिकानों पर भी पुलिस छापेमारियां की गईं।

इस गिरफ्तारी के अगले ही दिन रोमिला थापर, प्रभात पटनायक, देविका जैन, सतीश देशपांडे एवं माजा दारूवाला जैसे गण- मान्य बुद्धिजीवियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें गिरफ्तारी को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन मानते हुए पांचों को अविलम्ब रिहा कर देने की अपील की गई। इस याचिका की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यीय बेंच (जिसमें जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ एवं जस्टिस ए एम खानविलकर शामिल थे) ने उक्त पांचों लोगों को पुलिस या जेल की हिरासत में लिए जाने पर रोक लगा दी और उन्हें अपने-अपने घर में ही नजरबंद रखने का आदेश दिया। महाराष्ट्र पुलिस को सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का पालन करना पड़ा।

सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण बेंच ने तीन दिनों की सुनवाई के बाद 28 सितम्बर को फैसला दिया, जो कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्ण बहुमत का फैसला नहीं था। बहुमत के इस फैसले में एस.आई.टी. की मांग को खारिज कर दिया। इस गिरफ्तारी के खिलाफ देश-दुनिया में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ, जिसके दबाव में इसने चार सप्ताह के लिए पुलिस कस्टडी पर रोक लगाते हुए महाराष्ट्र कोर्ट से ‘रिलीफ’ लेने का निर्देश दिया। इसी केस में न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचुड़ ने अपना अलग फैसला देते हुए उक्त पांचों कार्यकर्त्ताओं को भीमा कोरेगांव से सम्बन्धित मुकदमा में फंसाने एवं गिरफ्तार करने की कार्रवाई पर प्रश्न चिह्न खड़ा किया और कहा कि अगर असहमति की आवाज को दबाया जायेगा तो लोकतंत्र ‘ब्लास्ट’ हो जायेगा।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए चार सप्ताह के मोहलत को पुणे पुलिस और सेशन कोर्ट ने मजाक बना दिया। वे केस की सुनवाई को किसी न किसी रूप से टालते रहे, ताकि समयबद्ध मोहलत में ये लोग हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक नहीं जा सकेँ। और अंतिम दिन 26 अक्टूबर को सेशन कोर्ट ने 3 लोगों का बेल खारिज कर दिया। इन लोगों की गिरफ्तारी में हड़बड़ी इतनी थी कि मोहलत का समय पूर्ण होने से कुछ घंटे पहले ही अरूण फरेरा और वरनॉन गोन्साल्विस को गिरफ्तार कर सेशन कोर्ट में पेश किया। उसी दिन रात में पुणे पुलिस सुधा को गिरफ्तार करने के लिए हरियाणा पहुंच गई और 27 को उन्हें सुबह गिरफ्तार कर पुणे सेशन कोर्ट से 6 नवम्बर तक पुलिस रिमांड पर ले लिया गया।

26 अक्तूबर को पुणे ट्रायल कोर्ट, महाराष्ट्र हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में एक साथ न्यायिक ‘ड्रामा’ चला। पुणे कोर्ट ने वरनॉन गोन्सल्विस, सुधा भारद्वाज एवं अरूण फरेरा की जमानत याचिकायें खारिज कीं। मुम्बई हाईकोर्ट ने अरूण फरेरा एवं वरनॉन के हाउस अरेस्ट की अवधि को बढ़ाने की अपील खारिज कर दी। इसी कोर्ट ने फादर स्टेन स्वामि के एफआईआर को रद्द (क्वेश) करने की अपील की सुनवाई को 31 अक्टूबर तक स्थगित कर दिया। इसने गौतम नवलखा एवं आनन्द तेलतुम्बड़े के एफआईआर को रद्द करने की अपील को सुनवाई को भी 1 नवम्बर तक टाल दिया। फिर 1 नवम्बर को इस कोर्ट ने एफआईआर को तो रद्द नहीं किया, लेकिन उनकी गिरफ़्तारी को 21 नवम्बर तक के लिए रोक दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितम्बर के आदेश के खिलाफ दायर किए गए रिव्यू पिटीशन को भी खारिज कर दिया। इसके पहले 25 अक्टूबर को हैदाराबाद हाईकोर्ट ने वरवरा राव के हाऊस आरेस्ट की अवधि को 3 सप्ताह के लिए आगे बढ़ा दिया।

इसबीच संयुक्त राष्ट्र संघ के 11 मानवाधिकार विशेषज्ञों, यूरोपीय संसद के 9 सदस्यों और 80 से अधिक फिलिस्तीन, लैटिन अमेरिका एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के अलावा ह्यून राइट्स वाच, एमनेस्टी इन्टरनेशनल एवं नेटवर्क ऑन नेशनल ह्यूमन राइट्स इन्स्टीट्यूशन जैसे ख्याति प्राप्त मानवाधिकार संगठनों ने इन गिरफ्तारियों का विरोध किया और सभी गिरफ्तार लोगों को तत्काल रिहा करने की मांग की। इसके साथ-साथ देश के सभी हिस्सों में पुणे पुलिस द्वारा की गई इस गिरफ्तारी एवं छापेमारी के खिलाफ विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए गए और किये जा रहे हैं। मोदी सरकार और आर.एस.एस. के लोग पुणे पुलिस की कार्रवाई को उचित ठहराने में लगे हुए हैं और ‘अरबन नक्सल’ करार देकर कुछ अन्य बुद्धिजीवियों एवं समाजसेवियों की गिरफ्तारी की योजना बना रहे हैं। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ को भी लक्षित किया गया है और उनके कार्यालय पर हाल में की गई छापेमारी इसके ज्वलंत सबूत हैं।

आखिर इन समाजमसेवी-बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी क्यों हो रही है? आम धारणा है की मोदी सरकार की देख-रेख में पुणे पुलिस द्वारा की गई छापेमारियां एवं गिरफ्तारियां असहमति की आवाज को दवाने के लिए की गई हैं। ये लोग लागतार अपने लेखन और वक्तव्य से आम जनता के साथ लम्बे समय से खड़े हैं। वे पूंजीवादी लूट के लिए किये जो रहे जनता के दमन पर बोलते-लिखते रहे हैं। खासकर, आदिवासी क्षेत्रों में खनिज-सम्पदा की लूट के लिए चलाये जा रहे सरकारी दमन का इन्होंने पूरे जोर-शोर से विरोध किया है। इन्होंने मजदूरों के मुद्दों को उठाया है। इन्होंने आर.एस.एस. की समाज तोड़क नीति और धर्म के नाम पर की जा रही मॉब लिचिंग का मुखर विरोध किया है। जाति और लव जेहाद के नाम पर हो रहे दमन के खिलाफ समाज को जगाने की कोशिश की है। ये बुद्धिजीवी मोदी सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध और आरएसएस की नफरत की राजनीति का पर्दाफाश करने में लगे हुए थे, जिसके चलते सरकार इनको जेल में ढूंस कर इनका मुंह बंद कराना चाहती है। मोदी सरकार के ये कदम राजसत्ता के फासीवादीकरण को दर्शाते हैं।