अपने झारखंड का पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला- खरसावां जिला मई माह में बच्चा चोरी के अफवाह के माहौल में कई हत्याओं का गवाह बना. इनमें दो घटनाएं ज्यादा बड़ी और जघन्य रहीं. सराईकेला-खरसांवा के राजनगर प्रखंड के शोभापुर गांव में तथा जमशेदपुर शहर से सटे नागाडीह गांव में. इन दो घटनाओं को राष्ट्रीय सुर्खी भी मिली. शोभापुर गांव में ग्रामीणों ने पास के इलाके के मुस्लिम व्यवसायियों की हत्या की और नागाडीह गांव में ग्रामीणों ने नजदीक के एक व्यावसायी परिवार के लोगों की हत्या की. इसके पहले पोटका जादुगोड़ा क्षेत्र में कई गांव में ग्रामीणों ने संदेहास्पद स्थिति में घूम रहे अपरिचित लोगों को मारा था. नागाडीह और शोभापुर से इन घटनाओं का बड़ा फर्क यह था कि इन घटनाओं में अकेले और अपरिचित लोग मारे गये.
इन घटनाओं के बाद पार्टियां और प्रशासन अपनी मानसिकता एवं हित के अनुसार विश्लेषण कर रही हैं और भूमिका ले रही हैं. प्रशासन पूरी मुश्तैदी से, बल्कि जरूरत से ज्यादा मुश्तैदी से कार्रवाई कर रहा है. घटनाके बारे में जितने कारण और विश्लेषण आ रहे हैं, ऐसी घटनाओं की रोक थाम के लिए जो संदेश और आह्वान दिये जा रहे हैं, उन सब में बहुत सारी जरूरी बातें गैर हाजिर हैं. कुछ बातें इस मसले पर मुखर तमाम कोनों से आ रहे हैं. ये हत्यायें गलत हैं. अफवाह फैलाने वालों और हत्या में शामिल लोगों को सजा दी जाये, प्रशासन दमन का माहौल नहीं बनाये और निर्दोषों को गिरफ्तार न करे. ऐसी बातें लगभग सभी लोग कर रहे हैं. फिर भी अलग-अलग समूहों के स्वरों की तीव्रता में फर्क है. घटनास्थल के आसपास के सचेत लोग तथा झारखंडी तथा आदिवासी मसलों पर सक्रिय अधिकांश लोग यह कहते हैं कि शोभापुर के मृतक गोमांस के व्यापारी थे. उन्हें कई बार यह व्यापार करने से मना किया गया था. तथा नागाडीह के मृतक जमीन खरद बिक्री के अवैध कारोबार में लगे थे. उनकी चिंता हत्यारों पर कार्रवाई से ज्यादा निर्दोषों की गिरफ्तारी के प्रति दिखती है. परिवर्तनवादी राजनीति करने वाले जमातों की मुखरता प्रशासन की भूमिका की प्रभावहीनता पर ज्यादा केंद्रीत है. उनका स्वर है कि अगर प्रशासन प्रभावी भूमिका निभाता तो ये हत्यायें रोकी जा सकती थी. भाजपा पक्षीय लोगों को इसमें सरकार को अस्थिर करने की साजिश नजर आती है तथा फासीवाद के उभार से चिंतित लोगों को इन घटनाओं में राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे मुस्लिम विरोधी और दलित विरोधी साजिश का सिलसिला नजर आता है.
ये सारे विश्लषण अपने अपने स्तर पर सच हैं या हो सकती हैं. लेकिन कोई भी विश्लेषण अपने में पूरा नहीं है. ये सारे विश्लेषण मिल कर भी न तो घटनाओं का पूरा कारण बता पाती हैं और न रोकथाम की दिशा बता पाती हैं. कई बेहद जरूरी बातें जो इस घटना के साथ जुड़ी हुई हैं, या तो आयी नहीं या बेहद कमजोर तरीके से धीमें स्वर में आई हैं. कुछ प्रश्नों के जरिये इन जरूरी बातों को समझा जा सकता है. बच्चा चोरी की अफवाह कुछ गिने चुने लोगों ने ही फैलाई होगी. लेकिन कुछ शहरियों, अधिकांशतः बाहरियों के द्वारा सोसल मीडिया के माध्यम से फैलाये गये इन अफवाहों का सिंहभूम के ग्रामीणों में इतने व्यापक और हिंसक तरीके से असर कैसे हो गया? आम तौर पर शांतिप्रिय और अहिंसक ग्रामीणों ने इनह हत्याओं में सहयोग या सहभाग क्यों किया? घटना के बाद भी उत्तेजना से मुक्त होने के बाद भी इन गांवों के न्यायप्रिय और सचेत लोगों ने दोषियों को दंडित करवाने की भूमिका क्यों नहीं निभाई? इन प्रश्नों का सीधा संकेत यही है कि गांवों में मानवाधिकार और लोकतंत्र की चेतना बेहद कमजोर है. इतनी कमजोर कि ग्रामीण अप्रमाणिक प्रचार के बहकावे में गांव के भीतर मौजूद चंद आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के बहकावे का शिकार हो जाते हैं. इस संदर्भ में इन क्षेत्रों की कुछ निर्दोष एवे आक्रामक जन प्रतिरोध की घटनाओं को याद कर समझ बनाई जा सकती है. अपने गांव की जमीन की रक्षा के लिए लड़ रहे गांवों में जब बाहरी व्यक्ति सर्वेक्षण करने या किसी अन्य कामों के लिए आते थे तो ग्रामीण उन्हें जूते की माला पहनाते थे या पकड़ कर उन्हे थाने को सौंपते थे. ऐसी भूमिका इन सारे प्रकरणों में ली जा सकती थी जिससे जनता का आक्रोश भी व्यक्त होता और अपराधियों का अनुसरण भी नहीं होता.
इन घटनाओं का सबसे बुरा असर मानवाधिकार की चेतना, लोकतंत्र की भावना तथा ग्राम सभा की स्वायत्तता पर पड़ा है. ऐसी घटनाओं का सही समाधान भी मानवाधिकार की चेतना तथा ग्रामसभा की स्वायत्तता को मजबूत बना कर ही किया जा सकता है. एक और बात छूटी रह गई, जो चांडिल ईचगढ क्षेत्र में घटी एक घटना की ताजी खबर के माध्यम से समझा जा सकता है. एक तांत्रिक ने एक बच्चे का अपहरण कर उसकी बली चढा दी, यानि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि बच्चा चोरी की घटना हुई ही नहीं या होती ही नहीं है. इस बच्चा चोरी और उसकी बली की घटना के पीछे सीधे-सीधे अंधविश्वास है और ऐसे अनेक अंधविश्वासों की जकड़ में हमारा समाज है. ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अंधविश्वास के खिलाफ भी मुहिम चलाने की जरूरत है. इन सामाजिक सांस्कृतिक भूमिकाओं पर इस पूरे प्रकरण में गहरी चुप्पी है. और यह चुप्पी घातक है. इन घटनाओं पर जो भूमिका ली जा रही है, उनमें उपरोक्त बातों के अलावे ग्रामसभा के स्तर पर भूमिका लिये जाने की जरूरत है. हमे नागाडीह, शोभापुर और अन्य अफवाहग्रस्त या तनावग्रस्त गांव में ग्रामसभा कर आवश्यक निर्णय लेने का आह्वान करना चाहिए. प्रशासन से भी यह मांग करनी चाहिए कि वह ग्रामसभा और पंचायती संस्थाओं को पूरा महत्व देते हुये उनके माध्यम से दोषियों को चिन्हित करने और उन्हें सजा दिलानी की कार्रवाई करे. इन घटनाओं से गांव, ग्रामीणों और ग्रामसभा की यही छवि बनी है कि वे या तो बेअसर हैं या आपराधिक प्रवृत्तियों के साथ हैं. प्रशासन को पंचायती संस्थानों के अधिकार का अतिक्रमण करने का अवसर मिला है. इस कारण ग्रामसभा के सारे पक्षधरों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे ग्रामसभा को मानवाधिकारों की चेतना से लैश करने, अंधविश्वासों और अफवाहों का मुकाबले करने, गांव के अनियंत्रित अपराधियों को नियंत्रित करने और ग्रामसभा पर प्रशासनिक तंत्र के अतिक्रमण को रोकने की दिशा के साथ अपनी भूमिका ले. विश्व हिंदू परिषद और मुस्लिम नामधारी संगठन ऐसी घटनाओं के वक्त घुसपैठ करके सांप्रदायिक विद्वेष की जमीन तैयार करने का जो काम करते हैं, उसे भी नकारने की जरूरत है. तभी गांव को जमीन लुटेरों और चुनावी राजनीतिबाजों से बचाया जा सकेगा.