देश में इन दिनों हवा यह बन रही है कि जिन्हें सरकार ने देशद्रोही घोषित कर गिरफ्तार करने में तेजी दिखाई है, उन्हें प्रकारांतर से माओवादियों का समर्थक बताती है. यह सत्ता के लिए एक आसान रास्ता जरूर है, लेकिन जरूरी नहीं कि आप माओवादियों का समर्थन करने की वजह से ही देशद्रोही घोषित किये जायें. अपने झारखंड में जिन लोगों को देशद्रोह के मुकदमे में सरकार ने फंसाया है, उनमें से सभी महज आदिवासी हितों के पैरोकार व जल, जंगल, जमीन आंदोलन के समर्थक हैं. उन्होंने खूंटी में चले पत्थरगड़ी आंदोलन का समर्थन किया हैं और इसलिए भाजपा सरकार की आंखों के किरकिरी बन गये.
पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में छापामारी कर जिन पांच बुद्धिजीवियों और समाजकर्मियों को गिरफ्तार किया गया, उन पर मुख्य आरोप यह है कि उनका माओवादियों से कोई रिश्ता है. एक बार यह आरोप लगते ही सारी बहस इस बात पर होने लगती है कि जिन पर यह आरोप लगा, उनका वास्तव में माओवादियों से रिश्ता है या नहीं. पुलिस सबूत पेश करने लगती है कि उनका संबंध माओवादियों से है. सबूत के बतौर कोई चिढ्ठी, कोई मेल या किसी मैसेज को बतौर सबूत पेश किया जाता है. यह भी खंगाला जाता है कि माओवादियों द्वारा आयोजित किसी समारोह में, किसी माओवादी नेता के अंतिम संस्कार आदि में उनकी शिरकत हुई थी या नहीं.
और सामान्यतः अभियुक्त सफाई यह देते हैं कि इस तरह के किसी आयोजन में उन्होंने शिरकत नहीं की, या माओवादियों की हिंसात्मक गतिविधियों से उनका कोई लेना देना नहीं. फिर यह कहा जाता है कि दलित— आदिवासी हितों की बात करने की वजह से यदि उन्हें नक्सली या माओवादी कहा जाता है तो वे माओवादी हैं. यह एक तरह से माओवाद या नक्सली हिंसा को ग्लोरीफाई ही करना है. सवाल यह है कि माओवाद एक राजनीतिक दर्शन है, जिन्हें संसदीय राजनीति पर भरोसा नहीं और जो मानते हैं कि सत्ता बंदूक की नली से ही निकलती है. मैंने कभी भी किसी माओवाद समर्थक को यह कहते नहीं सुना कि वे हिंसा की राजनीति का समर्थन करते हैं. जबकि, हिंसा माओवादी राजनीति के मूल में है. इन बहसों के साथ यह बहस भी शुरु हो जाती है कि स्टेट की हिंसा और माओवादियों की हिंसा में कोई फर्क नहीं. या कौन ज्यादा खतरनाक है.
विडंबना यह कि भाजपा की सरकार माओवादियों के प्रति जितनी कठोर है, माओवादी क्रांति के बाद हुए चीन के कायापलट से उतनी ही प्रभावित. अभी झारखंड सरकार के मुख्यमंत्री सहित कई लोग चीन यात्रा पर हैं. वे वहां से फूड प्रोसेसिंग की कला सीख कर लौटेंगे. हो सकता है नगर विकास के तरीके भी सीख कर लौटें. भारत तो गांधी का देश है, और चीन माओ का देश, जिनकी ‘लाल किताब’ को एक खतरनाक किताब मानती है भारत सरकार. किसी बारूद के समान विस्फोटक. यह सब अजीब नहीं लगता?
दूसरी तरफ इस बहस में यह बात दबी रह जाती है कि संघी सरकार के लिए गांधीवाद की अहिंसा और असहयोग को राजनीति का मूल मानने वाले भी उतने ही खतरनाक हैं. मैं अपनी बात करूं तो मैं गांधी, जेपी को मानने वाली वाहिनी धारा का सदस्य हूं और मैंने हमेशा माओवादी हिंसा की कठोरता से निंदा की है. यह सही है कि मैं उन्हें सरफिरा हत्यारा या सामान्य अपराधी गिरोह नहीं मानता, लेकिन हिंसा के जिस मार्ग पर चल कर वे व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, उस पर मेरा रत्ती भर विश्वास नहीं. बावजूद इसके आदिवासी हितो की बात करने की वजह से मुझ पर सरकार ने देशद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया.
मेरे अलावा भी जिन अन्य लोगों को देशद्रोह का अभियुक्त बनाया गया उनमें से अधिकतर,मेरी जानकारी के अनुसार, माओवादी हिंसा के समर्थक नहीं. हां वे आदिवासी हितों की बात जरूर करते हैं और अपने समाज का शोषण-उत्पीड़न देख कर उन्हें पीड़ा होती है. उनमें से कुछ नौकरीपेशा हैं, कुछ अपना केरियर बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं, लेकिन उन सबको ‘देशद्रोह’ जैसे गंभीर अपराध का अभियुक्त बना दिया गया और उनके जीवन को दुर्गम. और यह सब महज अपनी टुच्ची राजनीति के लिए.
दरअसल, कम्युनिस्टों से समाज के प्रभुवर्ग को और उससे लगे मध्यम वर्ग को भारी शिकायत है. वे शोषण और उत्पीड़न का विरोध करते हैं. समता की बात करते हैं. मनुष्य-मनुष्य के बीच बराबरी की बात करते हैं. परंपरा के नाम पर चली आ रही रूढ़ियों का विरोध करते हैं. यह उन्हें बेहद नागवार लगता है. और इसी तबके को संतुष्ट करने के लिए सरकार माओवाद के नाम पर बुद्धिजीवियों और समाजकर्मियों पर तरह-तरह के जुल्म ढ़ाती है, ताकि शहरी अभिजात वर्ग को संकेत जाता रहे कि वह उनके हितों की रक्षा के लिए सचेष्ट है.
यहां यह याद करना प्रासांगिक होगा कि देशद्रोह का अभियुक्त बनाये गये लोगों में अधिकतर ईसाई आदिवासी हैं और झारखंड में ईसाई आदिवासी को टारगेट कर सरकार सरना आदिवासियों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने की उम्मीद रखती है.
जनता इस खेल को कितना समझती है, यह तो आने वाला वक्त बतायेगा.