पता नहीं, कोरोना वाइरस का यह खतरा कब तक चले, लेकिन इसके खतरे अभी से प्रकट होने लगे. मौत का खतरा नहीं, वह तो है ही. हमारे मनःस्थितियों में आ रहे परिवर्तन. मीलों पैदल चल कर या कष्टप्रद यात्रा करके लोग अपने घर गांव पहुंच रहे हैं और वहां उन्हें गांव में घुसने से रोका जा रहा है. यही हालात रहे तो वह दिन दूर नहीं कि अपने परिजन के बीमार होने पर घर वाले उनकी देखभाल के बजाय उन्हें घरों से बाहर फेंक देंगे या खुद घर छोड़ कर भाग खड़े होंगे.
कोरोना के संक्रमण और उसके फैलाव व मृत्यु के भीषण आंकड़ों के बीच मन में तरह तरह की भावनाएं तरंग की तरह उठती रहती हैं. 21 दिनों के लाॅक आउट से उत्पन्न एकाकीपन में जो सबसे संत्रास देने वाली बात है, वह यह कि ‘सोसल डिस्टेंस’ फौरी जरूरत की जगह हमारी आदत न बन जाये. स्मार्ट फोन, कंप्यूटर आदि ने हमें वैसे भी गैर सामाजिक बनाया था,अब उसमें जुड़ गया संक्रमित होने का खतरा, मौत का भय.
कभी कभी लगता है कि हम किसी अदृश्य साजिश के तो शिकार नहीं हो रहे हैं? दो महाशक्तियों के बीच के वाईरस युद्ध की छन कर आती खबरें, दुनिया में बराबरी, लोकतंत्र और पर्यावरणीय संकट के खिलाफ उभरती आवाजों का एकबारगी सन्नाटे में बदल जाना, आम जन के खिलाफ समाज के प्रभु वर्ग की बेरहमी, सभी कुछ मन को बुरी तरह आशंकित कर रहे हैं. लगता है यह सहज स्वाभाविक परिघटना नहीं, अदृश्य शक्तियों द्वारा रचा कोई भीषण षडयंत्र है.
आपको याद होगा कि कोरोना के आने के ठीक पहले चीन, हांगकांग में चले रहे आंदोलन के गिरफ्त में था और तमाम सरकारी दमनकारी कार्रवाईयां वहां निष्फल साबित हो रही थी. अमेरिक में ट्रंप एक खलनायक बनते जा रहे थे और उन्हें अपनी लोकप्रियता साबित करने के लिए मोदी और उनके द्वारा इकट्ठा भीड़ का सहारा लेने की जरूरत पड़ रही थी. और भीषण आर्थिक मंदी का शिकार संपूर्ण भारत सीएए, एनआरसी, एनपीआर विरोधी आंदोलन की गिरफ्त में था. वे सब एकबारगी खत्म.
दूसरी तरफ कोरोना के भीषण संकट और भय का इस्तेमाल प्रभु वर्ग जिस तरह कर रहा है, उससे यह आशंका और ज्यादा घनीभूत हो रही है कि हम किसी बड़े षडयंत्र का शिकार तो नहीं बन रहे हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि कोरोना एक गंभीर संकट है, लेकिन जिस तरह इसका इस्तेमाल समाज का प्रभु वर्ग कर रहा है, उससे कई सवाल उठ खड़े हो रहे हैं और इसका जवाब कोई देने को तैयार नहीं. हम खुद भी नहीं, क्योंकि मौत के खतरें ने हमारी तर्क शक्ति को पंगू बना दिया है.
कोरोना संकट का आगाज चीन में गत वर्ष दिसंबर महीने से ही शुरु हो गया था. हमारे पास जनवरी और फरवरी के दो महीने थे, कोरोना के मुकाबले की तैयारी के लिए. लेकिन 2 मार्च को संक्रमित मरीज की पहली सूचना आने के पहले तक केंद्र सरकार करती क्या रही? वह सीएए और एनपीआर के खिलाफ चले छात्र, जन आंदोलनों को कुचलने में लगी रही, दिल्ली के भीषण दंगे का तमाशा देखती रही और ट्रंप के स्वागत की तैयारी और स्वागत करती रही.
मोदी 22 मार्च को जनता के रूबरू हुए और 23 को एक दिन के जनता कर्फू की घोषणा की. उसमें भी स्वास्थकर्मियों, सफाईकर्मियों और सुरक्षाकर्मियों के प्रति आभार प्रकट करने के नाम पर थाली बजवायी. वे उस दिन भी शट डाउन की पूरी योजना लेकर जनता के सामने आ सकते थे. लेकिन उन्हें तो जनता कर्फू को अपनी लोकप्रियता का पैमाना बनाना था. और फिर एक दिन बाद आकर अचानक 21 दिनों का शट डाउन.
क्या उन्होंने विचार किया कि पिछड़े इलाकों से देश के महानगरों में गये मजदूर क्या करेंगे? क्या उन्होंने उन्होंने यह दिशा निर्देश जारी किये कि इन मजदूरों को उनके मालिक 21 दिनों तक अपने यहां ही रखेंगे और उनके भोजन आदि की व्यवस्था करेंगे? क्या उन्होंने यह व्यवस्था की कि मजदूरों को शट डाउन के दौरान उन्हीं शहरों में, या कार्यस्थलों पर रहना है, जहां वे हैं और उनके भरण पोषण की जिम्मेदारी सरकार उठायेगी? या फिर उन्हें उनके गृह प्रदेशों तक यथाशीध्र पहुंचाने की व्यवस्था की जायेगी? ऐसा कुछ नहीं किया गया. उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया.
अभी हालत यह है कि हर दिन जब कोई नई समस्या सामने आती है, तब समाधान का रास्ता खोजा जाता है. और इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह संकट लंबा खिंचा तो जितने लोग कोरोना से नहीं मरेंगे, उससे कहीं ज्यादा भूख और कुपोषण से.
यह भी आश्चर्यजनक है कि इस दौरान तमाम ओछी राजनीतिक घटनाएं चलती रही. मध्य प्रदेश में सरकार गिराने और नई सरकार को बनाने का काम. गगोई को राज्यसभा पहुंचाने का काम. इसी तरह धार्मिक अनुष्ठान भी. राम मंदिर बनाने की प्रक्रिया जारी है. राम लला की मूर्ति निर्माण के लिए दूसरे स्थान पर शिफ्ट हो गयी. और रामायण का प्रसारण एक बार फिर से दूरदर्शन पर शुरु हो गया. इसकी जगह श्याम बेनेगल की भारत की खोज का प्रसारण हो सकता था जिससे अपने अतीत की कुछ प्रामाणिक जानकारी युवा पीढ़ी को मिलती.
संकट के इस भीषण दौर में भी टीवी चैनलों पर उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन जोर शोर से जारी हैं. और सबसे अधिक वीमा कंपनियों के विज्ञापन, जो कोरोना के भय को कैश करने की हरचंद कोशिशों में पूरी बेशर्मी से लगे हुए हैं. हमारी सरकार जनता को कुछ रियायत देने के बजाय अपनी झोली भरने में लगी है. मसलन, कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कम हुए, लेकिन सरकार ने तेल की कीमतें घटने नहीं दिया, अपना अधिभार बढ़ा दिया और अपनी झोली भरने में लग गयी.
पता नहीं, कोरोना वाइरस का यह खतरा कब तक चले, लेकिन इसके खतरे अभी से प्रकट होने लगे. मौत का खतरा नहीं, वह तो है ही. हमारे मनःस्थितियों में आ रहे परिवर्तन. मीलों पैदल चल कर या कष्टप्रद यात्रा करके लोग अपने घर गांव पहुंच रहे हैं और वहां उन्हें गांव में घुसने से रोका जा रहा है. यही हालात रहे तो वह दिन दूर नहीं कि अपने परिजन के बीमार होने पर घर वाले उनकी देखभाल के बजाय उन्हें घरों से बाहर फेंक देंगे या खुद घर छोड़ कर भाग खड़े होंगे.
क्योंकि पूरा सिस्टम उन्हें अमानुष बनाने में लगा हुआ है. और अपनी मनुष्यता को बचाने की जिम्मेदारी हम सब पर ही है.