शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक नेता होगा, जो यह बात नहीं कहता कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है. शायद ही कोई हिंसा की आलोचना में पीछे रहता है. पर सच यही है कि भारतीय राजनीति में हिंसा कोई नयी बात नहीं है. यह राजनीति के अपराधीकरण या अपराध के राजनीतीकरण का और वैचारिक मतभेद के दुश्मनी में बदल जाने का भी नतीजा है. मगर कथित रूप से शांतिपूर्ण राजनीति की कसमें खाने वाले शायद ही किसी दल को राजनीति में हिंसा से परहेज रहा है. महाराष्ट्र में शिवसेना और अब मनसे तो इस मामले में चैंपियन ही हैं. राजद और सपा भी राजनीति में लठैती के नुमाइंदे हैं. बंगाल में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं/समर्थकों के बीच हिंसक टकराव का पुराना इतिहास रहा है.
मगर एक स्थापित राजनीतिक नेता/व्यक्ति की हत्या इस तरह की झड़प से भिन्न मामला है. दिल्ली में संभवतः ‘89 में वामपंथी कवि, लेखक व नाट्यकर्मी सफदर हाशमी माकपा के एक प्रत्याशी के समर्थन में नुक्कड़ नाटक कर रहे थे. अचानक एक निर्दलीय प्रत्याशी के हथियारबंद समर्थकों ने हमला किया. अनेक घायल हुए. एक की घटनास्थल पर और बाद में हाशमी की भी मौत हो गयी. जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके चंद्रशेखर की हत्या वर्ष 1997 में सीवान में कर दी गयी. तीन लोगों को उम्रकैद की सजा हुई. आरोप राजद नेता शहाबुद्दीन पर भी लगा. पर सबूतों के अभाव में बरी हो गये.
इन दोनों हादसों के शिकार दो वामपंथी युवा नेता, कलाकार, कवि हुए. इस पर शोर भी वाम दलों ने मचाया. निशाने पर गैर भाजपा दल और संगठन थे. ये हत्यायें खुली सड़क पर दिनदहाड़े की गयी थीं. ये राजनीतिक हिंसा ही थीं. ऐसी और भी हत्याएं होती रही हैं, हुई होंगी, जिनमें अलग अलग दलों व धारा के लोगों की भूमिका रही होगी. लेकिन जो सीधे सक्रिय राजनीति में न हो, लिखने-पढ़ने के काम में लगा हो, जिसकी छवि एक बौद्धिक की रही हो, ऐसे लोगों की हत्या नया ट्रेंड है. निश्चय ही दो दलों के कार्यकर्ताओं या समर्थकों के बीच होने वाली हिंसक झड़प (ऐसी हिंसा कमोबेश हर राज्य में; खास कर बंगाल और केरल में अधिक होती रही हैं, जिनमें माकपा, कांग्रेस, आरएसएस और तृणमूल कांग्रेस के लोग शामिल रहे हैं) और योजना बना कर की गयी वैचारिक विरोधी की हत्या में अंतर है. (यहां माओवादियों का जिक्र नहीं किया जा रहा, जो घोषित रूप से राजनीतिक हिंसा को जायज मानते हैं, हिंसा करते हैं और अमूमन उसे स्वीकार भी करते हैं.) दाभोलकर, पानसारे, कलिबुर्गी और अब गौरी लंकेश की हत्या इसी श्रेणी में आती हैं, जो वैचारिक असहमति के कारण या विरोधी आवाज को खामोश करने के लिए की गयी हैं.
इनमें हत्यारे अज्ञात हैं, कोई समूह या संगठन इनकी जवाबदेही लेने को तैयार नहीं है. पर इन हत्याओं के बाद और इनके बारे में ‘उस’ धारा से जुड़े लोगों व समर्थकों के बयान और रुख से भी कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है. कोई शक नहीं कि भाजपा विरोधी दलों-लोगों या कथित सेकुलर समूह ने भी इसे संघ-भाजपा पर हमला करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया. वैसे अपने पक्ष के कार्यकर्त्ता/नेता की हत्या पर सबों का यही रुख होता है. मगर हाल के दिनों में इस तरह की हुई हत्याओं और उनमें जो तत्व संदेह के घेरे में हैं, उसे देखते हुए, गौरी लंकेश की हत्या के लिए अतिवादी हिंदू समूहों पर संदेह जाना कतई स्वाभाविक है.
इस संदर्भ में एक चिंताजनक और खतरनाक बात यह है कि संघ-भाजपा समर्थकों की जमात के ‘नामालूम’ किस्म के लोग सोशल मीडिया पर खुलेआम दिवंगत लंकेश के प्रति अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें देशद्रोही और हिंदूद्रोही साबित करने का प्रयास किया जा रहा है. कर्नाटक के एक भाजपा विधायक, जो मंत्री भी रह चुके हैं, ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि गौरी लंकेश ने संघ के खिलाफ नहीं लिखा होता, तो अभी वे जिन्दा रहतीं! अब भी कोई संदेह रह जाता है? भले ही उनके बयान को अदालत में प्रमाण नहीं माना जायेगा. पर सन्देश स्पष्ट है कि जो कोई भी संघ/भाजपा या नरेंद्र मोदी की आलोचना करेगा, वह देशद्रोही और हिंदूद्रोही माना जायेगा; और ऐसे लोगों के लिए बिना किसी सुनवाई और सबूत के ‘मृत्युदंड’ सर्वथा उचित है! वह हत्या नहीं, ‘वध’ है, जो शास्त्र-सम्मत है. ध्यान रहे कि अब तक भाजपा ने अपने उस विधायक पर कोई कार्रवाई नहीं की है. केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सोशल मीडिया पर लंकेश के प्रति अपशब्द कहे-लिखे जाने और उनकी मौत पर जश्न की बात करने की निंदा जरूर की, पर वे खुद ‘ट्रोल’ के शिकार हो गये! उसके बाद उन्होंने भी अपने बयान को ‘सुधार’ लिया, कहा- जो लोग इस हत्या पर शोर मचा रहे हैं, उन्हें इस तरह की हिंसा की अन्य घटनाओं पर भी बोलना चाहिए. संभव है कि लंकेश की हत्या को मुद्दा बनानेवाले बहुतेरे लोग पहले हुई ऐसी ही हत्या पर चुप रहे हों, जिसे निंदनीय ही कहा जायेगा, मगर क्या उन नेताओं के कथित अवसरवादी रवैये और चुनिन्दा चुप्पी के कारण लंकेश की हत्या जायज हो जायेगी? ऐसी हिंसा कोई करे, लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ और लोकतंत्र को कमजोर करती है. किसी भी तर्क और बहाने इसका समर्थन करना निंदनीय और शर्मनाक है.
प्रथमतः यह सरकार की जवाबदेही है (और इस मामले में कर्नाटक सरकार की) कि वह हत्यारों को पकड़े और उन्हें सजा दिलाये. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से से जो असहिष्णु माहौल बन रहा है, धर्मांधता जिस तरह बढ़ रही है, उसका क्या निदान है? इसका जवाब तो जागरूक समाज को ही ढूंढना और देना होगा. धर्मान्धता और राजनीतिक असहिष्णुता की यह राह हमें एक अंधी गली में ले जायेगी, जिसमें फंसा कोई देश कभी विकास नहीं कर सकता, आगे नहीं बढ़ सकता. इस मध्ययुगीन बर्बरता से उबरने की चुनौती आसान नहीं है.