विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट में ‘इज आॅफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग’ में भारत ने 23 अंको की छलांग लगाई है. इस सूचि में भारत का स्थान 73 वां है, जबकि पिछले साल वह 100 वें स्थान पर और उससे एक वर्ष पहले वह 130 वें स्थान पर था. इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में सरकार और अर्थशास्त्री पेश कर रहे हैं और मोदी की तरीफों के पुल बांध रहे हैं. विश्लेषण का आधार यह कि कोटा-परमिट प्राप्त करने में अब आसानी है, सरकारी महकमों में काम अब पहले से ज्यादा जल्दी हो रहा है, आदि..आदि. लेकिन हमारी नजर में कारोबार की इस तरक्की का रहस्य आदिवासी-दलित जनता की बर्बादी में सन्निहित है. इस तथ्य को समझने के लिए बहुत ज्यादा मशक्कत की जरूरत नहीं. कोई भी सामान्य बुद्धि विवेक से इस बात को समझ सकता है. मोदी देश विदेश की यात्राओं में निवेशकों को लुभाने के लिए जो कहते हैं, उसके ही मर्म को बस समझने और परखने की जरूरत है.
मोदी कहते हैं कि भारत में श्रम दुनिया के सभी देशों से सस्ता है. यहां प्रचूर खनिज संपदा है और हमारी सरकार लाल कारपेट बिछा कर निवेशकों के स्वागत में तत्पर है. अब आईये, इन बातों की सहज बुद्धि से ही पड़ताल करें.
अपने देश में मानवीय श्रम का सस्ता होना सबसे बड़ी सुविधा है. दुनियां के बाजार में हमारा मानवीय श्रम सबसे सस्ता है. विकसित देशों की बात जाने दें, पाकिस्तान, भूटान और नेपाल जैसे देशों की तुलना में हमारे यहां की न्यूनतम मजूरी कम है. इसे आप एक अन्य व्यावहारिक उदाहरण से समझ सकते हैं. अपने यहां से कोई अमेरिका जाता है तो वहां वह घरेलु सेवक अफोर्ड नहीं कर सकता, क्योंकि वहां मानवीय श्रम बहुत मंहगा है. लेकिन यहां अपने देश में घरेलु सेवक, खानसामा, शोफर, धोबी के वगैर किसी का काम ही नहीं चलता. क्योंकि यहां मध्यम वर्गीय परिवार तक अफोर्ड कर सकता है. लेकिन यह कोई गर्व की बात नहीं. सस्ता मानवीय श्रम का व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि आठ घंटा कठोर श्रम करके भी आदमी मानवीय गरिमा के साथ जीवन यापन करने लायक कमाई नहीं कर पाता और दयनीय स्थिति में रहता है.
मोदी के सत्ता में आने के बाद से तमाम तरह के श्रम कानूनों की छुट्टी कर दी गई है. स्थाई प्रकृति, यानी नियमित रूप से होने वाले तमाम काम भी अब अस्थाई श्रमिकों से कराये जाते हैं. सफाई का काम, मेनटेनेंस का काम, निर्माण कार्य, सभी कामों में अब अस्थाई श्रमिक लगाये जाते हैं और उनकी न्यूनतम मजूरी इतनी कम है कि किसी को बताते शर्म आयेगी. नरेगा में न्यूनतम मजूरी सवा दो सौ रुपये प्रति दिन है. खनन जैसे कठिनतम क्षेत्र में लगे मजूर भी आठ -दस हजार रुपये प्रतिमाह से ज्यादा नहीं कमा पाते. चांडिल क्षेत्र में चल रहे स्पंज आईरन कारखानों में चले जाईये, कभी भी छह-आठ हजार रुपये प्रतिमाह से ज्यादा कमाई नहीं. और यदि मजूर संगठित होकर आंदोलन करें तो उनकी क्या गति होगी, इसका दृष्टांत मारुति उद्योग में कुछ वर्ष पहले चले आंदोलन और उसके क्रूरतम दमन ने पेश किया था.
कारोबार में आसानी का एक दूसरा अर्थ है खनिज संपदा की बेहद कम कीमत. कोयला हो या लौह अयस्क, कुछ भी समाप्त हो जाने वाली परिसंपत्ति है. अन्य देश खनिज संपदा को बचा कर रख रहे हैं. मसलन चीन लौह अयस्क के अपने खदान होते हुए भी भारत से लौह अयस्क खरीदता है. लेकिन हम अपनी खनिज संपदा कौड़ियों के मोल बेच रहे हैं. एक बार लौह अयस्क या कोयला का पट्टा हासिल हो जाने के बाद राजस्व या रायल्टी के रूप में एक छोटी सी धनराशि सरकार को देकर कारपोरेट कच्चा माल उठा ले जाता है. इससे वह तो देखते-देखते मालामाल हो जाता है, लेकिन उस इलाके के लोगों के लिए विरूपित जमीन, प्रदूषित हवा और पानी छोड़ जाता है.
किसी भी औद्योगिक प्रतिष्ठान के लिए जमीन मूलभूत जरूरत में आती है. प्लांट स्थापित करने के लिए, आवासीय कालोनी आदि बनाने के लिए. और चूंकि खनिज संपदा आदिवासीबहुल इलाकों में है, इसलिए सारा जोर आदिवासी इलाकों में जमीन लूट पर लगा दिया गया है. आदिवासीबहुल राज्यों-इलाकों में विशेष भूमि कानून बनाये गये थे, ताकि आदिवासियों की जमीन की लूट न हो. लेकिन उन भू कानूनों को लगातार संशोधित कर कमजोर कर दिया गया है. सार्वजनिक उपयोग की तमाम जमीन अब सरकारी कब्जे या कहिये उनके भूमि बैंक में पहुंच गयी हैं और तथाकथित विकास कार्यों के नाम पर किसी की भी जमीन का अधिग्रहण कारपोरेट के लिए सरकार कर सकती है. ग्राम सभा से अनुमति अब महज औपचारिका रह गई है. किसी भी उद्योग के स्थापित होने से पर्यावरण और समाज पर क्या असर पड़ेगा, इसके आकलन के प्रावधान को खत्म कर दिया गया है. आदिवासी जमीन की बर्बर लूट के लिए भाजपा की सरकार क्या-क्या कर रही है, इसका उदाहरण बन गया है गोड्डा और खूंटी.
रही पूंजी, तो कारोबारियों को पूरी सुविधा है कि वे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कर्ज लें और उसे डकार जायें. बैंक से कर्ज लेने के लिए सामान्यतः कारपोरेट उस जमीन को ही बंधक रखता है जो औने-पौने दामों में वह प्राप्त कर लेता है. शेयर बेच कर जनता से ही पैसे वसूलता है. किसी भी निजी कंपनी की कुल पूंजी का अस्सी फीसदी या उससे भी अधिक की धनराशि दरअसल पब्लिक मनी ही होती है. लेकिन मुनाफे का बड़ा हिस्सा निजी कंपनियों का होता है. सार्वजनिक बैंकों का एनपीए - नन परफार्मिंग एसेट- 8.4 ट्रिलियन रुपये के करीब पहुंच गया है. इसका बड़ा हिस्सा वह है जो औद्योगिक घराने लेकर दाबे बैठे हैं. उनके पास सहूलित यह भी है कि अधिक दबाव पड़े तो वे विदेशों में पलायन कर जायें.
परिणाम यह कि हमारे देश के उद्योगपति तो दुनिया के अमीरों में शामिल होते जा रहे हैं, करोड़पतियों की संख्या में तो बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन उसी अनुपात में गरीबी और विषमता बढ़ती जा रही है. एक बड़ी आबादी जीवन के मूलभूत संसधानों से वंचित हो कर अमानवीय परिस्थितियों में रहने और सरकारी राहतों की मोहताज बनती जा रही है. कारोबार में राहत दरअसल लूट की छूट है. और इस लूट की छूट का सबसे ज्यादा खामियाजा आदिवासी-दलित और अन्य बंचित तबका चुका रहा है, क्योंकि चोरी दरअसल उसके श्रम और जल, जंगल, जमीन की हो रही है.