इतिहास के हर दौर में जिन आर्यो ने अनार्यों को हमेशा उनके मूल निवास स्थान से खेदेड़ा, उनके साथ ठगी की, उन्हें दरदर भटकने को मजबूर किया, अब वे लोग एकबारगी उनके लिए चिंतित हो उठें हैं, उनके धर्म को बचाने के लिए बेचैन हो उठें है. हां, हम संघ परिवार के दिशा निर्देश में चल रहे एनडीए की झारखंड सरकार के उस ताजा कार्रवाई की चर्चा कर रहे हैं जिसको लेकर वातावरण गर्म है. हम मंत्रिमंडल द्वारा धर्मांतरण विरोधी पारित कानून की चर्चा कर रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि 2 अगस्त को झारखंड मंत्रिमंडल ने एक बैठक में धर्मांतरण विरोधी कानून के ड्राफ्ट को मंजूरी दी जिसमें कहा गया है कि जबरन या किसी प्रलोभन से जो काई किसी के धर्म का परिवर्तन कराने का दोषी पाया जायेगा, उस पर पचास हजार रुपये का जुर्माना या तीन वर्ष की जेल या दोनों की सजा दी जा सकती है. और यदि अनुसूचित जाति के किसी अवयस्क लड़की या महिला का धर्मपरिवर्तन कराया गया तो उसकी सजा चार वर्ष की जेल या एक लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों हो सकता है.
यह बात तो सहज बुद्धि कहती है कि यदि किसी तरह के लोभ-प्रलोभन से या जबरदस्ती कोई किसी का धर्म परिवर्तन कराता है तो यह अपराध होगा और इसके लिए हमारे संविधान में पहले से प्रावधान है. लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस कानून की जरूरत क्या है? क्योंकि इस कानून का लक्ष्य ईसाई मिशनरियां या इस्लाम धर्मावलंबी ही हैं और झारखंड में तो टारगेट मुख्य रूप से ईसाई मिशनरियां ही हैं. तो, झारखंड सरकार ने झारखंड राज्य गठन के बाद इस तरह के मामले पूर्व में दर्ज किये हैं जिससे पता चले कि इस राज्य में इस तरह के मामले आये हैं? सौ-पचास नहीं, दो, चार, दस भी? यानि, मामला इस कदर गंभीर हो गया कि आप इस तरह का कानून बनायें?
सवाल यह भी है कि हमारा संविधान जो हमे अपनी इच्छानुसार धर्म चुनने का मौलिक अधिकार देता है, अपने धर्म के प्रचार का अधिकार देता है, कहीं उस कानून को इस नये कानून से निरस्त करने की साजिश तो नहीं कर रही एनडीए सरकार? क्योंकि सभी राज्य इस तरह के कानून को लेकर एकमत नहीं. जिन राज्यों में एनडीए की सरकार है, उन्हीं राज्यों में इस तरह का कानून बनाया गया और लागू किया गया. यह कानून अब तक मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात और महारष्ट्र में बना और लागू किया गया. ओड़िसा एक अपवाद है जहां एनडीए की सरकार नहीं, लेकिन जहां धर्मांतरण विरोधी कानून लागू है. झारखंड सरकार यदि इस कानून को बना कर लागू कर देती है तो झारखंड सातवां ऐसा राज्य होगा जहां धर्मांतरण विरोधी कानून लागू होगा. यानि, आप कह सकते हैं कि यह कट्टर हिंदुत्ववादी एजंडा है. इस कानून का सबसे खतरनाक प्रावधान यह है कि जो भी व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन करना चाहता है, उसे सरकार को यह बताना होगा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है और जिस नये धर्म को वह स्वीकार करने जा रहा है, उस धर्म को वह कब से जानता है और उसके नियमों का पालन कर रहा है. यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो वह भी सजा का पात्र होगा.
मजेदार बात यह कि यह कानून मूलतः आदिवासियों को ईसाईयत के गिरफ्त में जाने से रोकने के लिए एनडीए सरकार बना रही है. हालांकि संघ को आदिवासीबहुल इस राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री की जरूरत नहीं रही. संघ पर मनुवादियों और वर्ण व्यवस्था के पक्षधर कट्टर हिंदू हिमायतियों का वर्चस्व है और संपूर्ण हिंदू वांगमय आदिवासियों के प्रति घृणा से भरा है. उन्हें हिंदू धर्मग्रंथों में दस्यु, दानव, राक्षस, वा-नर और न जाने क्या क्या कहा गया है. हमारा पुरातन इतिहास आर्य-अनार्य संघर्षों का दस्तावेज है और आर्यों ने हमेशा अनार्यो यानि आदिवासियों को उनके मुल ठिकानों से उजाड़ा है और उन्हें जंगल-झाड़ में रहने को विवश किया. आज भी विकास के नाम पर उन्हें उनके ठिकानों से उजाड़ने का प्रपंच रचा जा रहा है. शहर बनते हैं. गैर आदिवासियों से भर जाते हैं. शहर के हाशिये पर आदिवासी चले जाते हैं.
अब उन्हीं आदिवासियों को लेकर असीम प्रेम जगा है संघियों का. वे उन्हें ईसाईयत के खतरे से बचाना चाहते हैं? मगर क्यों? क्या आदिवासी हिंदू हैं? क्या वे अपने धर्म, भाषा और संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकते? क्या उन्होंने इस तरह की सुरक्षा की गुहार सरकार से की है? फिर ये संघी उसके लिए चिंतित क्यों हैं?
दरअसल, संघी सरकार की मंशा प्रकारांतर से यह बताना है कि ईसाई भोले भाले आदिवासियों का जबरिया धर्मांतरण करा रहे हैं. यह कानून उस प्रोपेगैंडा का हिस्सा है. इसका एक लक्ष्य यह भी कि ईसाईयों के खिलाफ विष वमन कर वे हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में करना चाहते हैं.
विडंबना यह कि झारखंडी बुद्धिजीवी, कार्डिनल जैसी हस्ती यह सफाई दे रहे हैं कि मिशनरियां तो सेवा भाव से काम रही रही हैं. ईसाईयों की आबादी देश में या झारखंड में पिछले दशकों में नहीं बढा है. मिशनरियों का उद्देश्य किसी को ईसाई बनाना नहीं.आदि आदि. अब यदि वे इस विवाद में फंसेंगे तो उन्हें जवाब देना होगा कि दिल्ली के सेंट स्टीफन जैसे कालेज में ईसाई आदिवासी और सामान्य आदिवासी में भेद भाव क्यों बरता जाता है? पूछना तो बुलंदी से यह चाहिये कि इस देश में धर्म चुनने,अपने धर्म के प्रचार प्रसार का मौलिक अधिकार नागरिकों को है या नहीं?