खा.. दी. खाना दी. गांधी की खादी वस्त्र स्वावलंबन का प्रतीक है. खेती बाड़ी और रोजमर्रा के काम निबटा कर घंटे दो घंटे रोजाना चरखा चला कर एक व्यक्ति अपने लिए वस्त्र का सूत चरखा से कातता था, कात सकता था और कत सकता है. गांधी की खादी उद्योग नहीं थी. ज्यादा घंटे कात कर अपने लिए भोजन का जुगाड़ कर सकता है, करता था. निलहों की, अंग्रेजों की वस्त्र गुलामी से मुक्ति का एक अहिंसक संघर्ष का कारगर रास्ता भी था. जो कातेगा वह पहनेगा, जो पहनेगा सो कातेगा. इस तरह काटने और खादी पहनने की एक जमात बन गई जिनकी वर्दी खादी बन गयी. खादी पहनने वाला, खादी के लिए चरखा चलाने वाला स्वराज की लड़ाई लड़ने वाला योद्धा था. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद भी इस खादी के गठ्ठर को सर पर रखकर फेरी लगा कर बेचते थे. कालक्रम में राजनीति करने वालों, स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने वालों की पहचान खादी से ही होती थी. बाद में लगभग तमाम दलों ने खादी अपनाया. जनसंघ (आज की भाजपा) और कम्युनिस्टों को खादी से चिढ थी. खदी ग्रामोद्योग पूर्णतः स्वैच्छिक संस्थाएं चलाती थी. आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे संस्थागत रूप देकर खादी ग्रामोद्योग आयोग में तब्दील कर दिया. बहती नदी तालाब बन गयी और सड़ने लगी. लाख टके की सूट पहनने वाले मोदी को चरखे और खादी से कितना प्रेम है, यह उनके चरखे को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है. मोदी ने माना कि सबसे अधिक रोजगार खादी और ग्राम उद्योग में है, लेकिन उनका यह मानना शायद गांधी की जगह अपना फोटो लगाने की रणनीति थी. दोनों गुजराती, दोनों बनिया. गांधी की खादीगिरी से देश आजाद हुआ, मोदी की खादीगिरी से गांधी की जगह मोदी की फोटो छप गयी. गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर जो लोग बना रहे है, उन्होंने गांधी का फोटो हटाकर मोदी की तस्वीर लगा दी. इसमें हैरत क्या है? पिछले 70 सालों में जनसंघियों, कम्युनिस्टों ने गांधी की छवि धूमिल करने के बहुतेरे उपाय किये, लेकिन आसमान पर थूकना …..ना बाबा ना. “दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, सावरमती के संत तू ने कर दिया कमाल. रघुपति राघब राजा राम.” गांधी ने निलहों के अत्याचार से पीड़ित महिला की व्यथा सुनकर इस संकल्प के साथ वस्त्र त्याग दिया की जबतक हर हिन्दुस्तानी के शरीर पर वस्त्र नहीं हो जाता, गांधी आधी धोती ही पहनेंगे. दूसरीओर मोदी ने 40 परसेंट बीपीएल के वस्त्र की चिंता छोड़ लखटकिया सूट पहनकर और गांधी की जगह अपनी तस्वीर लगाकर गांधी की जगह लेने की होड़ में हैं. खुदा खैर करें. खादी कमीशन की खादी कमीशनखोरों और कमीशनखोरी की कमीशन बन गयी हैं. सीबीआई ने छोटानागपुर खादी संस्थान पर जब छापेमारी की थी, तभी खुलासा हो गया था कि गोटी भिड़ाने वाले ही राज्य में खादी कमीशन में चेयरमैन बनते हैं, जिनका काम केवल आका (बनानेवाले) को खुश करना रहता है. गांधी की जगह आका का फोटो छाप कर भी संस्थागत खादी बोर्ड खादी नहीं बनाता, कमीशन बनाता है, कमीशन खाता है और कमीशन पहनता है और कमीशन पहचानता है. अब खादी आयोग की संस्थानों में शायद ही कही खादी बनता है. मधुबनी, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के कुछ संस्थानों में ही खादी बनता है, क्योंकि सूत कताई, बुनाई और धुलाई में जो मजदूरी मिलती है वह मनरेगा और न्यूनतम मजदूरी से भी कम है. क्योंकि सूत वजन पर और बुना गया कपड़ा मीटर पर बिकता है. कतिन और बुनकर मनरेगा मजदूर बन गये. छोटी छोटी दूकानें खोल ली और शहर और कस्बे में जाकर छोटे मोटे रोजगार का जुगाड़ कर लिया. हाई क्वालिटी की खादी जो बाजार में उपलब्ध है, उसकी कीमियागिरी की दास्तान सुनते सुनाते महीनों लग जायेंगे, फिर भी खादी पवित्रता और गांधी की प्रतीक है. गांधी की खादी में श्रम के प्रति सम्मान, श्रमिक के प्रति प्रतिष्ठा, स्वावलंबन और स्वराज –सुराज झलकता है. जैसे एक एक सूत को जोड़कर छोटे मोटे पतले रंगीन सफ़ेद सूत को जोड़कर कपड़ा बनता है, उसी प्रकार गांधी ने हर तबके के लोगों को इस खादी के माध्यम से जोड़ा और आजादी दिलाई. इतिहास बदलने –बिगाड़ने की कोशिश तो चलती ही रहती है और इतिहास अपनी कसौटी पर सबको कसता है.