एक झटके में झारखंड की सारी समस्याएं नेपथ्य में चली गयी लगती हैं और बहस धर्मांतरण पर केन्द्रित हो गयी है. इस तरह धर्मांतरण पर रोक संबंधी कानून बनाने की बात छेड़ कर या उस दिशा में पहल कर एक बार भाजपा ने साबित कर दिया कि बहस का एजेंडा वही तय करती है. मगर आप इस पर चुप भी नहीं लगा सकते, क्योंकि इसका मतलब होगा कि आप सरकार की इस पहल का समर्थन करते हैं. और सीधे विरोध करते हैं, तो माना जायेगा कि आप (मौजूदा सन्दर्भ में) ईसाई मिशनरियों द्वारा कराये जा रहे धर्मांतरण का समर्थन करते हैं, जिसे हिंदू समाज का बड़ा हिस्सा और ‘सरना’ समाज का मुखर तबका भी गलत मानता है और उस पर रोक की मांग करता रहा है. अपने समूह के एक साथी ने ‘आगाह’ भी किया कि ऐसा न हो कि हम हिंदू समाज से और कट जाएँ. पर क्या ऐसी चिंता के कारण हमें अपने ‘मन की बात’ नहीं कहनी चाहिए? मैं इससे सहमत नहीं हूं.
बहरहाल, प्रथमतः मेरी नजर में तो धर्म विशुद्ध रूप से एक निजी और व्यक्तिगत आस्था का मामला/क्षेत्र है. यहां ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग परम्परागत और उसके सर्वमान्य अर्थ में किया जा रहा है. जाहिर है, गांधी के लिए धर्म का जो अर्थ है, प्रवीण तोगड़िया या जाकिर नाईक के लिए उसका अर्थ भिन्न होगा. गांधी (और उन जैसे बहुतेरे लोगों) का धर्म उनको मानव मात्र के कल्याण की प्रेरणा देता है, किसी अन्य के धर्म या धार्मिक समूह को कमतर या हेय मानने को प्रेरित नहीं करता है. आज अनेक अनीश्वरवादी भी धर्म की इस भूमिका- अच्छाई की प्रेरणा- को स्वीकार करते हैं. और गांधी धर्मांतरण के प्रबल विरोधी थे, जबकि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का विचार भिन्न था. ‘धर्मांतरण क्यों’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने लिखा है : ‘धर्मांतरण धर्मांतरण नहीं, बल्कि गुलामी की जंजीरें तोडने जैसा है.’ उल्लेखनीय है डॉ भीमराव आंबेडकर ने हिंदू समाज में स्वातंत्र्य, समानता और भाईचारे की शिक्षा के बदले अपने ही धर्म-बंधुओं को धृणा की नज़र से देखने के विरोध में अपने हजारों समर्थकों के साथ धर्मांतरण कर बौद्ध धर्म अंगीकार किया था. अब यदि किसी को अपना जन्मना धर्म कैदखाना लगने लगे, तो उस ‘कैदखाने’ को उनका ‘घर’ बनाने का प्रयास करने के बजाय उसे उसी कैद में जबरन रहने को बाध्य करना सही कैसे हो सकता है.
इस सन्दर्भ में धर्मांतरण पर गांधीजी के विचार जान लेना प्रासंगिक ही होगा.
यह तो बताया ही जा चुका है कि गांधीजी धर्मांतरण प्रक्रिया की कठोर आलोचक थे. उन्होंने धर्मों को समान मान कर सभी का आदर करने का विचार रखा था. उनके कुछ उद्वरण निम्नलिखित हैं :
‘ मैं विश्वास नहीं करता कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का धर्मांतरण करे… इसका अर्थ है सभी धर्मों के सच में विश्वास करना और उनका सम्मान करना. इसका अर्थ है, सच्ची विनयशीलता… मेरा मानना है कि मानवतावादी कार्य की आड़ में धर्म-परिवर्तन रुग्ण मानसिकता का परिचायक है. यहीं लोगों द्वारा इसका सबसे अधिक विरोध होता है. आखिर धर्म नितांत व्यक्तिगत मामला है, यह हृदय को छूता है… मैं अपना धर्म इस वजह से क्यों बदलूँ कि ईसाई मत का प्रचार करनेवाले उस डॉक्टर का धर्म ईसाई है, जिसने मेरा इलाज किया है? या डॉक्टर मुझसे यह उम्मीद क्यों रखे कि मैं उससे प्रभावित होकर अपना धर्म बदल लूँगा? (यंग इंडिया; 23 अप्रैल, 1931)
‘यदि मेरे पास शक्ति है तथा मैं इसका प्रयोग कर सकता हूँ तो मुझे धर्म-परिवर्तन को रोकना चाहिए. हिंदू परिवारों में मिशनरी के आगमन का अर्थ वेशभूषा, तौर-तरीके, भाषा, खान-पान में परिवर्तन के कारण परिवार का विघटन है.’ (हरिजन; 5 नवम्बर 1935)
‘आज भारत में और अन्य कहीं भी धर्मांतरण की शैली के साथ सामंजस्य बिठाना मेरे लिए असंभव है. यह ऐसी गलती होगी, जिससे संभवत: शांति की ओर विश्व की प्रगति में बाधा आएगी. कोई ईसाई किसी हिंदू को ईसाई मत में धर्मांतरित क्यों करना चाहता है? यदि हिंदू भला आदमी है या धर्मपरायण है, तो वह इससे संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? (हरिजन; 30 जनवरी, 1937)
इसलिए गांधी का सम्मान करते हुए भी मैं इस मामले में आम्बेडकर से सहमत हूँ. इसलिए मैं धर्मांतरण पर रोक का समर्थन नहीं करता. भारतीय संविधान और दंड विधान में भी इसे अपराध नहीं माना गया है. हालांकि छल-प्रपंच और भय दिखा कर धर्मांतरण का प्रयास एक भिन्न बात है. और धोखाधड़ी वैसे भी दंडनीय है. यह विधि व्यवस्था का मामला है, अतः इस पर केंद्र के स्तर पर कोई कानून बनाना संभव नहीं है, जैसा कि केंद्रीय कानून मंत्रालय ने कहा भी है. लेकिन राज्य स्तर भी यह गैरजरूरी ही लगता है. अभी जिन पांच राज्यों में लगभग इस तरह के कानून बने हुए हैं, वहां भी व्यवहार में इसका उपयोग नहीं ही हो रहा है.
(लेख के साथ उन राज्यों में इस तरह के कानून की स्थिति का ब्यौरा भी दिया गया है)
हालांकि धर्मांतरण को हर व्यक्ति का अधिकार मानते हुए भी, सामूहिक धर्मांतरण में मुझे हमेशा से खोट नजर आता रहा है. चाहे आम्बेडकर के नेतृत्व में हुआ धर्मांतरण क्यों न हो. एक तो इसलिए कि धर्म को निजी विश्वास का मामला मानता हूं. इसलिए भी कि वह भीड़ में शामिल लोगों का सोच समझ कर किया गया निर्णय नहीं होता, अपने पर विश्वास के कारण उनकी इच्छा या आदेश का अनुकरण करना होता है. सपरिवार धर्मांतरण में भी परिवार के मुखिया की इच्छा या आदेश का अनुकरण ही होता होगा, ऐसा लगता है.
जहां तक झारखंड में धर्मांतरण का सवाल है, मुझे ठीक ठीक नहीं पता. मगर हर दस साल में होनेवाली जनगणना से निकला आंकड़ा बताता है कि देश की आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत बीते तीन दशकों में नहीं बढ़ा है या नहीं के बराबर बढ़ा है. इसलिए मिशनरियों द्वारा ‘व्यापक’ पैमाने पर कराते जा रहे धर्मांतरण की बात अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है. झारखंड का आंकड़ा भिन्न हो सकता है.
इतना मानता हूं कि मिशनरियां धर्मांतरण का प्रयास करती हैं. उसमें प्रलोभन भी शामिल होगा. लेकिन उस ‘प्रलोभन’ में फंसता कौन है? सभी मानते हैं और मौजूदा बहस में स्वीकार कर रहे हैं कि गरीब. ख़ास कर जिनका कोई संगठित धर्म नहीं है, यानी आदिवासी. तो इसे रोकने का सरल उपाय तो यही है कि ऐसे गरीब-विपन्न तबकों की आर्थिक बदहाली दूर कर दी जाये. अब यदि ईसाई मिशनरियां ग्रामीण इलाकों में स्कूल व अस्पताल खोलती है, उनमें ईसाई (धर्मान्तरित) परिवारों को रियायत देती हैं, तो इसे ‘प्रलोभन’ कहा जा सकता है, लेकिन इस पर क्या रोक लगाना उचित होगा? यदि ग्रामीण इलाकों में अच्छे सरकारी स्कूल और अस्पताल हों, तो कोई मिशनरी स्कूल और अस्पताल के प्रलोभन में क्यों पड़ेगा. मेरे ख्याल से मिशन के स्कूलों में अब भी गैर ईसाई बच्चे ही अधिक पढ़ते हैं. उनमें से अमीर या अपेक्षाकृत संपन्न घरों के कितने बच्चे धर्म बदल लेते हैं? और यदि निर्धनता और सामाजिक भेदभाव का मारा कोई परिवार ऐसे लोभ में पड़ भी जाता है, तो मिशनरियों पर गुस्सा करने के बजाय/ या साथ साथ हमें अपनी व्यवस्था को कोसना चाहिए. उसे सुध्हरने/ बदलने का प्रयास करना चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस रोक के पीछे यह विचार हो कि धर्मांतरण न होने की गारंटी हो जाये, तो उन समुदायों और इलाकों में जनकल्याण का काम करने का दबाव थोडा और कम हो जायेगा?
यदि धर्मांतरण के लिए वे छल-बल का प्रयोग करती हैं, तो प्रमाणित होने पर अवश्य उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन महज निराधार आरोप लगाने से सिवाय माहौल ख़राब होने और बेवजह तनाव फैलने के और कुछ नही होगा. और ‘प्रलोभन’ की परिभाषा तो इतनी विस्तृत हो सकती है कि किसी भी धर्मांतरण पर यह आरोप लग सकता है, किसी तरह साबित भी कर दिया जा सकता है. हालांकि मेरा स्पस्ट मानना है कि किसी धर्म को हेय बता कर उस धर्म के व्यक्ति का धर्म बदलने के अभियान में लगा रहना भी कोई पवित्र ‘धार्मिक’ कृत्य नहीं हो सकता.
एक सवाल यह भी है कि जिनके (जाहिर है, आदिवासियों के) धर्मांतरण की इतनी चिंता की जा रही है, उनको आप मानते क्या हैं? भारतीय संविधान में तो जो भी मुसलिम या ईसाई नहीं है, उन सब को ‘हिंदू’ मान लिया गया. यह और बात है कि बाद में हमने सिखों, बौद्धों, जैनियों को भी अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया. अब झारखंड सहित अनेक राज्यों में भी आदिवासी को हिंदू से अलग धार्मिक समूह की मान्यता देने की मांग उठ रही है. तो, मौजूदा सरकार और सत्ताधारी जमात उन्हें क्या मानती है- ‘सरना’ या हिंदू, यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए. यह और बात है कि कथित ईसाइकरण के शोर के बीच इन ‘सरना’ आदिवासियों के ‘हिंदूकरण’ की प्रक्रिया भी चलती रही है; और वे भले ही प्रकट में खुद को अलग धर्म का बताते हैं, पर व्यवहार में लगभग हिंदू हो चुके हैं या तेजी से होते जा रहे हैं. शायद यही कारण है कि ‘सरना’ समुदाय के मुखर लोग भी इस प्रस्तावित कानून के समर्थन में हैं.
धर्म बदलने से संस्कृति बदल जाती है, या देश के प्रति व्यक्ति-समुदाय की निष्ठा प्रभावित होती है, ऐसा मैं नहीं मानता. हालांकि इस आशंका को पूरी तरह ख़ारिज भी नहीं करता. इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों
में इस्लामीकरण के बावजूद वहां प्राचीन संस्कृति बरकरार है. बांग्लादेश का निर्माण भी इसी कारण हुआ कि वहां के लोग अपनी भाषा और संस्कृति को न छोड़ने की जिद पर अड़े रहे. यह और बात है कि हाल के वर्षों में इन देशों में भी इसलामी कट्टरता बढ़ रही है. भारत का मुस्लिम समाज भी इससे पूरी तरह अछूता नहीं है. हालांकि वह अलग प्रसंग है. और ऐसे तर्कों के आधार पर भी धर्मांतरण पर पूर्ण रोक का समर्थन नहीं किया जा सकता. और झारखंड या देश में ईसाई आबादी बढ़ने से धार्मिक संतुलन बिगड़ जाएगा, यह आशंका तो और भी दूर की कौड़ी है, जो जनगणना के आंकड़ों से भी स्पष्ट है.
कुल मिला कर धर्म; साथ ही धर्मांतरण को गैर जरूरी, मगर व्यक्ति का निजी मामला मानते हुए, मुझे झारखंड सरकार की वर्तमान पहल भी गैरजरूरी लगती है. साथ ही इसके पीछे एक राजनीतिक मकसद भी.
देश के अन्य राज्यों में धर्मांतरण विरोधी क़ानून की स्थिति :
देश के पांच राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जबरिया या धोखे से धर्मांतरण रोकने के लिए कानून है. जबकि राजस्थान और अरुणाचल प्रदेश में ऐसा कानून बनाने की कोशिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं. धर्म परिवर्तन पर 1967 में कानून (धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम) बनाने वाले उड़ीसा के बाद देश का दूसरा राज्य बना मध्यप्रदेश. वर्ष 2013 में इस कानून में संशोधन किया गया, जिसके तहत धर्मांतरण से पहले राज्य सरकार से मंजूरी लेना अनिवार्य किया गया और जबरन धर्म परिवर्तन कराने पर सजा का प्रावधान रखा गया. मप्र के कानून को ही अपनाया मध्यप्रदेश से अलग होने पर छत्तीसगढ़ ने मप्र में बने कानून को ही अपनाया. फिर 2006 में इसे संशोधित किया और धर्मांतरण से पहले जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति लेने की अनिवार्यता की गई.
वर्ष 2003 में, यानी दंगों के एक वर्ष बाद गुजरात पहला राज्य बना, जिसने धर्म परिवर्तन को कानूनी मान्यता देने के लिए धर्मांतरण से पहले जिला प्रशासन की मंजूरी अनिवार्य की थी. संभवत: इसी को छत्तीसगढ़ ने अपनाया.
हिमाचल प्रदेश में 2006 में धर्मांतरण विरोधी कानून बना. 2007 में दलित और ईसाई समुदाय ने इसे चुनौती देने का मन बनाया. 2011 में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने स्थानीय प्रशासन से पूर्व स्वीकृति के प्रावधान को हटा दिया.
उल्लेखनीय है कि उड़ीसा में वर्ष ’67 में बने और लागू किये गये धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम को भी हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी थी. यहां कानून की परिभाषा को अस्पष्ट बताया गया, तो मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और वहां ’68 में मप्र और उड़ीसा के धर्मांतरण विरोधी कानूनी को मान्यता मिली.
राजस्थान में राज्य विधानसभा ने 2006 में धर्मांतरण का विरोध करने वाले विधेयक को मंजूर किया. लेकिन तत्कालीन राज्यपाल प्रतिभा पाटील ने उस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. इसके बाद 2008 में एक अन्य विधेयक पारित हुआ, जो राष्ट्रपति के पास लंबित है.
1978 में स्थानीय जनजातियों को कथित तौर पर प्रलोभन देकर कराये जाने वाले धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए अरुणाचल प्रदेश में कानून बनाया तो गया, लोकिन अभी तक लागू नहीं हो सका है.
तमिलनाडु में धर्मांतरण विरोधी अधिनियम 2002 भंग कर दिया गया है, जबकि इस समय झारखंड के साथ ही उत्तराखंड और कर्नाटक में भी धर्मांतरण विरोधी कानून बनाने के प्रस्ताव हैं.