समय, समय सामपेक्ष राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति तेजी से बदल रही है. देश के शीर्ष पद पद पर आज एक आदिवासी- द्रौपदी मुर्मू बिराजमान है. भाजपा जैसी पार्टी भी आदिवासी वोट के लिए छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने के लिए मजबूर हुई है. झारखंड में बाबूलाल मरांडी उसके सिपहसालार हैं. बावजूद इसके यह सवाल मौजू है कि क्या आदिवासियों के प्रति गैर आदिवासी समाज का नजरिया पहले से बदला है? इस सवाल का जवाब तलाशें तो स्थिति बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं. उनकी नजर में आदिवासी आज भी निष्कपट, भोला और निरीह प्राणी है जिसे संरक्षण की जरूरत है. और यदि उन्हें संरक्षण न मिले तो वे मिट जायेंगे. विडंबना यह कि यह चिंता उस समाज की है जो आदिवासियों के सांस्कृतिक और आर्थिक विस्थापन के लिए मूल रूप से जिम्मेदार है.

यहां गौरतलब है कि आदिवासी आबादी देश की कुल आबादी का अधिकतम दस फीसदी है. यानी, उसकी आबादी का अनुपात दलितों और मुसलमानों से कम है. उसके बावजूद भारतीय राजनीति में उसका हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है. अपने अस्तित्व के लिए सदियों से चलने वाला उसका संघर्ष हो या अंग्रेजी दासता के खिलाफ उसका संघर्ष, अत्यंत गौरवशाली रहा है. अपने जीवन मूल्य, अपनी भाषा और संस्कृति व जल, जंगल, जमीन के लिए उसका संघर्ष बेमिशाल रहा है. उसके बावजूद यह सोचना कि यदि उसे संरक्षण नहीं दिया जाये, उसको बचाने का दायित्व गैर आदिवासी समाज न निभाये तो वह मिट जायेगा, आपको विरोधाभासी नहीं लगता? इस संदर्भ में अंबेदकर को याद करना प्रासांगिक होगा जो मानते थे कि आदिवासी असभ्य और जंगली हैं और उसे सुसभ्य बनाने की जिम्मेदारी हिंदू समाज की ही है, जिसने अब तक इसे ठीक से नहीं निभाई!

त्रासद यह कि अभी भी प्रबुद्ध और आदिवासियों के प्रति सदाशयता से सोचने वाला गैर आदिवासी समाज आदिवासियों के बारे में इसी नजरिये से सोचता है. पिछले दिनों वल्र्ड सोशल फोरम, झारखंड, के अवसर पर कुछ किताबों पर परिचर्चा थी. उसमें एक महत्वपूर्ण किताब आदिवासियों के कस्टम पर था. किताब का नाम ‘ कस्टम एंड इट्स यूजेज’, जिसके लेखक हैं डा. जेपी गुप्ता. लेखक की राय में कानूनविद् इस बात को तय करने में बहुधा दुविधाग्रस्त हो जाते हैं कि किसे आदिवासी माना जाये और किसे नहीं. उस वक्त आदिवासियों की रूढ़ियों और कस्टमों पर केंद्रित यह पुस्तक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है. दर्शकदीर्धा और मंच पर बैठे लेखकों बुद्धिजीवियों को भी इस हिसाब से यह किताब महत्वपूर्ण लगी. मुझे भी पहली नजर में ऐसा ही लगा. लेकिन मुझे यह सवाल बेचैन करता रहा कि आदिवासियों को यह प्रमाण देने की जरूरत क्यों है कि वे आदिवासी हैं? और आखिरकार मैंने लेखक महोदय से यह सवाल पूछ ही लिया.

मैंने उनसे पूछा कि किसी हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई से तो सामान्यतः इस तरह का प्रमाण नहीं मांगा जाता कि वह समुदाय विशेष में होने का प्रमाण दे, फिर आदिवासी से ही यह प्रमाण क्यों मांगा जाता है कि वह प्रमाण दे कि वह आदिवासी है? सवाल यह भी उठता है कि कौन आदिवासी है और उसे एसटी सूची में रखा जाय या नहीं, इस पर निर्णय लेने का अधिकार सत्ता या सरकार के पास क्यों होना चाहिए? इन दोनों सवालों पर कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला. जो मिला, वह यह कि आदिवासी समाज को आज भी संरक्षण की जरूरत है. यदि ऐसा न हो तो आदिवासियों का अस्तित्व मिट जायेगा. और मूलतः यह जिम्मेदारी उन लोगों पर है जो आदिवासी समाज को ठीक से नहीं जानते, जिसमें न्यायिक प्रक्रिया में शामिल लोग भी आते हैं. इस लिहाज से आदिवासियों के कस्टमरी कानूनों को जानना बहुत जरूरी है. तभी आप फैसला ले पायेंगे कि कोई आदिवासी है या नहीं और उसे एसटी सूची में शामिल किया जाये या नहीं.

यानी, आदिवासी कौन है, किसे एसटी कोटे में रखा जाये या नहीं रखा जाये, यह फैसला समाज का वही प्रभु वर्ग लेगा जो आदिवासी समाज को ठीक से नहीं जानता, आदिवासियों की जीवन दृष्टि और हितों से जिसका निरंतर टकराव होता रहता है. यदि कठोर शब्द में कहा जाये तो समाज आदिवासियों का उत्पीड़क है, वही समाज आदिवासयों का संरक्षक बन कर खड़ा है.