झारखंड जनाधिकार महासभा की पिछले दिनों आयोजित बैठक में यह दिलचस्प तथ्य सामने आया कि दलित वोटर मनुवाद का झंडा ढोने वाली भाजपा की तरफ जा रहे हैं.. महासभा ने हाल में दलित सम्मेलन किया था और उसमें दलित समस्या पर विस्तार से चर्चा हुई थी. अब एक ज्ञापन झारखंड सरकार को देना है. योजना यह भी बनी कि दलित विधायकों से इस काम में मदद ली जाये, लेकिन दिक्कत यह आन पड़ी कि ज्यादातर दलित विधायक भाजपा के हैं और उनसे यदि मदद ली जाये, तो वे राजनीति ज्यादा करेंगे और दलित समस्याओं पर काम कम होगा.
वैसे, यह तथ्य पिछले कई चुनावों से साफ होता गया है कि दलित वोटरों का रुख भाजपा की तरफ है. सिर्फ दलित वोटर ही नहीं, पूरी दलित राजनीति भाजपा के साथ चल रही है. मायावती हों, या बिहार के पासवान या फिर महाराष्ट्र में दलित राजनीति के अगुवा, वे भाजपा के साथ मिल कर राजनीति करने में लगे हैं. सवाल उठता है, ऐसा क्यों है? संघ परिवार और भाजपा मनुवाद की सबसे बड़ी झंडाबदार है. दलित उत्पीड़न की घटनाएं लगातार देश में होती रहती हैं. आर्थिक रूप से सर्वाधिक पिछड़ा तबका दलित ही है. वे इस व्यवस्था में सबसे अधिक सताये लोग हैं. फिर वे यथास्थितिवाद और कारपोरेट पोषक भाजपा के साथ क्यों होते जा रहे हैं?
यह एक आम समझ यह है कि उन्हें धर्म के नाम पर बरगलाया जाता है. राहत योजनाओं के द्वारा बहलाया जाता है. उनमें शिक्षा और जागरुकता की कमी है, इसलिए वे भाजपा के बहकावे में आ जाते हैं. लेकिन क्या ये निष्कर्ष काफी हैं? हमें इस बात के लिए दलितों की समझदारी पर सवालिया निशान लगाने के पहले उन तमाम हालातों पर विचार करना होगा जो इसके लिए लिए जिम्मेदार हैं.
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आर्थिक संपन्नता प्राप्त करते ही पिछड़ा व अन्य समुदायों का आचरण दलितों के प्रति वैसा ही होने लगता है, जैसा सवर्णों का.
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ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में आजादी के बाद निरंतर बदलाव आ रहे हैं. जमीन का बड़ा हिस्सा सवर्ण जातियों के कब्जे में था और मध्य/पिछड़ी जातियों के लोग उनके बड़ाहिल/लठैत/ बटाईदार बन कर काम करते थे. लेकिन सवर्ण जातियां धीरे-धीरे नौकरीपेशा बन गयीं. जमीन पर उनकी पकड़ खत्म होने लगी या ढ़ीली पड़ने लगी और जमीन पर पिछड़ी दबंग जातियों का कब्जा हो गया. और व्यावहारिक रूप से उनका टकराव अपने से निम्न जातियों से होने लगा. दलित जातियां पहले भी भूमिहीन थीं और नये दौर में भी रहीं.
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सबों को याद होगा कि साठ के दशक में बिहार में जो नक्सलवाद उभरा वह सामंती वर्चस्व के खिलाफ तो था ही और एक अन्य प्रमुख मुद्दा न्यूनतम मजदूरी थी. और इस आंदोलन के केंद्र में थे दलित. इस आंदोलन को कुचलने में सत्ता ने तो अहम भूमिका निभाई ही, सामंतों की निजी सेनाओं ने भी, जिनमें सिर्फ अगड़ी जातियों की निजी सेनाएं ही नहीं, अन्य पिछड़ी दबंग जाति की निजी सेनाएं भी शामिल थीं.
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भयानक दमन और कत्लेआम से नक्सल आंदोलन को कुचल दिया गया. भूमिहीन किसानों में बड़ी आबादी आज भी दलितों की ही है, जो खेतिहर मजदूर के रूप न्यूनतम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर हैं.
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मंडलवाद से जिस पिछड़ा राजनीति का उभार हुआ और जिसने राजनीति में अगड़ों के वर्चस्व को काफी हद तक तोड़ा, वह दलितों पर मजबूती से कस गया. देश में अब जब भी खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने की बात होती है तो बंगाल सहित पूरे उत्तर भारत में इसका विरोध होता है. तर्क यह कि खेती तो घाटे का सौदा है ही, यदि मजूरी बढ़ी तो उसका लागत मूल्य और बढ़ जायेगा. आर्थिक मोर्चे के इस टकराव ने पिछड़ा और दलितों को राजनीति में एक होने ही नहीं दिया.
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वर्णवादी व्यवस्था और मनुवाद से तमाम गैर सवर्ण जातियां त्रस्त हैं. लेकिन मान कर चला जाता है कि ब्राह्मणवाद/ मनुवाद के विरोध का जिम्मा मुख्य रूप से दलितों का है, क्योंकि वे सबसे अधिक इससे उत्पीड़ित हैं. जबकि दलित देखता है कि आर्थिक संपन्नता प्राप्त तमाम पिछड़ी अन्य जातियां पूजापाठ, तरह-तरह के कर्मकांड और धार्मिक अनुष्ठानों में संलग्न हो जाता है. नया घर बनते ही कुछ नहीं तो ‘महावीरी झंडा’ लगा लेता है. गृहप्रवेश के वक्त तो ब्राह्मण को बुला कर पूजा-पाठ कराना आम बात है.
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यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दलित उत्पीड़न की घटनाओं में अगड़ों के साथ दबंग पिछड़ी जातियों का भी बराबर हाथ रहता है. इसलिए एक आम दलित की पहली प्राथमिकता सत्ता में भागीदारी और आर्थिक हैसियत प्राप्त करना है. और इसके लिए मनुवादी शक्तियों से हाथ मिलाने में उसे कोई गुरेज नहीं. हालांकि, जब तक देश की सत्ता पर कांग्रेस का वर्चस्व था, वह कांग्रेस के साथ थी.