यह अजीबोगरीब लगता है कि जो लोग दिन रात आदिवासीयत की बाते करते हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए एक अदद टिकट किसी गैर आदिवासी पार्टी की चाहते हैं. वह भी उन राजनीतिक दलों का, जो आदिवासी हितों पर लगातार कुठाराघात करते रहे हैं. जो कारपोरेट के समर्थक हैं, विकास के उस माॅडल के समर्थक हैं जिसने आदिवासी-मूलवासियों को विस्थापन के दंश के सिवा अब तक कुछ नहीं दिया है.

तुर्रा तो यह कि वहां भी उस दल को नहीं चुना जाता जो संघर्ष के दौरान गाहे बगाहे आदिवासी-मूलवासी जमात के साथ खड़े होते हैं, बल्कि उन राजनीतिक दलों को चुना जाता है जिनका मूल चरित्र ही आदिवासी विरोधी है. यानी, वे माले या किसी अन्य वाम दल के टिकट पर चुनाव नहीं लड़ना चाहते, उन्हें टिकट चाहिए कांग्रेस या भाजपा. यहां तक कि आप जैसी झारखंड के लिए पूरी तरह बहिरागत पार्टी का. पिछले चुनाव में यह दिखा और अब भी बड़ी संख्या में भाजपा और कांग्रेस का टिकट प्राप्त करने के लिए वे प्रयत्नशील हैं.

यह क्या एक किस्म का पाखंड है या उनकी मजबूरी? जब सबसे बड़ी ग्राम सभा ही है तो फिर वे विधानसभा या लोकसभा में जाने के लिए प्रयत्नशील क्यों हैं?

हम इसे सिर्फ सत्ता की मलाई खाने की ललक के रूप में नहीं देखते. हम मान कर चलते हैं कि उनकी मंशा विधान और लोकसभा में आदिवासी हितों की नुमाइंदगी करने की ही होती है. देश के उन सदनों में आदिवासी हितों के रक्षार्थ खड़े होने के लिए है. लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि सिर्फ आदिवासी मतों से वे चुनाव में जीत नहीं सकते. उन्हें गैर आदिवासी मत भी चाहिए. और यह संभव तभी है जब वे उस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े, जिसका गैर आदिवासी या चलताउ भाषा में ‘दिकु’ या ‘बहिरागतों’ पर प्रभाव है. यानी, उन्हें इतनी समझ है कि सबसे बड़ी ग्राम सभा तो है, लेकिन देश के संसाधनों और सत्ता पर अधिकार विधानसभा और लोकसभा में गये लोगों का है.

उनकी मजबूरी यह भी है कि भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा होने के बावजूद आदिवासी और गैरआदिवासी समाज के बीच के पार्थक्य को अब तक तोड़ा नहीं जा सका है. सामान्यतः एक आदिवासी आदिवासियों के लिए आरक्षित सीट से ही लड़ता है. अपवाद स्वरूप ही झारखंड में यह देखा गया है कि कोई आदिवासी सामान्य सीट से लड़ा हो. एक बार बाबूलाल मरांडी कोडरमा, जो एक सामान्य श्रेणी का संसदीय सीट है, से जीते और लड़े. हो सकता है कुछ और अपवादें भी हो जिसकी जानकारी मुझे नहीं.

दूसरी तरफ यह भी ट्रेंड है कि आदिवासी वोटर सामान्यतः किसी आदिवासी प्रत्याशी को ही वोट देगा. किसी गैर आदिवासी प्रत्याशी को नहीं. वह इस बात पर कम ही गौर करता है कि उसका आदिवासी प्रत्याशी किस राजनीतिक दल से खड़ा है. दूसरी तरफ गैर आदिवासी भी किसी आदिवासी प्रत्याशी को वोट देनें में हिचकिचाता है. कोई भी राजनीतिक दल धनबाद, हजारीबाग, टाटा जैसे शहरी क्षेत्र से किसी आदिवासी को खड़ा करने का जोखम नहीं ले सकता. हमारा लोकतंत्र परिपक्व होने के पहले ही जातीय समीकरणों में उलझ कर रह गया है.

इन राजनीतिक परिस्थितियों में जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ने वाले योद्धा भी फंस कर रह गये हैं. इससे निजात पाने का तरीका तो यही होगा कि वे आदिवासीयत की बात तो अपनी पहचान और जनधार के लिए जरूर करें, लेकिन जेहन में वंचित जमात की एकजुटता बनाने के लिए निश्चित रूप से प्रयत्नशील रहें. जल, जंगल, जमीन को बचाने और आमजन के सवालों को लेकर आंदोलन-संघर्ष तीव्र करना होगा. इसी से रास्ता निकलेगा और झारखंडियों की अपनी पार्टी भी. क्योंकि कांग्रेस या भाजपा जैसे दलों के माध्यम से संसद या विधानसभा में पहुंच कर आप आदिवासी हितों के योद्धा नहीं रह जायेंगे. झारखंड के राजनीतिक इतिहास ने इसे बार बार साबित किया है.