अपने देश की एक त्रासदी रही है, तथाकथित विकास के कदम जहां भी पड़े आदिवासी उजड़ जाते हैं, नदियां सूख जाती है. गुजरात इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बन गया है. नर्मदा लगभग सूख चुकी है. वही नर्मदा जिसके दोहन से बने नर्मदा बांध के किनारे नवनिर्मित पटेल की विशाल प्रतिमा का अनावरण 31 अक्तूबर को मोदी करने वाले हैं. वह मूर्ति जिसे मोदी और उनके गुर्गो ने ‘स्टैच्यू आॅफ युनीटी’ का नाम दिया है, बन कर तैयार है. यह दुनियां की सबसे उंची मूर्ति होगी, करीबन 597 फीट उंची. उस मूर्ति तक पहुंचने के लिए आधुनिकतम एलेवेटर लगाये गये हैं, नदी तट से 500 फीट उंचाई पर बना एक शानदार मंच, जिस पर खड़े हो कर सैकड़ों पर्यटक सतपुड़ा के जंगल, विध्यांचल पर्वत श्रृंखला और 212 वर्ग किमी में फैले सरदार सरोवर के अभिराम दृश्यों को देख सकेंगे, बस नहीं देख पायेंगे कभी घनघोर जंगल के बीच से निनाद कर उतरती नर्मदा की स्वच्छ निर्मल धारा को और उन आदिवासी बस्तियों के साथ गुम हो चुके आदिवासी समाज को जो कभी वहां आबाद थे. पहले वे सरदार सरोवर के निर्माण से उजड़े, फिर कई परिवार ‘श्रेष्ठ भारत भवन’ के लिए कुर्बान हुए और दर्जनों सड़क के चैड़ीकरण के लिए.
कुछ लोगों के दिमाग में यह चल रहा होगा कि विकास के नाम पर अधिग्रहित जमीन के बदले मुआवजा और रोजगार तो मिलता है, लेकिन यह एक फरेब से ज्यादा कुछ नहीं. गुजरात में सरदार सरोबर डैम से विस्थापित हुए परिवारों में से 3500 लोगों को रोजगार देने का आश्वासन दिया गया था लेकिन मिला महज 450 लोगों को. इस वजह से गुजरात के आदिवासियों ने इस बार सरकार के हर प्रलोभन को ठुकरा दिया है. पिछले मंगलवार को गुजरात सरकार ने आदिवासियों के विरोधी तेवर को देखते हुए जमीन के बदले जमीन और 750000 रुपये प्रति हेक्टेयर जमीन का मुआवजा देने की पेशकश की, लेकिन आंदोलनकारियों ने सरकार की इस पेशकश को ठुकरा कर 31 अक्तूबर को प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. उमरगम से अंबाजी तक फैले 15 आदिवासीबहुल जिलों के 5500 आदिवासी गांव इस बात को लेकर एकजुट दिखाई दे रहे हैं. उन लोगों ने तो यहां तक तय कर लिया है कि उस दिन किसी घर में खाना नहीं बनेगा. आदिवासी परंपरा में जब घर में, गांव में कोई मौत हो जाती है तो खाना नहीं बनाया जाता.
दरअसल, पटेल की यह मूर्ति आरएसएस की एक दूरगामी योजना का हिस्सा है. मोदी सिर्फ उसके निमित्त बने हैं. स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस की कोई भूमिका नहीं थी. वे अंग्रेंजों के यार थे. लेकिन अब उन्हें स्वतंत्रता संग्राम से अपने लिए कुछ नायक चाहिये जिसका इस्तेमाल वे अपनी राजनीति मे ंकर सकें. कतिपय कारणों से उन्हें पटेल और सुभाष रास आते हैं. नेहरु के मुकाबले ये दोनों नेता उनके औजार बन सकते हैं. नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज की जयंती अभी अभी उन्होंने मनाई, 31 को पटेल की मूर्ति का अनावरण हो रहा है. वरना गुजरात तो गांधी की भी जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है. मोदी को कभी गांधी की मूर्ति बनाने की इच्छा नहीं हुई.
और इस राजनीति के लिए करीबन 3000 करोड़ की धनराशि फूंक दी गई. म्यूजियम बनेगा, फूड प्लाजा बनेगा, एक्जीविशन हाल बनेगा, तरह-तरह की दुकाने खुलेंगी. इस अजूबे को देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक आयेंगे तो देर सबेर आस- पास के इलाकों में होटल आदि बनेंगे, सड़कों को चैड़ा किया जायेगा. और यह सब पर्यावरण पर भारी पड़ेगा. लेकिन इसकी चिंता उन्हें नहीं. उन्होंने तो इस बात का आकलन करने से ही इंकार कर दिया कि इन सबका पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा.
नर्मदा नदी किसी ग्लेसियर से नहीं निकलती, जंगलों, चट्टानों से फूटने वाले झरनों और बरसाती पानी से बनी है और सुदूर मघ्यप्रदेश से एक लंबी यात्रा करती हुई गुजरात पहुंचती है. लेकिन बड़े बांधों और जहां तहां बालु राशि व बाॅक्साईट के लिए हुए खनन ने जंगल का सर्वनाश किया, नदी सूख चली और उस आदिवासी समाज का जीवन दूभर हो गया जो इन पर निर्भर करता था. मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी जमीन से उजड कर शहरों की झुग्गी बस्तियों में रहते हैं, दिहाड़ी पर खटने वाले मजूर बन चुके है. ‘विकास’ का यह नया चरण केवाडिया, कोटही, लगोडिया़, लिवंडी, नवगाम और गोंडा गांव पर भारी पड़ने वाला है. और इसलिए विरोध का स्वर गुजरात के आदिवासी इलाकों में गूंज रहा है. देश के विभिन्न हिस्सों में बसे आदिवासी समूह भी इस विरोध के साथ हैं.
बावजूद इसके, यह सरकार कुछ सुनेगी, इसकी उम्मीद हमे तो नहीं. लेकिन संघर्ष तो चलता रहा है, चलता रहेगा.