पांच सितंबर के दिन कन्नड़ भाषा की वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या कर दी जाती है. उनका अपराध था कि वे सच को दुनियां के सामने लाती रहीं, चाहे वह धर्म से संबंधित सच हो या राजनीति से. सच कड़वा होता है. और सच के लिए अपनी बलि देनी पड़ती है. महात्मा गांधी से लेकर अबतक की अनेक घटनाओं से हम इस तथ्य से बार बार रूबरू होते रहे हैं. गौरी लंकेश से पहले भी इसी अपराध में दाभोलकर, पनसारे तथा कलबुर्गी ने अपने प्राण गंवाये.
गौरी लंकेश की हत्या से हमने एक मुखर पत्रकार एवं एक कर्मठ समाजसेवी को खो दिया. लेकिन इस घटना से यह तसल्ली भी मिली कि सच को कहो, लगातार कहो तो शायद यह सत्ता की चूल तक हिला दे. इसी डर से उनकी आवाज बंद कर दी गई. गौरी की हत्या किसने किया, यह तो जांच का विषय है, लेकिन जिस वीभत्स तरीके से यह हत्या हुई, ठीक उसी तरीके से पहले की तीन हत्यायें भी हुई. बस दो तीन वर्षों के अंतराल में. इससे यह तो साबित होता है कि राजनीति तथा धार्मिक हितों को ठेस पहुंचते ही उनके ठेकेदार भाड़े के हत्यारों से इन हत्यायों को अंजाम देते हैं. इनको तो इंदिरा गांधी की तरह इमरजंसी लाकर पत्रकारों तथा पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत ही नहीं. इनके एक इशारे से किसी की भी हत्या कर सच का गला घोंटा जा सकता है. हत्या भर से उनके बदले की भावनाकी तुष्टि नहीं होती है. वे अपने भाड़े के ट्टुओं को सोसल मीडिया में बैठा कर गौरी लंकेश को भद्दी गालियां दिलवाते हैं. इसे केवल अराजकता और गुंडागर्दी का ही नाम दिया जा सकता है.
प्रधानमंत्री मोदीजी हर मंच से आतंकवाद की घोर निंदा करते हैं. हाल में ब्रिक्स के सम्मेलन में पाकिस्तान को आतंकवादियों का समर्थक साबित कर अपनी पीठ थपथपाते रहे और हमारे देश की कूटनीति का ‘यह महानतम सफलता’ बताते रहे. अपने देश में फैले इस तरह का आतंक उन्हें दिखता नहीं है या वे देखना नहीं चाहते हंै. हर वो व्यक्ति जो समाज के हित में कुछ बोलना चाहता है, लिखना चाहता है, इस तरह की घटनाओं से एक बार डरेगा जरूर. दुनियां में जितने भी आतंकी संगठन हैं, अपनी आतंकी गतिविधियों की जिम्मेदारी निर्भीक तरीके से लेते हैं. लेकिन हमारे ये देशी आतंकी चुपचाप वार करते हैं और किसी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते.
गौरी लंकेश की हत्या की निंदा पूरे देश में हुई. सभाओं में, जुलूसों में तथा कैंडल मार्च में हिस्सा लेकर लोगों ने गौरी को श्रद्धांजलि दी. यह विरोध प्रदर्शन या एकजुटता इसलिए नहीं कि लोग डर गये. इन प्रदर्शनों के द्वारा लोगों ने गौरी के निर्भीक व्यक्तित्व को सम्मान दिया जिसकी वे हकदार थीं. गौरी का विश्वास समाज हित में शांतिपूर्वक चल रहे जन आंदोलनों में था. देश के किसी भी भाग में चल रहे इस तरह के आंदोलनों से वे जुड़ती थीं, आवाज उठाती थीं. अपने पिता की विरासत को आगे बढाते हुए गौरी ‘लंकेश प़ित्रके’ को बखूबी बिना किसी सरकारी मदद के निकालती रहीं. लिंगायत संप्रदाय से होने के कारण उन्होंने हिंदू धर्म के सारे कर्मकांडों और पाखंडों का विरोध जम कर किया, क्योंकि लिंगायत संप्रदाय का उदय ही इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध हुआ था. बीजेपी ने जब इसी संप्रदाय को हिंदू धर्म का हिस्सा कहा, तो गौरी बीजेपी तथा उसकी मातृ संस्था आरएसएस की आलोचक बन गई. शायद उसकी मृत्यु का यह भी एक कारण रहा हो.
जो भी हो, गौरी ने बहादुरी से मृत्यु का वरण किया, बिना किसी आडंबर या क्रियाकर्म के वे दफना दी गई. इस तरह एक उच्च विचार और सरल जीवन का अंत हुआ.