अमित टोपनों चले गये. उनका अंतिम संस्कार, शोक प्रदर्शन, स्मृति सभा भी हो गई. लेकिन उनकी मौत के पीछे रह गये कई अनुत्तरित सवाल, जिसका हल ईमानदारी से हमें निकालने की कोशिश करनी चाहिए.
पहला तो सवाल यही कि उनके हत्यारे कौन हैं? उनकी हत्या का मकशद क्या है? इसके बारे में आम धारणा है कि चूंकि वे मुफस्सिल पत्रकार थे, ग्रामीण इलाके में जमीन से जुड़ कर काम करने वाले पत्रकार, इसलिए उन्हें वह सुरक्षा प्राप्त नहीं थी जो शहरों के सुरक्षित वातावरण में काम करने वाले पत्रकारों को प्राप्त थी. इसके अलावा पेशागत ईमानदारी की वजह से वे सीधे सत्ता से टकरा गये. खूंटी और पत्थरगड़ी आंदोलन भाजपा सरकार के लिए, एक चुनौती और प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है. वहां के ग्रामीण इलाके में स्थाई पुलिस कैंप बना लेना झारखंड सरकार के लिए उतना ही प्रतिष्ठा का विषय बन गया है जितना अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण. इसके लिए उस क्षेत्र की जनता का बर्बर दमन हुआ, उस आंदोलन को समर्थन देने वाले लोगों पर देशद्रोह का मकदमा हुआ, और शायद उसी क्रम में यह हत्या भी. यह सर्वविदित है कि अमित पत्थरगड़ी आंदोलन से जुड़ी घटनाओं पर बारीकी से काम करते रहे थे. अमित अत्यंत साधारण परिवार के एक सामान्य आदिवासी युवक थे. इसलिए किसी तरह की धन संपत्ति को लेकर उनकी हत्या हुई या किसी से दुश्मनी की वजह से यह हत्या हुई, इस पर यकीन करना मुश्किल होता है. इन सब तथ्यों का खुलासा एक निष्पक्ष जांच से ही हो सकता है.
यह सवाल भी उनकी हत्या के बाद उठा कि आखिरकार किस मजबूरी की वजह से अमित को पत्रकारिता छोड़ वाहन चलाना पड़ा? फिर वही सब बातें कि मुख्यधारा की मीडिया में आदिवासियों के लिए जगह नहीं. यह कोई नई बात नहीं. इस पर कई तरह के शोध और सर्वेक्षण हो चुके हैं. सिर्फ रांची की मीडिया में नहीं, राष्ट्रीय मीडिया में आदिवासी, दलित व मलिाओं के लिए काम करने का अवसर नहीं. इसकी एक वजह तो यह कि मीडिया का मूल चरित्र दलित, आदिवासी और महिला विरोधी है और झारखंड में कारपोरेट पोषित मीडिया तो आदिवासी विरोधी है ही. इसपर बहुत बार चर्चा हो चुकी है. इसलिए वहां आदिवासियों को जगह नहीं मिलेगी.
एक और वजह है. हिंदी मीडिया में पत्रकारों की दयनीय स्थिति होती है. वेतन रोल पर गिनती के लोग काम करते हैं. और जोकरते हैं, उनका एक जातीय आधार, संपर्क आदि या फिर एक खास तरह की प्रकृति होती है. पूरी मुफस्सिल पत्रकारिता विज्ञापन वसूली से चलती है. अपने इलाके में विज्ञापन वसूलों, उसके एक हिस्से से अपनी पारिश्रमिक लो और शेष राशि प्रबंधन को पहुंचाओ. अब गैर आदिवासी पत्रकार तो मरता न करता वाली स्थिति में यह सब कर गुजरता है और उसमें थोड़ी हुनर भी होती है कि वह अपने जीने खाने लायक अपने इलाके से वसूल ले, लेकिन आदिवासी पढ़ा लिखा युवा भी यह नही ंकर पाता. एक तो विज्ञापन दाताओं में उसका प्रवेश नहीं, दूसरे अपने स्वभाव से भी वह यह काम नही ंकर पाता. इसलिए मीडिया में उसे जगह नहीं मिल पाती.
जवाब एक समानांतर मीडिया, देशज मीडिया ही है. लेकिन यह बेहद मुश्किल. इसलिए मुख्यधारा की मीडिया को दिन रात गलियाने और कोसने के बावजूद हमारी निर्भरता उसी पर ही है और उसमें पर्व त्योहारों में कुछ लिख कर, छप कर संतोष पाते हैं. लेकिन उसकी एक स्पष्ट सीमा है. वह लेखन वहीं तक क्षम्य है जो अभिजात हितों से न टकराये. आप संस्कृति की बात कर लीजिये. कविता और साहित्य की बात कर लीजिये. समता की बात कर लीजिये. गरीबी का रोना भी रो लीजिये लेकिन किसी बुनियादी सवाल पर लिखने की गुंजाईश आपके लिए वहां नहीं है.
हमारे आदिवासी साथियों में बहुत सारे प्रबुद्ध हैं, गंभीर लेखन करते हैं, लेकिन वे पत्रकारिता पर जीवित नहीं. वे जीवन यापन के लिए एनजीओ से जुड़ कर काम करते हैं या फिर किसी न किसी तरह के प्रोजेक्ट आदि से जुड़ कर लेखन को जिंदा किये हुए हैं. और जो यह नही ंकर पाते वे अमित की तरह बिना किसी कुंठा के वाहन चलाने लगते हैं, लेकिन व्यवस्था से समझौता नहीं करते. उनके पास जितनी जानकारियां थी, उसे कैश कर वे अन्य पत्रकारों की तरह शान से रह सकते थे. लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया. इसलिए टूटे फूटे घर में रहने वाले पांच भाई बहनों में से एक अमित को हम एक बार फिर सलाम करते हैं.