एक जमाना था जब अखबार पाठकों के अनुरुप खुद को थोड़ा बहुत ढ़ालता भी था. इस बात की चिंता भी करता था कि पाठकों के बीच अलोकप्रिय होने का खामियाजा उसे प्रसार के घटने के रूप में चुकाना पड़ सकता है. लेकिन अब चूंकि वह एक बड़े धंधे में बदल चुका है और इस धंधे का मूलाधार कारपोरेट व सरकारी विज्ञापन है, इसलिए उसे पाठकों की चिंता भी नहीं रहती. वह सत्ता का भोंपू और कारपोरेट का जर खरीद गुलाम बन कर काम करता है.
हिंदी पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली रहा है. आजादी के दिनों में यदि अंग्रेजी अखबार अंग्रेजी सत्ता के पक्ष में सामान्यतः रहते थे, तो हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता सेनानियों के पक्ष में. लेकिन आज वह सामान्यतः सत्ता के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है. और चूंकि सत्ता की बागडोर कारपोरेट जगत व प्रतिगामी ताकतों के हाथ में है, इसलिए वह उन दोनों की पक्षधर दिखाई देती है. सत्ता के पक्ष में दिखाई देने की वजह से उसे गोदी मीडिया कहा जाने लगा है, लेकिन थोड़ी गहराई से देखें तो वह सिर्फ सत्ता की पक्षधर बन कर नहीं खड़ी है, बल्कि वहां भी सत्ता के उस खेमे के साथ जो समाज की प्रतिगामी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
इसकी एक वजह तो यह है कि कारपोरेट जगत और समाज की प्रतिगामी शक्तियों के बीच एक खुला गठजोड़ आज दिखाई दे रहा है. कारपोरेट जगत की तमाम बड़ी ताकतें आज हिंदुत्ववादी राजनीतिक शक्तियों के साथ हैं. उद्योग धंधों का मूल तत्व आज की तारीख में सार्वजनिक संपत्ति, मानवीय श्रम और प्राकृतिक संसाधनों की बर्बर लूट बन चुकी है. और चूंकि वर्तमान केंद्रीय सत्ता उन्हें इस बात की छूट देती है, इसलिए वे उनके मुरीद है.
इसके अलावा पत्रकारिता जगत से जुड़े अधिकतर लोगों का खुद का वर्र्गीय व जातीय चरित्र. इस बात को निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता जगत से अधिकतर लोग सवर्ण जातियों से आते हैं. कई तरह के शोधों-सर्वेक्षणों से यह तथ्य बार-बार उजागर हुआ है कि हिंदी पत्रकारिता में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाओं की संख्या बेहद कम है. यदि कोई शक हो अपने राज्य की राजधानी से निकले हिंदी अखबारों को गौर से देख लें. यानी, हिंदी पत्रकारिता में भी समाज का वही तबका प्रभावी है जो ‘पिछड़ो, दलितों और आदिवासियों के बढ़े मन’ से बेहद आक्रांत और आहत महसूस करता है. यदि बिहार में वह पिछड़ावाद के अभियुत्थान से आक्रांत रहा, तो झारखंड में आदिवासी राजनीति के बढ़ते प्रभाव से.
परिणाम हम इस रूप में फलित होते देख सकते हैं कि पूर्ववर्ती भाजपा सरकारों से उसकी कमोबेस सांठगांठ और गहरे सरोकार रहे हैं. सत्ता यदि ईसाई विरोधी मुहिम चलाती है तो वह उसके साथ खड़ा दिखता है. सत्ता यदि मुस्लिम विरोधी राजनीति चला रही हो तो उसे भी यह सूट करता है. और स्वभावतः वह उस सरकार या राजनीतिक ताकतों के खिलाफ खड़ी हो जाती है जो वंचित जमात की एकजुटता से अस्तित्व में आयी है. इस नये सामाजिक ताने बाने को तोड़ने में उसकी उतनी ही रूचि है जितनी प्रतिगामी ताकतों की. इसलिए झारखंड की नई सरकार के साथ उसकी ट्यूनिंग बहुत अच्छी नहीं.
हिंदी पत्रकारिता के पतन की एक वजह यह भी है कि सामान्यतः हिंदी पत्रकारिता अभी भी केरियर की दृष्टि से अच्छी नहीं मानी जाती. कुछ आदर्शवादी तेज तर्रार और मेधावी युवा भी इसकी तरह आकर्षित हो जाते हैं, लेकिन सामान्यतः इस पेशे में वैसे युवा ही आते हैं जिन्हें कोई अन्य पेशा या रोजगार नहीं मिलता. एक बड़ी सच्चाई है कि शुरुआती दिनों में अखबार के मुख्यालयों में कुछ लोग पे रोल पर रखे जाते थे, लेकिन मुुफस्सिल पत्रकारों की बड़ी दुनिया से तो यही तकाजा रहता है कि वह अपने इलाके से विज्ञापन जुटाये, अखबार के मालिकों तक पहुंचाये और उसके कमीशन से अपना जीवन यापन करे. वेतन के नाम पर उन्हें जो कुछ भी दिया जाता है, उसे सार्वजनिक रूप से बताते भी उन्हें शर्म महसूस होती है. अभी भी हालत कमोबेस वैसी ही है. बल्कि पहले से खराब हुई है, वह इस रूप में कि अब पे रोल की जगह ज्यादातर लोग अनुबंध पर खटते हैं.
चूंकि कैरियर के रूप में पत्रकारिता बेहतर पेशा नहीं माना जाता, इसलिए सामान्यतः इस पेशे में वैसे ही लोग आते हैं जिनमें पेशागत ईमानदारी और योग्यता की कमी रहती है. लगातार काम करने की वजह से वे पत्रकारिता की काम चलाउ भाषा और वाक्य विन्यास, जुमलेबाजी आदि तो वे सीख लेते हैं, लेकिन सामाजिक सरोकार नहीं होने की वजह से वे अपने विषयवस्तु के साथ न्याय नहीं कर पाते. एक लंबे अरसे तक तो उनकी खामियां इस सूत्र में छुपती रही कि पत्रकार सिर्फ तथ्यों का वाहक होता है. लेकिन तथ्यों को देखने के लिए भी एक जीवन दृष्टि चाहिए. और अब तो वह आधे अधूरे तथ्यों का भी वाहक नहीं रहा, वह सिर्फ और सिर्फ अखबार के मालिकों के हितों के अनुरुप समाचार गढ़ता है. क्योंकि अब बेहद कम ऐसे औद्योगिक घराने रह गये हैं जिनके लिए अखबार निकालना एक स्वतंत्र काम था, अब तो अखबार उनके एक विशाल औद्योगिक उपक्रम का एक छोटा सा हिस्सा है जिसका उद्देश्य उनके मूल व्यापारिक हितों की सुरक्षा करना होता है.
एक जमाना था जब अखबार पाठकों के अनुरुप खुद को थोड़ा बहुत ढ़ालता भी था. इस बात की चिंता भी करता था कि पाठकों के बीच अलोकप्रिय होने का खामियाजा उसे प्रसार के घटने के रूप में चुकाना पड़ सकता है. लेकिन अब चूंकि वह एक बड़े धंधे में बदल चुका है और इस धंधे का मूलाधार कारपोरेट व सरकारी विज्ञापन है, इसलिए उसे पाठकों की चिंता भी नहीं रहती. वह सत्ता का भोंपू और कारपोरेट का जर खरीद गुलाम बन कर काम करता है. इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पत्रकारिता में अच्छे लोग हैं ही नहीं, लेकिन वे आज के इस माहौल में हर वक्त घुटा-घुटा महसूस करते हैं. और जो यहां रस बस गये उनकी कामना यही रहती है कि पत्रकारिता का इस्तेमाल कर कुछ सरकारी कोटा-परमिट-सुविधा हासिल कर लें, या फिर राज्य सभा में चले जायें या फिर किसी मंत्री के पीए बन जायें.
ऐसे वातावरण में आप हिंदी पत्रकारिता से क्या उम्मीद कर सकते हैं?